देश के अन्य बहुत से लोगों की तरह देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रारम्भ से ही लोकसभा व विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने के पक्षधर रहे हैं। प्रधानमंत्री की यह सोच उचित ही है और इसे प्रधानमंत्री की सोच न कहकर इस देश के बहुसंख्यक मतदाताओं की भी सोच कहा जा सकता है। अधिकतर देशवासी रोज-रोज के चुनावों से ऊब चुके हैं। ग्राम प्रधान से लेकर नगरपालिका के चुनाव और शहरों की विभिन्न सोसाइटीज (आरडब्ल्यूए) व विभिन्न संगठनों के चुनाव और विधानसभा विधान परिषद से लेकर लोकसभा व राज्यसभा के कितने ही चुनाव हमारे देश में इतनी गहराई से रम गये हैं कि देश में चुनाव एक बीमारी सी लगने लगे हैं। जनसाधारण चुनावी प्रदूषण से दुखी है।
बहुत से मतदाता इन चुनावों में मौन रहते हैं और उनका यह मौन उनके भीतर की उस व्यथा का कारण होता है-जिससे वह चुनावों से दूर रहना चाहते हैं। जब यह चुनाव की बीमारी आती है तो अनमने मन से उसका वह सामना तो करते हैं – पर भीतर से नहीं चाहते कि वे भी चुनाव में भाग लें। ऐसी मानसिकता बनने के कई कारण हैं। सर्वप्रमुख कारण तो यह है कि चुनावों में अधिकतर सीटों को प्रत्याशी जीतते नहीं हैं, अपितु खरीदते हैं। वास्तविक पात्र व्यक्ति को चुनावों के ठेकेदार पराजित करने की ऐसी-ऐसी शकुनि चालें चलते हैं कि उसे हराकर ही दम लेते हैं। इससे चुनाव के माध्यम से गुण्डागर्दी बढ़ती है और लोकतंत्र की हत्या हो जाती है। इससे लोकतंत्र के प्रति जनता का विश्वास भंग होता है।
दूसरे, जनता के बीच ‘धनप्रतिनिधि’ मैदान में उतरते हैं और जनप्रतिनिधि बन जाते हैं। बाद में ये ‘धनप्रतिनिधि’ जनता के धन को लूटते हैं और जो भी विकास कार्यों के लिए धन इन प्रतिनिधियों के पास जाता है उसे ये चट कर जाते हैं। इसकी जानकारी जिन लोगों को होती है-वे कुछ भी नही कर पाते हैं। क्योंकि इस कार्य में नेता अधिकारी और नेता के कुछ लोग सम्मिलित होते हैं। ऐसी परिस्थितियों में लोग चुनाव को अपने लिए एक बीमारी मानने लगे हैं। लोगों का उत्साह चुनावों के प्रति ठंडा सा हो गया है और उसका कारण यही है कि उन्हें चुनावी प्रक्रिया महज एक नाटक ही दिखायी पड़ती है। लोगों में चुनाव को लेकर घुटन सी रहती है। वे नहीं चाहते कि ऐसे चुनाव कराये जाएं जिनमें वे अपने मत को सही ढंग से रख भी न पायें।
हर दिन के चुनावों से देश का बहुत भारी धन इन चुनावों पर व्यय होता रहता है। 1952 से लेकर अब तक देश में जितने भर भी चुनाव हुए हैं यदि उन पर व्यय की गयी धनराशि का हिसाब लगाया जाए तो पता चलेगा कि यदि उस धनराशि को सही प्रकार से देश के विकास पर व्यय कर लिया जाता तो यह देश पुन: ‘सोने की चिडिय़ा’ बन सकता था। अगर भारतवर्ष आज भी विकसित देश नहीं बन पाया है तो इसके पीछे देश की महंगी चुनावी प्रणाली एक महत्वपूर्ण कारण है। चुनाव लडऩे के लिए नेता और पार्टी कार्यकर्ता या पार्टियों के पदाधिकारी भ्रष्टाचार करते हैं। वे चुनाव के नाम पर चंदा ही नहीं वसूलते अपितु शरीफ लोगों के आवासीय भूखण्डों पर अवैध कब्जा कराते हैं और ऐसे दूसरे सारे हथकण्डे भी अपनाते हैं जिनसे वह रातों-रात धनी होते जाते हैं। कभी-कभी तो ऐसी परिस्थितियों को देखकर ऐसा लगता है कि भारत ने संसदीय लोकतंत्र को अपनाकर भूल की है। यहां तो राजतंत्र ही ठीक था।
