विष्णु आख्यान*. भाग – 2
विष्णु आख्यान.
पार्ट/ 2
Dr D K Garg
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क्षीर सागर:,पांच फन वाला शेषनाग , विष्णू के लक्ष्मी जी पैर दबाती हुई का विश्लेषण
जैसा कि आप जानते है ईश्वर को ओम मुख्य नाम के अतिरिक्त उसने हजारों कार्यों के कारण हजारों नाम से जाना जाता है , सृष्टि के रचने के कारण ईश्वर को ब्रह्म और सृष्टि चलाने वाले ईश्वर को विष्णु नाम दिया गया है।
सृष्टि चलाने के लिए ईश्वर ने सभी आवश्यक सुविधाएं दी है जिनमें जल भीं है जिसको वैज्ञानिक जीवन का आधार कहते है। हमारी दिनचर्या में हर कदम जल और उसके उपयोग से बनी वस्तुओं की जरूरत होती है,जल से बिजली बनती है ,जल पीने के अतिरिक्त सभी वस्तुओं के निर्माण कार्य में उपयोग करते है. विष्णू की अपार लीला देखो की जल कहीं नमकीन तो मीठा भी प्रदान किया है । समुंद्र में खारा जल हैं तो भी असंख्य प्रकार के जीवो का आधार है।
ईश्वर अति सूक्ष्म है , सर्वव्यापी है इसलिए अति सुंदर बात कही है की विष्णू जल में रहते है।
इसी कथानक का अन्य पहलू भीं है की विष्णू क्षीर सागर में रहते है ।ये क्षीर सागर क्या है ?
क्षीर सागर ज्ञान के सागर को कहते हैं जहां मानव को ज्ञान होता है। चारों प्रकार की बुद्धि उस मानस के समीप रहती हैं। सृष्टि चलाने के लिए विष्णू ने सभी जीवों को उनके कार्य अनुसार बुद्धि प्रदान की है और स्वाध्याय,योग, तप आदि के द्वारा जीव को स्वतंत्रता भी प्रदान की है की अपने ज्ञान में वृद्धि कर सके।
बुद्धि ,मेधा,प्रज्ञा,ऋतम्भरा ये चार अमूल्य निधि मनुष्यों को विष्णू ने दी है ,जहां यह चारों प्रकार की बुद्धि विद्यमान रहती हैं उसे अक्षय क्षीर सागर कहते हैं। बुद्धि निश्चित करती है कि नाना प्रकार के तारामंडल हैं ,यह ब्रह्मांड है।
जब मनुष्य यौगिक क्रियाओं से साक्षात्कार कर लेता है तब उसे मेधावी कहते हैं। और जब मनुष्य उनके अनुसरण करके अपने हृदय रूपी गुफा में धारण कर लेता है तो उसे ऋतंभरा प्राप्त हो जाती है।
जो परमात्मा में अवस्थित हो जाता है , अपने को ब्रह्मांड में और ब्रह्मांड को अपने में दृष्टिपात करता है , पिंड और ब्रह्मांड दोनों का समन्वय करता है, वह प्रज्ञा बुद्धि वाला बन कर के परमपिता परमात्मा का दिग्दर्शन करता है। इसी का नाम अक्षय क्षीर सागर है।यह विष्णु रूपी आत्मा अक्षय क्षीर सागर , जिसकी कोई सीमा नहीं है में भ्रमण कर रहा है। जो इस अक्षय क्षीर सागर में जाता है वही संसार सागर से पार हो जाता है।
विष्णु और लक्ष्मी का सम्बन्ध –भाषा की दृष्टि से सरस्वती का अर्थ विद्या है , दुर्गा का अर्थ शक्ति से लगाया जाता है , इसी प्रकार लक्ष्मी का अर्थ संपत्ति यानि समृद्धि से है। बहुत साधारण सी बात है की जो मनुष्य बुद्धि के सदुपयोग से ईश्वर के मार्ग पर चलते है ,ईश्वर उनको सुखद परिणाम देता है जो उनको यश , मेधा और द्रव्य के रूप में मिलता है।ये लक्ष्मी के ही अन्य रूप है। लक्ष्मी उनके साथ हमेशा बानी रहती है और उनकी समृद्धि उनके कदमो में होती है , जिस भी कार्य में उनके चरण पड़ेंगे वही उनको सफलता मिलेगी। अतिश्योक्ति अलंकार भी भाषा का प्रयोग करें तो लक्ष्मी ऐसे ईश्वर पुत्र के पैर दबाती है।इसके विपरीत जो अपनी इंद्रियों को वश में नहीं रखते तो एक न एक दिन लक्ष्मी उनसे रूठ जाती है और परिणाम स्वरूप समृद्धि, और ज्ञान रुपी धन वापिस होने लगता है।
शक्ति सहित शिव ने अपने वाम भाग के दसवें अंग पर अमृत मल दिया का भावार्थ : इसका मतलब मानव की नौ इंद्रियों से है और दसवा है मन। नौ इंद्रियों को मन के द्वारा वश में करने वाला व्यक्ति अमृतमय हो जाता है। हम जानते हैं कि मानव का शरीर एक अयोध्यापुरी है। जो अष्ट चक्र और नौ द्वारों वाली है। इसी पुरी में अंतरात्मा रहती है परंतु किसी द्वार से निकलती नहीं । कैसा विचित्र राष्ट्र है ? अष्ट चक्र हैं। मूलाधार चक्र, नाभि चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, हृदय चक्र, कंठ चक्र , घ्राण चक्र ,त्रिवेणी चक्र, ब्रह्मरंध्र। इन्हीं से सोम रसपान कर लेता है।
भगवान नारायण से चैबीस तत्व उत्पन्न हुए का भवार्थ
क्योंकि ईश्वर प्रकृति के सत ,रज और तम तीन तत्वों को लेकर महत्व( बुद्धि) का सृजन करते हैं। बुद्धि से अहंकार का निर्माण होता है। अहंकार से 16 तत्व का निर्माण होता है। पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच प्राण (जिनको पांच कर्मेंद्रियां भी कहते हैं)पांच सूक्ष्म भूत और एक मन। इस प्रकार यह 18 तत्व होते हैं। 5 सूक्ष्म भूत से पांच स्थूल भूत (अग्नि, जल ,आकाश, पृथ्वी और वायु )का निर्माण होता है। इस प्रकार कुल 23 तत्व हो गये। 24वी मूल प्रकृति है। इस 24 के संघात से( समुच्च से) पिंड का निर्माण होता है। इस पिंड के साथ 25वा आत्मा का सन्योग होने पर जीवधारी कहलाने लगता है। 25 वी आत्मा को कुछ समय के लिए यदि छोड़ दिया जाए और यह मान ले कि केवल 24 तत्व का पिंड अथवा शरीर है तो यही 24 तत्व ब्रह्मांड में भी पाए जाते हैं । इस प्रकार जितना भी विशाल ब्रह्मांड है एवं पिंड है वह प्रकृति जन्य है। इसलिए प्रकृति जन्य होने के कारण पिंड और ब्रह्मांड दोनों ही नाशवान है। ब्रह्मांड का मतलब समस्त विश्व या जगत।
हम देखते हैं कि पिंड और ब्रह्मांड के मूल तत्व प्रकृति जन्य है। दोनों में कारण समान है। दोनों के तत्व समान हैं। दोनों ही जड हैं।
इसी आधार पर यह कहा जाता है कि जो ब्रह्मांड में वही पिंड में है जो पिन्ड में है वही ब्रहमांड में है।
जिन्हें मिलाजुला कर प्रकृति कहा गया है।
उपरोक्त कथा का बस इतना ही मतलब निकाला जाना चाहिए बाकि सब कथानक को जोड़ने के लिए तुकबंदी की गयी है।
शेषनाग क्या है ? पांच फन कौन-कौन से हैं?
विष्णु को समझ चुके हैं कि वह आत्मा है। पांच फन काम, क्रोध, लोभ ,मोह, अहंकार होते हैं। आत्मा रूपी विष्णु इन पांचों को दबा करके इनके ऊपर विश्राम करने लगता है और यह पांचों उसके नीचे हो जाते हैं दब जाते हैं तब यह जो लक्ष्मी है, स्त्री है जो संसार को मोहने वाली है, मोहनी बनकर के मानव को कहीं का कहीं ले जाती है।परंतु यह है स्त्री, मोहिनी ,लक्ष्मी, उस ऋषि के, जो शेषनाग के शय्या पर विश्राम कर रहा है, के चरणों की वंदना करने लगती है ।यह वंदनीय बन जाती है अर्थात अब वह लक्ष्मी, मोहिनी, स्त्री रूप में उस महान ज्ञानी विष्णु आत्मा को भरमा नहीं सकती बल्कि ऐसी आत्मा का दासत्व अथवा अधीनता स्वीकार करके सेवा करने लगती है। इसीलिए लक्ष्मी के रूप में विष्णु के पैर दबाते हुए दिखाया जाता है। जहां लक्ष्मी दासता कर रही है।जो व्यक्ति मेधावी , रजोगुणी और जितेंद्रिय होता है उसके यहां लक्ष्मी का वास होता है ,उसको जीवन का भरपूर आनंद प्राप्त होता है जैसे कि लक्ष्मी स्वयं उसके पैर दबा रही है।
इसके विपरीत काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार यह मृत्यु के कार्य हैं अर्थात मृत्यु में ले जाने वाले हैं,अंधकार में ले जाने वाले हैं ।जो ऋषि इनको दबा लेता है वह शेषनाग कहलाता है। वही विष्णु कहलाता है वही इसके ऊपर लेट कर विश्राम करने लगता है फिर नारद जी वीणा बजाने लगते हैं।
नारद जी कौन है ?
नारद का अर्थ यहां मन का है। मन चंचल रूपी वीणा को लेकर के विष्णु रूपी आत्मा के समीप आ जाता है, और कहता है प्रभु मुझे क्षमा करो ।मैं वीणा के सहित आ गया हूं।
गंधर्व नाम बुद्धि का है जो गान गाने लगती है। मानव को रत्त बनाने के लिए उदगीत गाने लगती है ।गंधर्व बन जाती है और नारद वीणा को लेकर मौन हो जाता है । यह वीणा का स्वर चलता रहता है,नृत्य करता रहता है और गंधर्व का स्वर चलता रहता है। वह गीत गाता रहता है । वह गाना गाता रहता है।
कैसा वह गाता है ?
देवताओं से मिलने के लिए, देवता बनने के लिए ,ब्रह्म रंध्र का, सब लोकों का गमन करने के लिए, और वह असुरपन को त्याग करके देवता प्रवृत्ति बनाने के लिए ,यह गान गाने लगता है।चंचलता को त्याग देता है।
मत्स्य अवतार की अलंकारिक भाषा का भावार्थ
क्रमश: