गांधी की कर्मस्थली से नहीं मिट रहा छुआछूत और भेदभाव
रूबी सरकार
भोपाल, मप्र
मप्र के जिस हरदा जिले से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने 1933 में समाज से छुआछूत मिटाने का संकल्प लिया था, वहां आजादी के 75 साल बाद भी अनुसूचित जाति व जनजाति समुदाय के साथ भेदभाव व उंच-नीच को लेकर अत्याचार और अन्याय हो रहे हैं. इसकी शिकार अक्सर महिलाएं ज्यादा होती हैं. खासकर मंदिर में पूजा-पाठ व अनुष्ठान को लेकर उनके साथ अन्याय होता है. अब भी हरदा जिले के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जाति व जनजाति समुदाय की महिलाओं को मंदिर में जाने से पुरोहित व दबंगों द्वारा रोका गया. महिलाओं से अनुष्ठान के नाम पर पैसे तो ले लिए जाते हैं, किंतु उन्हें पूजा के लिए मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाती है. जबकि संविधान में लिखा है कि अगर कोई व्यक्ति किसी को अनुसूचित जाति या जनजाति का होने की वजह से मंदिर या अन्य धार्मिक स्थल पर प्रवेश करने से रोकता है तो यह दण्डनीय अपराध है.
हाल ही में हरदा के सिंधखेड़ा गांव में सोनम और ज्योति जैसी कई किशोरियों को मंदिर में प्रवेश करने से पुजारी ने रोक दिया. दरअसल वे दुर्गा मंदिर और शिव मंदिर में अनुष्ठान के लिए जाना चाहती थी. 17 वर्षीय ज्योति लोचकर ने बताया कि पुजारी ने हम लोगों से कहा कि तुम लोग जादू-टोना करते हो, मांस-मदिरा का सेवन करते हो ,इसलिए मंदिर तुम जैसों के लिए नहीं है. उन्होंने जातिसूचक गाली भी दी. वह कहती है कि बचपन से ही हम लोगों के साथ यही होता आ रहा है. गांव के ऊंची जाति वाले कहते हैं कि एससी की महिलाओं के मंदिर में प्रवेश करने से अनर्थ हो जाएगा. इसी भेदभाव के चलते हम लोगों ने अलग से दुर्गा जी बैठाना शुरू कर दिया. अब उनके पंडाल से हमारा पंडाल भव्य होता है और लोग भी हमारे पंडाल में ज्यादा आते हैं. ज्योति का गांव सिंधखेड़ा अनुसूचित जाति बाहुल्य है, जो हरदा जिले से करीब 25 किमी दूर है.
कुछ इसी तरह की कहानी हरदा मुख्यालय से करीब 20 किमी दूर हंडिया तहसील की रहने वाली 23 वर्षीय संजू मोहे की है. अनुसूचित जाति समुदाय की संजू गांव के शिव मंदिर में मनाही के बावजूद प्रवेश कर गई थी. जिसके बाद पूरे गांव में हंगामा खड़ा हो गया. इस गांव में अधिकतर राजपूत-गुर्जर परिवार रहता है. वे आर्थिक रूप से संपन्न भी हैं. माना यह जाता है कि राजपूत और गुर्जर करीब एक हजार साल पहले यहां आकर बसे थे जबकि अनुसूचित जाति और आदिवासी यहां सदियों से रह रहे हैं. लेकिन आर्थिक रूप से कमज़ोर और मजदूर होने के कारण वह शोषण का शिकार हैं. संजू के पिता दशरथ मोहे का डर यही है कि ऊंची जाति वालों के पास बहुत पैसा और ताकत है. उनका इसी गांव के बाहर सड़क पर मोटर साइकिल रिपेयरिंग की एक छोटी सी दुकान है. बेटी की इस हरकत पर कहीं उन्हें रोजी-रोटी से हाथ न धोना पड़ जाए. संजू एमएससी कर चुकी है और जागरूक होने के कारण उसे यह भेदभाव बुरा लगता है. वह कहती है कि हमारे गांव में हैंडपंप से पानी भरने को लेकर भी भेदभाव है. अनुसूचित जाति की महिलाएं तब तक पानी नहीं ले सकतीं हैं, जब तक उच्च जाति की महिलाएं पानी न भर लें. संजू के पिता दशरथ मोहे चंबल का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि कानून तो हर जगह बराबर है. फिर भी यदि इस क्षेत्र में अनुसूचित जाति का कोई लड़का शादी में घोड़ी पर चढ़ता है, तो उसके साथ मारपीट होती है. वह कहते हैं कि कानून को हाथ में लेने वालों का विरोध समाज को करना चाहिए, परंतु ऐसे मामलों में ही समाज मौन रह जाता है.
