जिसको न निज गौरव न निज देश का अभिमान है
भारत में राष्ट्र की सर्वप्रथम कल्पना की गयी। सम्पूर्ण भूमण्डल पर भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो अपने राष्ट्रवाद में सम्पूर्ण वसुधा के कल्याण को समाहित करके चलता है। हमारा राष्ट्रवाद संकीर्ण नहीं है। हमारे ऋषियों ने सबके कल्याण की भावना से प्रेरित होकर ही राष्ट्र की संस्था की खोज की थी। अथर्ववेद के इस मन्त्र से इस बात की पुष्टि होती है-
भद्रमिच्छन्त ऋषय: स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे। ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मैदेवा उपसंनमन्तु।।
(अथर्व. 19-41-1)
अर्थात सुख शान्ति को जानने और प्राप्त करने वाले ऋषियों ने सर्वप्रथम सुख दु:ख आदि द्वन्द्व सहन की क्षमता और किसी लक्ष्य विशेष के लिए आत्मसमर्पण ग्रहण किया। उस तप और दीक्षा के आचरण से राष्ट्रीय प्रभाव उत्पन्न हुआ। इसलिए इस राष्ट्र के सम्मुख देव भी अर्थात शक्ति सम्पन्न लोग भी झुकें अर्थात उचित रीति से सत्कार करें।
इस वेद मंत्र में तप और दीक्षा को राष्ट्र के विकास के लिए आवश्यक माना गया है। वेदमन्त्र के अवलोकन से स्पष्ट है कि राष्ट्रवाद की भावना को प्रबल करने के लिए जिन आवश्यक उपायों को हमारे ऋषियों ने उचित माना है वह संसार के अन्य देशों के राष्ट्रवाद में खोजना सर्वथा असम्भव है। इस मन्त्र में स्पष्ट किया गया है सबके भद्र की इच्छा से प्रेरित होकर हमारे ऋषियों ने राष्ट्र राज्य की स्थापना की। इस प्रकार हमारे राष्ट्र का पहला अनिवार्य तत्व है कि वह सर्वकल्याण अर्थात लोक कल्याण की भावना से प्रेरित हो। आजकल लोग जिस लोककल्याणकारी राज्य की बात करते हैं-वह इसी वेदमंत्र की देन है। मध्यकाल में लोगों ने अपने कल्याण के लिए और अपने नाम के लिए राष्ट्रों की स्थापना की, जिन्हें हम ‘रियासत’ के नाम से जानते हैं ये सारी रियासतें रक्तपात के आधार पर स्थापित की गयीं। रियासत शब्द राष्ट्र से ही बना है, पर रियासतें राष्ट्र नहीं बन पायीं। क्योंकि ये किसी ‘सिकंदर’ या ‘अलाउद्दीन’ की निजी महत्वाकांक्षा अर्थात विश्वविजय करने की भावना पर केन्द्रित थी। जिसके लिए उन्होंने भारी रक्तपात किया। फलस्वरूप उसे लोक कल्याणकारी राज्य की संज्ञा नहीं दी गयी। पर भारत ने सृष्टि प्रारम्भ से आज तक कभी भी साम्राज्य विस्तार की भावना से प्रेरित होकर नरसंहार करते हुए अपना राज्य दूसरों पर नहीं थोपा। इसका अभिप्राय है कि भारत के राजाओं ने अपने ऋषियों के इस चिन्तन को गांठ बांधकर रखा कि राष्ट्र को लोककल्याणकारी भावना से प्रेरित होकर ही कार्य करना चाहिए। रामचन्द्रजी लंका पर चढ़ाई करते हैं तो आप देखिये कि उन्होंने वहां जाकर केवल रावण का ही वध किया और उसके उन सैनिकों का वध किया जिन्होंने राम रावण युद्घ में स्वेच्छा से भाग लिया था। जनसाधारण से कुछ नहीं कहा गया। इतना ही नहीं रामचन्द्र जी ने लंका का राजा भी विभीषण को ही बनाया। यद्यपि वह चाहते तो लंका को अपने राज्य में मिला सकते थे। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि वह जानते थे कि ऐसा करने से राष्ट्र के लोककल्याणकारी स्वरूप को आघात लगेगा। ऐसे अनेकों उदाहरण हमारे इतिहास में हैं। हमारा कोई भी राजा जनता का रक्तपिपासु नहीं हुआ और यदि हुआ तो उस ‘कंस’ के लिए हर युग में कोई न कोई ‘कृष्ण’ भी इसीलिए हुआ कि उसके अत्याचारों का अन्त करके सामान्य स्थिति बहाल की जा सके।