देश की आजादी से पूर्व केवल 563 राजा थे यदि उन्हीं को मिलाकर देश की संसद स्थायी रूप से बना दी जाती और उन्हीं को अपने बीच से 5 वर्ष के लिए देश का प्रधानमंत्री बनाने का अधिकार दे दिया जाता तो कम से कम देश चुनावों पर व्यय की गयी अब तक की भारी धनराशि से तो मुक्ति पा ही जाता। लोकतंत्र के नाम पर हमने लुटेरे ‘धनप्रतिनिधि’ को बनाकर ही कौन सा तीर मार लिया? लोकतंत्र हमने चोरी रोकने के लिए अपनाया था, परंतु अब तो सीनाजोरी भी हो रही है। यदि राजा अपना प्रधानमंत्री चुनते तो तब बहुत संभव था कि बड़े-बड़े घोटाले की देश में ना होते क्योंकि वे राजा पहले से ही छिके हुए थे उन्हें धन की भूख ही नहीं होती।
हम देश में व्यक्तिगत रूप से लोकतंत्र के समर्थक हैं, राजतंत्र के नहीं। जो कुछ लिखा है उसे सही संदर्भ में लेने की आवश्यकता है। यदि राजा अपना प्रधानमंत्री चुनते तो तब हम देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जैसे लाल और बहादुर से वंचित रह जाते, जिनके ऊपर 45 वर्ष के सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार का एक भी दाग नहीं लगा था। जिनके पास अपना कोई मकान नहीं था, जिनके घर में मात्र छह हजार का निजी सामान था और तेरह हजार की एक फीएट कार को खरीदने के लिए भी, उन्हें 7 हजार का लोन लेना पड़ा था। उनके पास अपना कोई पलंग नहीं था वह चारपाई पर खेस बिछाकर सोते थे और घर में एक ही सोफा था-वह भी बांस की खपच्चियों का बना हुआ। वास्तव में देश ने ऐसे ही ‘लालबहादुरों’ को अपना नायक बनाने के लिए संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया था। पर शास्त्रीजी का ‘निष्काम कर्मयोगी राष्ट्रवाद’ उन्हीं के साथ देश से विदा हो गया। आज तो ‘लालुओं’ और ‘दौलत की बेटियों’ का काल है। हम ‘लालबहादुरों’ वाले लोकतंत्र के समर्थक हैं और इन लालुओं और दौलत की बेटियों वाले लोकतंत्र से तो अपनी उस राजशाही को भी अच्छा मानते हैं जो बिना भ्रष्टाचार के जनहित में काम करने की समर्थक हो।
भारत के चुनाव आयोग द्वारा देश में लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ कराने की बात कहना उचित ही है, इससे भ्रष्टाचार पर कुछ रोक लगेगी। दूसरे हमारे मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री सहित सभी पार्टियों के बड़े नेताओं को पांच वर्ष देश के लिए शान्ति से काम करने का अवसर मिलेाग। वे नित्यप्रति के चुनावों के झंझटों से मुक्ति पा जाएंगे और देश व प्रदेश के विकास पर अपना ध्यान केन्द्रित कर पाएंगे। साथ ही मतदाताओं को एक अवसर और मिलेगा कि वे देश और प्रदेश के लिए एक ही पार्टी के पक्ष में अपना जनादेश दे पाएंगे। इससे देश और प्रदेश का समन्वय बनेगा और विकास की गति तेजी पकड़ेगी। पर यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि किसी प्रदेशा में किसी कारण सरकार गिर जाए तो वहां शेष अवधि के लिए ऐसी कौन सी लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाई जाएगी जो इस राज्य को लोकतंत्र से वंचित न होने दे? वैसे देश को फालतू की बीमारी से मुक्त कराने का समय आ गया है। जनता को उचित कार्यों के लिए अपना सकारात्मक सहयोग सरकार को देना चाहिए।