पिछड़ी जाति की ही 45 वर्षीय सीमा बाई बताती हैं कि वह लोग चमड़े का काम करते हैं, मटन खाते हैं. इसलिए मंदिर में प्रवेश करने से इन्हें रोका जाता है. वे मंदिर आकर किसी चीज के छू लें, तो वह अपवित्र हो जाता है. इससे भगवान नाराज होंगे और हमें पटखनी (बीमार) देंगे. इसी तरह एससी समुदाय की दुरप्ताबाई कहती हैं कि मंदिर जाने से हमें बार-बार नीचा दिखाया जाता है, हमारी बेइज्जती की जाती है, मारपीट तक हो जाती है. वहीं नाम न छापने की शर्त पर गोंड आदिवासी की एक महिला कहती है कि पिछले दिनों हमारे समुदाय की एक महिला मंदिर में पूजा करने गई थीं, तो दबंगों ने उनके साथ मारपीट की. उसका पति और 16 वर्षीय बेटा जब बीच-बचाव करने आया, तो दबंगों ने बेटे की इतनी पिटाई कर दी कि वह पांच दिनों तक अस्पताल में बेहोश पड़ा रहा. किसी तरह उसकी जान बची. प्रशासन की ओर से किसी तरह की कोई कार्रवाई नहीं की गई. अंत में गांव के बुजुर्गों ने मामला शांत करवाया. वह कहती हैं कि हरदा के हर गांव में इस तरह की घटनाएं मिल जाएंगी.
इस संबंध में वरिष्ठ लेखक और मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय के डायरेक्टर धर्मेंद्र पारे बताते हैं कि बहुत अफसोस होता है कि जहां से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने छुआछूत मिटाने का संदेश दिया था, वहां आज भी अस्पृश्यता जिंदा है. महात्मा गांधी इस जिले से इतना प्रभावित हुए थे कि उन्होंने हरदा को हृदय की नगरी कहा था. गांधीजी की प्रेरणा से गांव-गांव में हर समुदाय की महिलाएं एक साथ बैठकर चरखा कातती थीं और बिना भेदभाव के आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेती थीं. वहीं वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता गौरीशंकर मुकाती कहते हैं कि इस में अधिकतर अनुसूचित जाति और गोंड आदिवासी रहते हैं. यह जिला मूलतः इन्हीं लोगों का है. परंतु समय के साथ आदिवासी सिकुड़ते चले गए और बाहर से आए लोग यहां स्थाई रूप से बस गए, व्यवसाय करने लगे और पैसे वाले हो गए. अब वही ताकतवर हैं. एडवोकेट मुईन खान बताते हैं कि सिर्फ मंदिर में प्रवेश ही नहीं, बल्कि स्कूलों में मध्यान्ह भोजन को लेकर भी इनके साथ भेदभाव होता है. हाल की एक घटना का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि स्कूल में मध्यान्ह भोजन के लिए अनुसूचित जाति के उपयोग वाले बर्तनों में एक खास तरह का चिह्न बनाया गया था. जब मामला तूल पकड़ा तो सरकार ने नोटिस लिया. लेकिन इनके मंदिर में प्रवेश के मुद्दे पर सरकार इतनी सख्ती नहीं दिखाती है.
पूजा गौर कहती हैं कि हमारे गांव में एससी, एसटी की महिलाओं को जादू-टोना करने वाली, यहां तक कि उन्हें डायन भी कहा जाता है. अगर कोई बच्चा बीमार हो जाए, तो उसका दोष अक्सर उन महिलाओं पर मढ़ दिया जाता है. हम लोग पढ़ लिख लिए हैं, लेकिन हमारी धारणाएं आज भी नहीं बदली है. जिस धरती से छुआछूत के विरुद्ध गांधीजी ने आवाज़ उठाई थी, अगर आज भी वहां यह जारी है तो देश के अन्य ग्रामीण क्षेत्रों की क्या स्थिति होगी, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. ज़रूरत सिर्फ इसके विरुद्ध कानून बनाने की नहीं है बल्कि इसके विरुद्ध समाज में जागरूकता फैलाने की है. यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2022 के अंतर्गत लिखी गई है. (चरखा फीचर)
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