मन्त्र में तप और दीक्षा की बात भी कही गयी है। तप का अर्थ शरीर से जलना, मन से जलना जलाना है। सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वों को सहन करना, अपने कत्र्तव्य का एकनिष्ठ होकर पालन करना और जितेन्द्रियता की साधना करना है। हमारे राजा लोग भी इस प्रकार की साधना किया करते थे। जिससे कि हमारे देशवासियों या राष्ट्रवासियों का चारित्रिक विकास किया जा सके। जब राजा तपस्वी होगा तो उस देश की जनता भी तपस्वी होगी ही, ‘यथा राजा तथा प्रजा’ का अर्थ यही है। यह केवल भारत ही है जो इस आदर्श को जानता है और मानता है कि राजा को तपस्वी होना चाहिए, क्योंकि उसके तपस्वी होने से ही तपस्वी लोगों का और तपस्वी विश्व समाज का निर्माण किया जा सकता है। राष्ट्र निर्माण के लिए यह मौलिक तत्व है कि राजा तपस्वी हो। राजा के लिए कड़ा कानून या कड़ी मर्यादा की खोज भारत ने ही की है। शेष विश्व के देशों ने राजा को कडी मर्यादा से मुक्त रखा है। इसका कारण ये है कि भारत में राष्ट्र की स्थापना ऋषियों ने की और विदेशों में राष्ट्र की स्थापना राजाओं की तलवारों ने की। भारत के ऋषियों की तलवार उनकी लेखनी थी, जिसने मर्यादाओं का पालन करने के लिए राजा को प्रेरित किया।
दीक्षा का अर्थ यज्ञ करना, उपनयन करना, आत्मनिग्रह करना, धर्म सिखाना और आदेश देना है। इस प्रकार दीक्षा का अर्थ अपने आपको तपस्वी बनाकर आत्म निग्रही बना लेना है। आदेश वही देगा जो स्वयं में तपस्वी और आत्मनिग्रही होगा।
भारत में राष्ट्र के लिए साधना करने वाले महान तपस्वियों की लम्बी श्रंखला है। भारत पर विदेशियों ने जब पहला प्रमुख आक्रमण सन 712 ई. में किया, तभी से भारत के राष्ट्रप्रेमी सपूतों ने अपने आपको तप की भट्टी में धकेल दिया। राजा दाहर से लेकर पृथ्वीराज चौहान, राजा जयपाल, सम्राट मिहिरभोज, राजा अनंगपाल, राणा सांगा, महाराणा प्रताप सिंह, शिवाजी, बंदा वीर वैरागी, राजा छत्रसाल, रानी हाड़ी, रानी पद्मिनी पन्नाधाय, गुरू गोविन्दसिंह आदि से लेकर महर्षि दयानन्द, श्यामजी कृष्ण वर्मा महादेव गोविन्द रानाड़े, लाला लाजपत राय, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, वीर सावरकर, भाई परमानन्द जी, सरदार पटेल प्रभृति अनेकों और असंख्यों देशभक्त ऐसे हुए जिन्होंने देश के लिए कष्ठ उठाये और महान तप किया। फलस्वरूप देश को मुक्ति मिली।
यदि अपने दीर्घकालीन स्वतंत्रता संग्राम का हम निष्पक्ष भाव से अवलोकन करें तो इसके पीछे भी ऋषियों का वही चिन्तन कार्य कर रहा था कि हमें लोककल्याण के लिए राष्ट्र की साधना अर्थात तप करना चाहिए। दूसरों के उद्घार के लिए अपना सुख छोड़ देना भारत ने ही विश्व को सिखाया है। ऐसी भावना से ही राष्ट्रवाद की भावना को बल मिलता है। यही कारण है कि यह मन्त्र अन्त में कह रहा है कि इस राष्ट्र के समक्ष चाहे कोई व्यक्ति कितना ही बलशाली शक्ति सामथ्र्य सम्पन्न क्यों ना हो-उसे झुकना चाहिए। यह भावना ही ‘बलमोजश्च’ की भावना है। ‘वन्देमातरम्’ की भावना है। बाद में आगे चलकर ‘वन्देमातरम्’ की खोज हमारे देश में की गयी परन्तु उसकी झलक या मूलप्रेरणा तो इसी वेदमंत्र में निहित है। राष्ट्र के सामने झुकने का अभिप्राय है कि देश की मूल चेतना को नमन करना जो तपस्वी राष्ट्रवासियों के तप और दीक्षा के भाव से बनी है। उससे बड़ा कोई भी नहीं हो सकता। राष्ट्र के सामने झुकने का अभिप्राय है कि जितने लोगों ने इस राष्ट्र के लिए तप किया है, अपना बलिदान दिया है उनके उस तप और बलिदान के समक्ष मैं कुछ भी नहीं हूं। मैं उन्हें तो नमन करता ही हूं, साथ ही उनकी परम्परा देश में आगे भी चलती रहे-यह कामना भी ईश्वर से करता हूं।
