रावल बप्पा (काल भोज)
भारत के क्रांतिकारी और रोमांचकारी स्वाधीनता संग्राम को अपने बाहुबल और बुद्धि बल से सुशोभित करने वाले बप्पा रावल हम सबके लिए प्रातःस्मरणीय हैं। उन्होंने समकालीन इतिहास को नई दिशा और नई ऊंचाई प्रदान की। जिस समय विदेशी आक्रमणकारियों के लुटेरे दल गिद्धों की भांति भारत भूमि पर उतर रहे थे, उस कालखंड में स्वतंत्रता की सतत साधना करने वाले बप्पा रावल का भारतीय स्वाधीनता संग्राम को गतिशील बनाने में अनुपम और अवर्णनीय योगदान है।
उनके अनुपम योगदान के चलते भारत की स्वाधीनता की समकालीन परिस्थितियों में रक्षा होना संभव हुआ ।
योगदान अनुपम दिया, रचा दिया इतिहास।
भारत के सम्मान हित, किया शत्रु का नाश।।
इतिहास में बप्पा रावल को कालभोज के नाम से भी जाना गया है। उन्होंने प्राणों को संकट में डाल कर मां भारती के सम्मान की रक्षा की थी। आक्रमणकारी मुसलमानों को घर में जाकर मार लगाने का कीर्तिमान यदि किसी के पास में है तो वह बप्पा रावल के पास ही है। उन परिस्थितियों में उनके द्वारा किया गया यह कार्य उनको अमर बनाने के लिए पर्याप्त है।
जन्म के बारे में विवाद
भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इस अमर नायक बप्पा रावल के जन्म पर विवाद है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उनका जन्म 713 - 14 ईसवी में चित्तौड़ में हुआ था। उस समय चित्तौड़ पर मौर्य शासक मान मोरी का राज्य था। जहां कुछ इतिहासकार उनका जन्म 713- 14 ईसवी में मानते हैं वहीं सावरकर जी का मत इन सबसे भिन्न है। इस संबंध में अखिल भारत हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे सुप्रसिद्ध राष्ट्रवादी चिंतक और विचारक दिनेश चंद्र त्यागी जी ने लिखा है कि हिंदुओं की पराजय का काला इतिहास पढ़ने लिखने वाले कृपया यह भी विचार करें , जिसे स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने लिखा — ‘ भयानक आक्रमणों के बाद भी हम हिंदू जीवित रहे , क्योंकि हम जीवित रहने योग्य थे । ‘ यहां प्रस्तुत है इतिहास के कुछ अध्याय जिन पर पाठक ग्रंथ अवश्य विचार करें :–
1 — ( क ) सन 712 में मोहम्मद बिन कासिम ने पूरे सिंध प्रांत को लूटा और फिर सिंध को इस्लामी राज्य बना डाला । यह इतिहास का एक पृष्ठ है । जिसे अवश्य पढ़ना चाहिए ।
1– ( ख ) परंतु इसके 2 वर्ष बाद ही सिंध पर मेवाड़ नरेश बप्पा रावल ने आक्रमण किया और कासिम के इस्लामी राज्य को कब्र में सुला दिया । 468 वर्ष तक फिर सिंध में हिंदू राज्य स्थित बना रहा। महाराणा प्रताप के 800 वर्ष से अधिक पहले उनके पूर्वज थे महाराणा बप्पा रावल । इस इतिहास का विंसेंट स्मिथ जैसे प्रख्यात इतिहासकार ने भी उल्लेख किया है। इन्हीं बप्पा रावल ने बसाई थी रावलपिंडी ।”
इस प्रकार के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि बप्पा रावल 713 – 14 ई0 में तो शासन कर रहे थे। अतः उनका जन्म इससे पूर्व ही हुआ होगा।
