ज्ञानेन्द्री और कर्मेन्द्री, रक्षित मन से होय

बिखरे मोती-भाग 211

गतांक से आगे….
इसके अतिरिक्त तीन शरीर-स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर जो स्वप्न में हमारे साथ रहते हैं। अति सूक्ष्म शरीर अथवा कारण शरीर जिसमें जीव का स्वभाव बसता है। जीवात्मा के पास भोग के साधन उन्नीस हैं अर्थात उन्नीस मुख हैं-पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कमेन्द्रियां पांच प्राण ये पन्द्रह वाह्य कारण हैं तथा चार ‘अंत:करण’ (मन, बुद्घि, चित्त, अहंकार) ये उन्नीस मुख हैं-जिनसे जीवात्मा संसार का भोग करता है। इतना ही नहीं इस शरीर में सात प्रमुख अंग भी परमात्मा ने जीवात्मा को प्रदान किये हैं-ये हैं सिर आंख, कान, वाणी, फेफड़े, हृदय, पांव इत्यादि। कहने का अभिप्राय यह है कि वह करूणानिधान कितना उदार है? जन्म लेने से पहले ही जीवात्मा की आवश्यकताओं का ध्यान रखता है। वाह रे विधाता! तू इस विराट की रचना करता है किंतु तू स्वयं ‘भाव’ से भी सूक्ष्म बनकर जर्रे-जर्रे में विद्यमान रहता है। क्या इससे बड़ा कोई कौतूहल हो सकता है? हे नादान मानव! उसकी देन और अनुकम्पाओं पर गहन चिंतन कर आभार व्यक्त कर उसका सिमरन कर अंत:करण परिष्कृत कर तथा तीनों शरीर-स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर अथवा भाव शरीर की रक्षा कर। आओ इनके रक्षण पर विचार करें :-
1. हमारे स्थूल शरीर की रक्षा-पथ्य, अन्नशुद्घि, औषधि, प्राणयाम और व्यायाम से होती है।
2. हमारे सूक्ष्म शरीर की रक्षा अंत:करण की पवित्रता से होती है।
3. हमारे अति सूक्ष्म शरीर की रक्षा पुण्य और प्रभु प्रार्थना (भक्ति) से होती है। ध्यान रहे, अति सूक्ष्म शरीर किसी का विपुल ज्ञान की राशि से भरा होता है, तो किसी का अज्ञान के गहन अंधकार से भरा होता है, किसी का सुसंस्कारों सद्प्रवृत्तियों से भरा होता है, तो किसी का कुसंस्कारों (दुश्प्रवृत्तियों) से भरा होता है। यदि मानव चाहे तो अंत:करण की पवित्रता अथवा पुण्य प्रार्थना के द्वारा इस कारण शरीर (भाव शरीर) में अगले जन्म के लिए सुसंस्कारों की सर्जना कर सकता है। इसके लिए आवश्यक है-शान्ति, प्रेम, प्रसन्नता (आनंद) का जीवन जीओ, पश्चात्ताप का नहीं।
ज्ञानेन्द्री और कर्मेन्द्री,
रक्षित मन से होय।
मन बिगड़ै या ठीक हो,
तन वैसा ही होय ।। 1143 ।।
व्याख्या :-मन ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का राजा है। इनका कन्ट्रोलर है, अधिष्ठाता है। जैसे प्रजा राजा से रक्षित होती है, ठीक इसी प्रकार मन से शरीर की सब इंद्रियां रक्षा पाती हैं, ठीक इसी प्रकार मन से शरीर की सब इंद्रियां रक्षा पाती हैं, मन ठीक रहे तो शरीर की सब इन्द्रियां ठीक, मन बिगड़ा तो इन्द्रियां नियंत्रण से ऐसे बाहर हो जाती हंै, जैसे बिगड़ैल घोड़ा घुड़सवार को कहीं भी गिराकर भाग जाता है, ठीक इसी प्रकार मन का इंद्रियों पर कन्ट्रोल खत्म होते ही हमारा शरीर बिगडऩे लगता है अर्थात हमारा शरीर रोगों, व्यसनों और अवसादों का घर बन जाता है। सब कुछ बिगड़ जाता है इसलिए मन रूपी घोड़े पर स्वयं सवार रहो, मन रूपी घोड़ को स्वयं (आत्मा) पर कभी सवार मत होने दो।
ज्ञान कर्म और भक्ति में,
अन्तर बड़ा विशेष।
सूक्ष्मता से समझ ले,
हो आध्यात्मिक उन्मेष ।। 1144 ।।
व्याख्या :-ज्ञान, कर्म और भक्ति में बहुत बड़ा अंतर होता है। इस संदर्भ में भगवान कृष्ण ‘गीता’ में अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं-हे पार्थ! जो मेरे निमित्त आत्म बोध हो, वह ज्ञान होता है और जो मेरे निमित्त बोध न हो-वह अज्ञान होता है। क्रमश:

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