हमारी यह धरती माता हमारा निर्माण करती है। हमारे स्वास्थ्य के लिए उत्तम खाद्य सामग्री और औषधि आदि प्रदान करती है इसलिए यह भी हमारी श्रद्घा का केन्द्र है। इसलिए वेदमंत्र (अथर्ववेद 12-1-12) में आया है कि-‘माताभूमि: पुत्रो अहम् पृथव्या:’
अर्थात यह धरती हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं। यह धरती माता ही हमारे ऋषियों ने राष्ट्र का साक्षात रूप मान ली थी। राष्ट्र अपने आप में अमूत्र्त हैं। पर उसे साक्षात रूप में या मूत्र्तरूप देखना है तो धरती माता के रूप में देखा जा सकता है यही कारण है कि हमारे देश में अपनी भारत माता अर्थात धरती माता के प्रति विशेष सम्मान का भाव प्राचीन काल से मिलता है।
अथर्ववेद (12-1-62) में आया है कि ‘वयं तुभ्यं बलिहृत: स्याम्’ अर्थात हे मातृभूमे हम तेरे लिए बलिदान देने वाले हों। भारत में अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान देने वालों की लम्बी श्रंखला है। असंख्य राष्ट्रभक्तों ने अपना बलिदान देकर अपने देश की और अपने राष्ट्र की रक्षा की।
विख्यात काकोरी केस के मुकदमे में क्रान्तिकारियों के विरूद्घ पं. जवाहरलाल नेहरू के सगे साले जगतनारायण मुल्ला सरकारी वकील थे। ‘मुल्ला’ उनका उपनाम था। बहस के समय उनके मुंह से काकोरी के अभियुक्तों के लिए ‘मुल्जिम’ के स्थान पर ‘मुलाजिम’ (सरकारी नौकर) शब्द निकल गया। एक सरकारी नौकर (मुल्ला) द्वारा क्रान्तिकारियों के लिए ऐसा सम्बोधन किया जाना पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को सहन नहीं हुआ। उन्होंने अदालत में ‘मुल्ला’ को लताड़ते हुए कहा-
”मुलाजिम’ हमको मत कहिए बड़ा अफसोस होता है।
अदालत के अदब से हम यहां तशरीफ लाये हैं।
पलट देते हैं हम मौजे हवादिश को अपनी जुर्अत से।
कि हमने आंधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।”
बाद में जब पं. बिस्मिल को सजा हो गयी तो उनकी माता उनसे मिलने जेल में गयी। मां ने पूछा कि कोई सन्देश हो तो बताओ बेटे। तब पंडित बिस्मिल ने कहा कि-”मां! सरकारी वकील पंडित जगत नारायण ने मुझे फांसी दिलाने में बड़ी मेहनत की है। उसे यह डर था कि कहीं मैं छूट गया तो उसे अवश्य मार डालूंगा। उसने पापी पेट की खातिर अपने दायित्व का निर्वाह किया है। उन्हें मेरा अंतिम प्रणाम अवश्य कह देना। मेरे मन में उनके प्रति कोई द्वेष नहीं है।”
महाराणा प्रताप ने वन-वन की खाक छानी और घर से बेघर होकर देश की सेवा की। शिवाजी महाराज ने औरंगजेब की जेल से भागकर अपने प्राणों को संकट में डाला, वह चाहते तो जेल में ही औरंगजेब से माफी मांगकर उसकी अधीनता स्वीकार कर लेते, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। उनके सामने मां भारती की सेवा के लिए महाराणा प्रताप का उदाहरण था। जिन्होंने जंगलों की खाक छाननी तो उचित समझी पर अकबर की आधीनता स्वीकार नहीं की। आगे चलकर सावरकर जैसे क्रान्तिकारी आये। उन्होंने शिवाजी को आदर्श बनाया और जैसे शिवाजी औरंगजेब की जेल से भाग गये थे वैसे ही सावरकरजी भी अंग्रेजों के ‘महाराजा’ नामक जहाज से उस समय समुद्र में कूदकर भाग लिये थे-जब वे उन्हें कालापानी की सजा के लिए ले जा रहे थे। उन्होंने भी अपने प्राणों को संकट में डाल लिया था।
अमर शहीद राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को काकोरी काण्ड में मैजिस्टे्रट ने फांसी की सजा सुनाई। फांसी के दिन भी देशभक्त लॉहिड़ी नित्य की भांति स्नानादि करके गीता का पाठ कर रहे थे। उन्हें तनिक भी चिंता नहीं थी कि आज क्या होने वाला है? मैजिस्टे्रट ने कौतूहलवश उनसे पूछ ही लिया कि तुम्हें आज भी इतनी कसरतादि करने की क्या आवश्यकता है। आज तो तुम फांसी चढऩे वाले हो?
तब राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने कहा था ”हिंदू होने के नाते मेरा पूर्ण विश्वास है कि मैं मरने नहीं जा रहा हूं। अपनी मातृभूमि को विदेशियों के चंगुल से मुक्त कराने का मेरा इस जन्म का उद्देश्य अधूरा रह गया है। उसे पूरा करने के लिए पुनर्जन्म लेेने जा रहा हूं और मेरी इच्छा स्वस्थ जन्म लेने की है इसलिए मैंने रोजाना की तरह आज भी व्यायाम किया है, जिससे कि अगली बार और भी बहादुर बन सकूं।”
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के पिता चाहते थे कि उनका बेटा आईसीएस अधिकारी बने। पर सुभाष चाहते थे कि वे क्रान्तिाकरी बनें। पिता ने व्यंग्य कस दिया कि आईसीएस बनना वश की बात नहीं है तो क्रान्तिकारी बनना चाहते हो। तब सुभाष बाबू ने बड़ी अल्पावधि में ही पिता को आईसीएस बनकर दिखा दिया। उन्होंने प्रथम श्रेणी में यह परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके पश्चात उन्होंने आईसीएस की नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। अंग्रेज सरकार के लिए लिख दिया कि-”मैं एक विदेशी सत्ता के अधीन कार्य नहीं कर सकता।”
सिंगापुर में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का तुलादान हो रहा था। आजाद हिंद सरकार और सेना की सहायता के लिए भारतीय प्रवासी अंगूठी, कंगन, चूड़ी, हार व मंगलसूत्र तराजू में चढ़ा रहे थे। किंतु थोड़ा सा भार कम रह रहा था।
तभी भीड़ में से एक मां निकली। उसकी आंखों में आंसू थे और हाथ में उसके अपने बेटे का स्वर्णजडि़त चित्र था। उस महान मां ने वह स्वर्णजडि़त चित्र तराजू में बढ़ाया तो भार बराबर हो गया। वातावरण नेताजी और भारत माता के जयघोष से गूंज उठा।
ऐसे अनेकों उदाहरण इतिहास में हमें देखने को मिलते हैं। जिन्हें सुनकर हृदय गर्व से फूल जाता है और गांखों से अश्रुधारा बह चलती है। आज भी हम अपने उन देशभक्त भाइयों के कारण देश में खुश रहते हैं और आराम से सोते हैं जो सीमा पर पहरा दे रहे हैं और माइनस 50 डिग्री के तापमान में भी हमारे लिए जागते हैं। हमें अपने महान राष्ट्र की महान परम्पराओं की रक्षा के लिए तथा इसके सांस्कृतिक वैभव के लिए देशभक्ति को अपनाना चाहिए। बचपन से पड़े हुए देशभक्ति के संस्कार ही देश को मजबूत और शक्तिशाली बनाते हैं।
जिसको न निज गौरव न निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं नरपशु निरा है और मृतक समान है।जिसको न निज गौरव न निज देश का अभिमान है
मुख्य संपादक, उगता भारत