कई इतिहासकारों की मान्यता है कि बप्पा रावल ( जिन्हें कालभोज भी कहा जाता था ) का जन्म 713-14 ई. में हुआ। यहां पर यह बात विचारणीय है कि यदि मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के 2 वर्ष पश्चात ही उसके आक्रमण का प्रतिशोध बप्पा रावल के नेतृत्व में ले लिया गया था तो या तो यह तिथि कुछ आगे की है या फिर मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से वर्षों पहले बप्पा रावल का जन्म हो चुका था। हमारा मानना है कि मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण का प्रतिशोध माउंट आबू पर उस समय शंकराचार्य देवलाचार्य द्वारा आहूत राजाओं की बैठक के पश्चात ही लिया गया था। यह घटना भी 720 ई0 या उससे बाद की ही है।
यह तथ्य भी सर्वमान्य है कि गुर्जर प्रतिहार वंश के संस्थापक नागभट्ट प्रथम के साथ मिलकर बप्पा रावल ने अरब आक्रमणकारियों से मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण का प्रतिशोध लिया था। गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना पर भी अधिकांश इतिहासकारों की मान्यता है कि यह घटना भी 730 ई0 ( कहीं-कहीं यह 725 ई0 भी लिखी गई है ) की है। इससे भी यह स्पष्ट होता है कि बप्पा रावल ने मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण का प्रतिशोध उसके आक्रमण के 2 वर्ष पश्चात तो कम से कम नहीं लिया था। हमारा मानना है कि नागभट्ट प्रथम ने बप्पा रावल के साथ मिलकर इस कार्य को 724 – 25 ई0 में ही संपन्न किया था। उस समय नागभट्ट युवा थे और इस प्रकार के कार्यों में वह बढ़-चढ़कर भाग ले रहे थे जो राष्ट्रवादी शक्तियों को प्रोत्साहित करने वाले हों। अपने इस प्रकार के कार्यों में मिली सफलता के पश्चात ही उन्होंने उसी प्रकार प्रतिहार गुर्जर वंश की स्थापना की थी, जिस प्रकार आगे चलकर कई किलों को जीतने के पश्चात शिवाजी महाराज ने ‘हिंदवी स्वराज्य’ की स्थापना की थी।
जन्म के समय चित्तौड़ की स्थिति
बप्पा रावल के जन्म के समय चित्तौड़ पर मौर्य शासक मान मोरी का शासन था। बप्पा रावल ने मान मोरी को पराजित कर उसका मान मर्दन किया और चित्तौड़ के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। बप्पा रावल एक बड़ा लक्ष्य लेकर चल रहे थे। इसके लिए उन्होंने बड़ी ही तैयारी करनी आरंभ की। उन्होंने इस बात को भली प्रकार समझ लिया था कि इस समय दुर्बल शासकों का रहना राष्ट्रहित में उचित नहीं है। उनका मानना था कि राष्ट्रहित में एक बड़ी शक्ति तैयार की जाए और ऐसी सैन्य योजना पर कार्य किया जाए , जिससे भारत के सम्मान और संस्कृति की रक्षा हो सके। वह लंबी दौड़ के घोड़े बन चुके थे।
लक्ष्य बड़ा लेकर चला , बढ़ा भव्य की ओर।
वह शत्रु का संताप था, शांत किया था शोर ।।
बप्पा रावल प्रारंभ से ही अपनी देशभक्ति के कारण प्रसिद्धि के शिखर पर चढ़ने लगे थे। विदेशी मुसलमान आक्रमणकारी जिस प्रकार उस समय भारत की सीमाओं पर उत्पात मचा रहे थे या मोहम्मद बिन कासिम जैसा लुटेरा भारत के भीतर तक आने में सफल हो गया था, उन सारी परिस्थितियों से यह महान देशभक्त योद्धा पूर्णतया परिचित था। वह नहीं चाहते थे कि भारत की पवित्र भूमि को चोर उचक्के शासक बन कर अपमानित करें। उन्हें इन विदेशी आक्रमणकारियों के नामोनिशान तक को भारत की पवित्र धरती से मिटा देने की प्रबल इच्छा भीतर से उद्वेलित कर रही थी।
