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वैदिक संपत्ति

वैदिक सम्पत्ति : वेद मंत्रों के अर्थ,भाष्य और टिकाऍ

वैदिक सम्पत्ति

वेद मंत्रों के अर्थ,भाष्य और टिकाऍ

गतांक से आगे ….

दोनों भाष्यकारों ने चारों परीक्षाओं का उपयोग नहीं किया, तथापि स्वामी दयानन्द का हेतु बड़ा पवित्र है । यद्यपि लोग कहते हैं कि उनसे संस्कृत व्याकरण की भूलें हुई हैं और उन्होंने वेदमन्त्रों का अर्थ भी बदल दिया, है, किन्तु इस बात में कुछ भी दम नहीं है । संस्कृत के व्याकरण की गलतियाँ तो लोगों ने स्वामी श्रीशंकराचार्य के भाष्य में भी ढूंढ निकाली हैं, और ‘चत्वारिवाक् परिमिता॰’ मन्त्र को यास्काचार्य ने निरुक्त में देकर सात सम्प्रदायों द्वारा रचित उसके सात प्रकार के भिन्न भिन्न अर्थों को मान्य बतलाया है, जिससे बड़े बड़े प्राचीन ऋषियों के अर्थों में भी अदलाबदली पाई जाती है । ऐसी दशा में स्वामी दयानन्द पर ही आक्षेप नहीं हो सकता । स्वामी दयानन्द ने बड़े ही पवित्र उद्देश्य से भाष्य किया है, इसलिए उनकी शैली में सायणाचार्य की केवल याज्ञिक शैली मिला देने में ही कुछ प्रचारयोग्य पद्धतियाँ तैयार हो सकती हैं ।

जब तक स्वामी दयानन्द ने बुद्धि, तर्क और धातु के सहारे अर्थ नहीं किया था, तब तक लोग वेदों से अनेक. ऊलजलूल बातें निकाला करते थे, किन्तु उनके आर्ष प्रणाली से अर्थ करते ही वेदों का उज्ज्वल रूप सामने आ गया और वेदों का अन्तरङ्ग प्रकाशित हो उठा तथा हमारे सामने अर्वाचीन, मध्यमकालीन और प्राचीन वेदार्थों का नमूना उपस्थित हो गया। इन नमूनों में नाना प्रकार की बातें हैं और उनमें नाना प्रकार के अन्तर और भेद हैं । परन्तु हम यहाँ उन समस्त अन्तरों और भेदों का वर्णन नहीं करना चाहते। हम तो ऐसे समग्र वेदभाष्य को पसन्द ही नहीं करते इसलिए वेदों के ऐसे अर्थों पर यहाँ बहस भी नहीं करना चाहते । किंतु कुछ भाष्यकारों के कारण वेदों में इतिहास, पशुहिंसा और अश्लीलता का वर्णन दिखलाई पड़ता है, जिसको लेकर योरप के विद्वानों ने वेदों को नवीन और निकृष्ट सिद्ध करने की कोशिश की है। इसके कारण वेदों की अपौरुषेयता में बट्टा लगने का भय है, इसलिए हम यहाँ थोड़ी सी इन विषयों की भी आलोचना करते हैं।

“इतिहास, पशुहिंसा और अश्लीलता”

हम प्रथम खण्ड में अच्छी तरह सिद्ध कर आये हैं कि वेदों में इतिहास से सम्बन्ध रखनेवाली सामग्री नहीं है। जिन ऐतिहासिक नामों, ज्योतिष के चमत्कारों और भौगोलिक अथवा भौगर्भिक बातों को लेकर लोग वेदों से इतिहास निकालते हैं, वे निस्सत्त्व हैं। उनसे इतिहास नहीं निकलता । वेदों में पाये हुए ऐतिहासिक नाम तो इतिहास का साथ ही नहीं देते । इतिहास निकालनेवाले जानते ही नहीं कि पुराणकारों ने वेदों के अलङ्कारों को लेकर और उनको ऐतिहासिक रूप देकर पुराणों में केवल अर्थ हो बोला है, इतिहास नहीं लिखा। श्रीमद्भागवत 1/4/28 में स्पष्ट लिखा हुआ है कि-

भारत व्यपदेशेन ह्यम्नायार्थश्च दर्शितः ।

अर्थात् भारतीय इतिहास के मिष से वेद का अर्थ ही प्रदर्शित किया गया है। जब भारतीय लेखक स्वयं स्वीकार करते हैं कि हमने पुराणों में इतिहास का रूप देकर केवल वेदों के अलङ्कारों का ही भाव खोला है, तब दूसरों को क्या अधिकार है कि वे मनगढ़न्त कल्पना कर लें कि वेदों का इतिहास पुराणों में विस्तृत किया गया है ? बात तो असल यह है कि आधुनिक विद्वानों ने न तो वेदों की शैली को ही समझा है, न पुराणों का तात्पर्य ही समझा है पौर न यही ढूंढ पाया है कि दोनों का सम्बन्ध क्या है ? महाभारत में स्पष्ट लिखा हुआ है कि-

इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपब हयेत् ।

अर्थात् इतिहास और पुराणों से वेदों का मर्म जाना जाता है। इसका तात्पर्य यही है कि पुराणों में पंचतन्त्र की तरह ऐतिहासिक कथाओं को गढ़कर वेदों के अलङ्कारों को खोला गया है । पर वह वर्णन वास्तविक इतिहास के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखता। इसलिए यदि वास्तविक इतिहास और पुराण दोनों की तुलनात्मक दृष्टि से वेदों के साथ आलोचना की जाय तो इतिहास साथ न देगा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि पुराणों का वर्णन इतिहास नहीं, प्रत्युत अलङ्कारों का खुलासा है। कहने का मतलब यह कि वेदों में इतिहास नहीं है। जिस प्रकार वेदों में इतिहास नहीं है, उसी तरह वेदों में पशुहिंसा भी नहीं है। हिंदूसाहित्य के देखने से पता लगता है कि आयों के याज्ञिक इतिहास में भिन्न भिन्न दो समय हैं, जिनमें से एक में पशुहिंसा नहीं पाई जाती और दूसरे में पाई जाती है। पहिला आदिम काल अर्थात् शुद्ध संहिताकाल है और दूसरा रावणकाल से लेकर आधुनिक ब्राह्मण और सूत्र काल है। आदिम काल अर्थात् संहिताकाल के यज्ञों में पशुहिंसा और मांसमद्य का सेवन नहीं होता था, पर रावणकाल से इस पार के यज्ञों में कहीं कहीं होता था । हम अपने इस आरोप की पुष्टि में कुछ प्रमाण उपस्थित करते हैं जो इस प्रकार हैं-

(1) वेदों में यज्ञ के लिये जितने शब्द आये हैं, उनमें से किसी के भी अर्थ से पशुवध अथवा हिंसा सूचित नहीं होती, प्रत्युत अध्वर शब्द से अहिंसा ही सूचित होती है। ध्वर शब्द का अर्थ हिंसा है और अध्वर का अहिंसा । अहिंसा के ही लिए यज्ञों में अध्वर्यु की नियुक्ति होती है। यह यज्ञ में कायिक, वाचिक और मानसिक किसी किस्म की हिंसा नहीं होने देता । यहाँ तक कि छोटे – छोटे कीटों को भी अग्नि में जलते से बचाता है। इसीलिए वेदी में दो तीन परिखाऍ बनाई जाती हैं और उनमें पानी भर दिया जाता है।

(2) यज्ञों में जिस गौ का वध बतलाया जाता है, वेदों में उसके कई नाम हैं। उन नामों में एक नाम अध्नया भी है । अध्नया का अर्थ ‘किसी सूरत में भी न मारने योग्य’ है। यदि गो यज्ञ में वध्य होती, तो उसका नाम इस प्रकार का न होता । वह यज्ञ के लिए बध्य समझी जाती, परन्तु ऐसी गुञ्जायश नहीं रखी गई ।
क्रमशः

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