भारत के इतिहास में ऐसे महान योद्धाओं की ऐसी देशभक्ति पूर्ण सोच या मानसिकता या आंदोलित मनःस्थिति को जानबूझकर प्रकट नहीं किया गया है। जिससे ऐसा लगे कि भारतवासियों के भीतर मोहम्मद बिन कासिम या उसके पूर्ववर्ती या पश्चातवर्ती किसी भी विदेशी आक्रमणकारी के आने पर और यहां पर किसी भी प्रकार के अत्याचार करने पर किसी भी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं हो रही थी। वे सब शांत थे। वे या तो विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण के समक्ष असहाय थे या फिर उन विदेशी आक्रमणकारियों की उदारता, पवित्रता हृदय की विशालता और उनके अच्छे विचारों के कारण उन्हें सहज रूप में स्वीकार कर रहे थे । हम लोगों के मन मस्तिष्क में ऐसे विचार को स्थापित करने के लिए हमारे तत्कालीन पूर्वजों या उससे पूर्व के महान ऋषियों तक को भी अज्ञानी, पाखंडी या ढोंगी दिखाया जाता है।
इतिहासकारों की मक्कारी
इतिहासकारों की इस प्रकार की मक्कारी से बड़ी सहजता से यह बात स्थापित करने में मुस्लिम विद्वानों को सफलता मिल जाती है कि भारत के लोगों ने उस समय इस्लाम और कुरान की शिक्षाओं का स्वागत किया था। पर सच यह नहीं था। सच यह था कि उस समय बप्पा रावल जैसे क्रांतिकारी लोग विदेशी आक्रमणकारियों से लोहा लेने की तैयारी कर रहे थे । बप्पा रावल और उनके साथी भारत की परंपरा का प्रतीक बन चुके थे जो राष्ट्र, राष्ट्रवासियों और हमारी राष्ट्रीयता का विनाश करने के लिए या ऐसा करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर भारत की ओर देखने का दुस्साहस करने वालों के विनाश के लिए प्राचीन काल से काम करती आ रही थी।
शत्रु विनाश के लिए प्राचीन काल से काम करते रहने वाली इसी परंपरा के प्रतीक बने उन्हीं क्रांतिकारियों के कारण उस समय विदेशी आक्रमणकारियों को भारत की भूमि से खदेड़ने का संकल्प लिया गया था। बप्पा रावल का समकालीन गुर्जर प्रतिहार वंश का संस्थापक नागभट्ट प्रथम भी इसी प्रकार के क्रांतिकारी भावों से भरा हुआ महान योद्धा था। दोनों भारत भक्त वीर योद्धाओं ने उस समय अपने बाहुबल से मिट्टी से साम्राज्य खड़ा किया और विशाल सेना का गठन कर विदेशी आक्रमणकारियों को भारत की भूमि से खदेड़ने में सफलता प्राप्त की थी। यदि सूक्ष्मता से अवलोकन किया जाए तो नागभट्ट प्रथम, बप्पा रावल और उन जैसे अन्य अनेक देशभक्तों के माध्यम से उस समय जो कुछ भी घटित हो रहा था वह भारत भूमि पर होने वाली बहुत बड़ी राष्ट्रवादी क्रांतिकारी हलचल थी। इस हलचल के कारण भारत में उस समय ही नहीं उसके बाद भी अनेक क्रांतिकारी भूकंप आते रहे। जिनके झटके दूर-दूर तक और देर तक अनुभव किए गए। यह अलग बात है कि भूकंप के उन केंद्रों और उन झटकों को मिटाने का भी बहुत बड़ा घातक प्रयास देश में किया गया है।
हलचल पैदा की देश में, ला दिया भूकंप।
शत्रु भागा देश से , काट दिया अवलंब।।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि बप्पा रावल और नागभट्ट प्रथम जैसे जिन योद्धाओं के पास एक इंच भूमि भी राज्य के नाम पर नहीं थी, उन्होंने अपना साम्राज्य स्थापित करने का संकल्प लेकर भारत भक्ति का प्रदर्शन करते हुए जिस प्रकार विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों को भारत भूमि से खदेड़ने का क्रांतिकारी कार्य उस समय किया था, उसका तो इतिहास को अभिनंदन करना चाहिए था। इस अभिनंदन का कारण केवल यह है कि हमारे इन वीर योद्धाओं ने मां भारती के सम्मान के लिए अपनी वीरता और पराक्रम का परिचय देते हुए अपने साम्राज्यों का निर्माण किया था। उन्होंने विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों की भांति दूसरों के अधिकारों को छीनने, उनकी महिलाओं के साथ अत्याचार करने या उनके धन आदि को लूट कर नरसंहार करने के लिए साम्राज्य खड़े नहीं किए थे। पर विदेशी शत्रु लेखकों के द्वारा लिखे गए इतिहास में इन महान क्रांतिकारियों के लिए इस प्रकार के अभिनंदन के शब्द ढूंढने के लिए आपको बहुत परिश्रम करने के उपरांत भी निराशा ही हाथ लगेगी। भारतीय इतिहास का यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि इसमें लुटेरों को सम्मान देते - देते लुटेरों से लोगों की रक्षा करने वालों को ही लुटेरा दिखा दिया गया है।
सिकंदर, मोहम्मद बिन कासिम, गजनी या गोरी या बाबर जैसा बर्बर विदेशी आक्रमणकारी यदि दूसरे देशों की संस्कृति को मिटाने के लिए सेनाएं सजाता है या मिट्टी से साम्राज्य खड़ा करने का संकल्प लेता है तो वह अभिनंदन का पात्र हो जाता है और अपनी संस्कृति, अपने देश और अपने धर्म को बचाने के लिए यदि बप्पा रावल और नागभट्ट प्रथम जैसे लोग मिट्टी से साम्राज्य खड़ा करते हैं तो वे या तो भुला दिए जाते हैं या उपेक्षा का पात्र बना दिए जाते हैं ?
देवदूत बप्पा रावल
बप्पा रावल और नागभट्ट प्रथम जैसे वीर योद्धाओं को हमें इस दृष्टिकोण से देखना चाहिए कि वह उस समय भारत के पराक्रम में आई शिथिलता को दूर करने के लिए धरती पर भेजे गए देवदूत थे । जिन्होंने भारत के लोगों के भीतर देश भक्ति का संचार कर उन्हें अपने प्राचीन गौरव का स्मरण दिलाया और यह बताया कि विदेशी आक्रमणकारी जिस प्रकार की संस्कृति को लेकर यहां आ रहे हैं वह हमारे लिए घातक सिद्ध होगी। उनके इस प्रकार के आवाहन ने लोगों को आंदोलित किया और वे स्वेच्छा से अपने इन महान देशभक्तों के द्वारा तैयार की जा रही सेना में स्वेच्छा से सम्मिलित हो गए। हमें यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि इस प्रकार की सेनाएं उस समय वेतन लेकर पेट भरने के लिए नहीं बनाई जाती थीं अपितु देश के लिए सिर देने के लिए बनाई जाती थीं। उन सेनाओं में सम्मिलित होने का अर्थ किसी दूसरे की धन संपदा को लूटना नहीं था , ना ही महिलाओं के सम्मान के साथ खिलवाड़ करना था अपितु इसका उद्देश्य केवल और केवल देशभक्ति था।
इसके विपरीत विदेशी आक्रमणकारियों की सेनाएं उस समय हमारे ‘लूट के माल’ को बांटने के स्वार्थ से प्रेरित होकर बनाई जाती थीं। आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि महानता किस के विचारों में झलकती थी ? विदेशी आक्रमणकारियों की लुटेरी सेना के विचारों में या देश की रक्षा के लिए संकल्पित होकर सिर देने की परंपरा का निर्वाह करने वाली भारतीय वीर योद्धाओं की सेना के विचारों में ? दानवतावादी शक्तियों से बचाने के लिए जो अपने आपको प्रस्तुत कर देता है, वह देवदूत होता है। यह आवश्यक नहीं कि ऐसा देवदूत बड़े-बड़े ग्रंथों का ज्ञाता हो, वह यदि बड़े-बड़े ग्रंथों की शिक्षाओं की रक्षा के लिए भी अपने आप को समर्पित करता है तो भी उसका होना किसी देवदूत से कम नहीं होता। कथा में कितने लोग आए , यह देखना आवश्यक नहीं। देखना यह आवश्यक है कि कथा कितने लोगों में आई अर्थात सम्मान भाव का होता है। किसी भी कार्य करने के पीछे भाव कैसा था ? यह देखा जाता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत