मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा : लेखकीय निवेदन

लेखकीय निवेदन

जब हम चित्तौड़गढ़ की बात करते हैं तो मन में अपने आप ही एक गौरवपूर्ण, सुखदायी और रोमांचकारी अनुभूति होती है ।चित्तौड़ मेवाड़ की राजधानी थी। चित्तौड़गढ़ एक ऐसा ऐतिहासिक दुर्ग है जिस पर प्रत्येक राष्ट्रवादी को गर्व और गौरव की अनुभूति होना स्वाभाविक है। इस किले ने कई प्रकार के उत्थान- पतन की कहानियों को देखा है। हर्ष और विषाद दोनों को देखा है, अपने वैभव के उत्कर्ष को भी देखा है तो पतन के अपकर्ष को भी देखा है।

भारत का सबसे विशाल दुर्ग

 भारत के गौरव पूर्ण रोमांचकारी इतिहास में इस किले ने कई स्वर्णिम पृष्ठ जोड़े हैं। जिनका अपना राष्ट्रीय महत्व और औचित्य है। भारत की स्वाधीनता का आंदोलन इस किले के गुणगान के बिना पूरा नहीं हो सकता। क्योंकि किले के भीतर रहकर शासन करने वाले बप्पा रावल से लेकर महाराणा प्रताप और उनके पश्चात के भी कई गौरवशाली शासकों ने मां भारती की स्वाधीनता के लिए जिस प्रकार अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया वह सारा का सारा भारत के स्वाधीनता संग्राम के नाम अंकित होना चाहिए। चित्तौड़गढ़ भारत का सबसे विशाल दुर्ग माना जाता है। राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में स्थित यह दुर्ग भीलवाड़ा से कुछ किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। इसे विश्व विरासत का सम्मान प्राप्त है। यह सम्मान इस दुर्ग को 21 जून 2013 में यूनेस्को द्वारा प्राप्त हुआ था।

बहुत ही दुर्भावपूर्ण भावना के वशीभूत होकर भारत के गौरव और रोमांच को जागृत करने वाले या उनकी झनझनाहट हमारे शरीर में उत्पन्न करने वाले स्थलों, भवनों , किलों और ऐतिहासिक इमारतों को जानबूझकर उपेक्षा की भट्टी में फेंक दिया गया है। समय की मांग है कि अपने ऐसे सभी स्थलों को हम अपने क्रांतिकारी और रोमांचकारी स्वाधीनता आंदोलन के तीर्थ स्थल के रूप में विकसित करें जो हमारे अतीत के गौरवपूर्ण पलों को या कालखंड को पुनर्स्थापित करने में सहायक हो सकते हैं। “भारत को समझो” अभियान के अंतर्गत जब हमारा इस प्रकार का खोजी अभियान प्रारंभ होगा तो निश्चित रूप से उसमें सबसे पहला और महत्वपूर्ण स्थान चित्तौड़गढ़ को ही प्राप्त होगा।

समझो भारत देश को करता वक्त पुकार।
अभियान के बनो अंग सब होवे बेड़ा पार।।

यही एक ऐसा दुर्ग है जिसका चित्र देखकर लोग आज भी चित्त खो देते हैं। जिसकी महिमा के समक्ष देव भी सिर झुकाते हैं और जिसकी गरिमा का गुणगान स्वयं सूर्य भगवान अपने तेज को बिखराकर गाते दिखाई देते हैं।
इस दुर्ग ने तीन महान आख्यान अर्थात साके देखे हैं। जिनकी वीरता और पराक्रम के गीत आज तक गाए जाते हैं। उन गीतों को सुनकर किसी के भी रक्त में उबाल आ सकता है। देशभक्ति की भावना जागृत हो सकती है और राष्ट्र की होती हुई पतितावस्था को देखकर हर व्यक्ति कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरित हो सकता है। जब भी कोई इस किले के उन साकों का वर्णन करता है जिनमें रानी पद्मिनी, गोरा- बादल और उन जैसे अन्य अनेक वीर रत्नों की शौर्य गाथा बखानी जाती है तो उन वीर योद्धाओं के समक्ष हमारा मस्तक अनायास ही झुक जाता है। इसी प्रकार इस किले के भीतर ही रहकर बनवीर द्वारा खेले गए खूनी खेल को देखकर ह्रदय जहां उस नरपिशाच के प्रति घृणा से भर जाता है वहीं धाय माता पन्ना गूजरी के त्याग और बलिदान को देखकर उस वीर माता के प्रति हृदय श्रद्धा से भी भर जाता है। जिसने मां भारती के प्रति अपने कर्तव्य कर्म को पहचान कर अपने त्याग और बलिदान का अप्रतिम उदाहरण भारत के ही नहीं विश्व के इतिहास में भी प्रस्तुत किया। युग युगों तक उस वीर माता के प्रति संसार के लोग ऋणी रहेंगे, जिसने अपने कलेजे के टुकड़े को देश की बलिवेदी पर निछावर कर दिया था। अपने रोमांचकारी किस्सों और गौरवपूर्ण इतिहास के कारण यह दुर्ग भारतवर्ष के सभी दुर्गों का सिरमौर कहा जाता है।

किले की स्थापना

चित्तौड़गढ़ दुर्ग के बारे में इतिहासकारों की मान्यता है कि इसका निर्माण मौर्यवंशीय राजा चित्रांगद मौर्य द्वारा सातवीं शताब्दी में करवाया गया था। चित्रांगद शब्द से ही आगे चलकर चित्रकूट हो गया और चित्रकूट से बिगड़ कर चित्तौड़ हुआ। जब इस विशाल किले का निर्माण किया गया तो कालांतर में इसे चित्तौड़गढ़ कहा जाने लगा। चित्रकूट के नाम से इस शहर को बहुत देर तक पुकारा जाता रहा। कई राजाओं ने चित्रकूट से ही शासन किया। यही कारण है कि इस क्षेत्र में पुराने समय के सिक्के जब भी कहीं मिलते हैं तो उन पर एक ओर चित्रकूट लिखा होता है। जब मौर्य वंश के शासकों की शक्ति दुर्बल पड़ी तो यह किला राणा वंश के संस्थापक रहे बप्पा रावल के हाथों में आ गया।
इस किले के बारे में एक मान्यता यह भी है कि इसे अबसे लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक समय पहले पांडु पुत्र भीम ने बनवाया था।
किसी भी राजवंश के शासकों को दुर्बल मानने का एक कारण यह भी होता है कि वह समय और परिस्थितियों की मांग के अनुसार जब खरे नहीं उतर पाते हैं तो उन्हें हटाने के लिए कोई न कोई क्रांति होती है। भारत में ऐसी क्रांतियां मौन रूप में होती रही हैं। जबकि विदेशों में किसी एक शासक या राजवंश को हटाने के लिए खूनी क्रांतियां हुई हैं। भारत में जब कोई शासक आलसी , प्रमादी और जनता के हितों के विपरीत कार्य करने वाला हो जाता है या जनापेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाता है तो ऐसे राजा को हटाने में जनता भी किसी क्रांतिकारी पुरुष का साथ देती है और बहुत सहजता से ऐसे राजाओं का और ऐसे राजवंशों का अंत कर दिया जाता है।

बप्पा रावल का नमनीय व्यक्तित्व

जिस समय की बात हम कर रहे हैं उस समय मौर्य वंश के आलसी और प्रमादी शासकों की आवश्यकता देश को नहीं थी। क्योंकि उस समय मुसलमानों के आक्रमण देश पर हो रहे थे। उस समय एक क्रांतिकारी पुरुष की आवश्यकता थी जो अपने ओज, तेज और प्रताप से राष्ट्र की रक्षा कर सके। जनता इस बात को भली प्रकार समझ रही थी कि इस समय किसी भी प्रकार की दुर्बलता के प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं है अपितु राष्ट्र ,धर्म व संस्कृति को बचाने के लिए क्रांतिकारी पुरुष के नेतृत्व की आवश्यकता है। जब गुर्जर प्रतिहार वंश के शासक नागभट्ट के द्वारा प्रतिहार वंश की स्थापना की गई तो इस कमी को उन्होंने बहुत सीमा तक पूर्ण करने का सराहनीय कार्य किया। इसी समय मौर्य वंश का विनाश करने के लिए बप्पा रावल ने संकल्प लिया और राष्ट्रधर्म से मुंह फेर चुके मौर्य वंश का उन्होंने एक झटके में ही अंत कर दिया। इतिहासकारों की मान्यता है कि 738 ईसवी में बप्पा रावल ने राजपूताने पर राज करने वाले मौर्य वंश का अंत किया और चित्तौड़गढ़ के दुर्ग को अपने नियंत्रण में ले लिया।

बप्पा गौरव देश का, और देश की शान।
नाज हमें उस वीर पर करते हैं अभिमान।।

ऐसा नहीं है कि चित्तौड़गढ़ मौर्य वंश के शासकों से बप्पा रावल के द्वारा छीने जाने पर किसी और के पास नहीं रहा और राणा वंश की धरोहर बन कर रह गया। इतिहासकारों की मान्यता है कि बप्पा रावल के पश्चात इस किले को मालवा के परमार वंश के शासक मुंज ने भी अपने अधिकार में कर लिया था। सन् 1133 में गुजरात के सोलंकी राजा जयसिंह (सिद्धराज) ने परमार वंश के शासक यशोवर्मन को हराकर उससे मालवा हस्तगत कर लिया । फलस्वरूप चित्तौड़गढ़ का दुर्ग भी परमार वंश के शासकों के हाथों से निकल कर सोलंकियों के अधिकार में आ गया। राजा जयसिंह ( जो कि सिद्धराज के नाम से भी जाने जाते थे ) के उत्तराधिकारी कुमारपाल हुए जिनके भतीजे अजयपाल से वैवाहिक संबंध स्थापित कर चित्तौड़गढ़ के राजा सामंत सिंह ने 1174 ईसवी के आसपास एक बार पुनः गुहिल वंश के शासकों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया।

राणा समर सिंह और पृथ्वीराज चौहान

इन्हीं सामंत सिंह को समर सिंह भी कहा जाता था। इस समय दिल्ली पर पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर चौहान का शासन था। उन्होंने अपनी पुत्री प्रथा का विवाह राणा वंश के इसी शासक सामंत सिंह अथवा समर सिंह के साथ किया था। चित्तौड़ के शासक समर सिंह ने कई युद्धों में मोहम्मद गौरी और विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध अपना राष्ट्र धर्म निभाते हुए पृथ्वीराज चौहान का साथ दिया था। सिद्धराज जयसिंह सोमेश्वर चौहान के नाना लगते थे। विदेशी आक्रमणकारी मोहम्मद गौरी के विरुद्ध पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर लड़ते हुए एक युद्ध में राणा समर सिंह का भी बलिदान हो गया था।
जब इल्तुतमिश ने नागदा को परास्त कर वहां विनाश का भारी तांडव मचाया तो वहां के राजा जैत्र सिंह ने अपनी राजधानी चित्तौड़ से शासन चलाया। जैत्र सिंह ने अपनी प्रतिभा, योग्यता और पराक्रम से चित्तौड़  की गरिमा में उस समय और भी अधिक वृद्धि की। इसी किले में रानी पद्मिनी ने 1303 ई0 में जौहर रचाया था। जब विदेशी क्रूर ,आतंकवादी आक्रमणकारी अलाउद्दीन खिलजी ने यहां पर चढ़ाई कर दी थी। उस युद्ध में हमारे अनेक वीर योद्धाओं ने अपना बलिदान दिया था। इन योद्धाओं में इतिहास के सुप्रसिद्ध नायक गोरा - बादल सहित राणा रतन सिंह भी सम्मिलित थे। इस युद्ध को चित्तौड़ का पहला आख्यान या शाका कहा जाता है। उस समय चित्तौड़ को अपने अधीन करने के पश्चात अलाउद्दीन खिलजी ने मालदेव नाम के शासक को सौंप दिया था। बाद में इसे हम्मीर देव के द्वारा अपने बौद्धिक चातुर्य और बाहुबल से फिर से प्राप्त किया गया था। इस प्रकार चित्तौड़ का यह दुर्ग कई उतार-चढ़ाव देखने का साक्षी है। इसने कभी अपने वीर सैनिकों का शौर्य देखा है तो कभी विदेशी आक्रमणकारियों के कदमों को अपनी पवित्र भूमि पर पड़ते हुए भी देखा है।

रानी कर्णावती और चित्तौड़गढ़

1534 ई0 में इस किले पर गुजरात के शासक बहादुर शाह ने हमला किया था। उस समय रानी रानी कर्णावती उपनाम कर्मवती ने कथित रूप से हुमायूं को अपनी सहायता के लिए आमंत्रित किया था। 1534ई0 का यह  युद्ध चित्तौड़ का दूसरा शाका कहलाता है। रानी कर्णावती के साथ यह कहानी उन तथाकथित इतिहासकारों ने जोड़ी है , जो इस्लाम को नरम दिखाकर भारत में गंगा जमुनी संस्कृति की बयार बहाने का झूठा श्रेय उन्हें देने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाते रहते हैं। यदि रानी कर्णावती के द्वारा हुमायूं को अपनी सहायता के लिए वास्तव में राखी भेजी जाती तो समकालीन इतिहास लेखकों या अन्य लेखकों के द्वारा इसका उल्लेख अवश्य कहीं ना कहीं मिलता। पर ऐसा नहीं है।

चित्तौड़ के राणा वंश के शासक हमीर देव ने मालदेव से चित्तौड़ को फिर से अपने बौद्धिक और बाहुबल से प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की थी। उसकी शौर्य गाथा भी इस प्रसिद्ध ऐतिहासिक दुर्ग से जुड़ी हुई है। जिसे पढ़कर प्रत्येक देशभक्त का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है।

महाराणा उदय सिंह, अकबर और चित्तौड़गढ़

1567 ईस्वी में अकबर ने इस किले पर अपनी भृकुटि तानी थी । उस समय यहां पर महाराणा संग्राम सिंह के पुत्र और महाराणा प्रताप सिंह के पिता राणा उदय सिंह शासन कर रहे थे। अकबर ने 1567 ई0 में चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण करके महाराणा उदय सिंह से इस किले को छीनने में सफलता प्राप्त की थी। यद्यपि उस समय राणा उदय सिंह को उनके विश्वसनीय सेनाधिकारियों और मंत्रियों ने बहुत ही सम्मानजनक ढंग से किले से बाहर निकाल दिया था। मंत्रियों ने महाराणा उदय सिंह को किले से सुरक्षित बाहर निकालकर यह समझा था कि उनके बचे रहने से हमारी प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आएगी। महाराणा उदय सिंह ने भी बुद्धिमत्ता दिखाते हुए दूरदर्शिता का परिचय दिया और अपने साथ अपने सारे खजाने को भी लेकर चले गए थे।
 राणा उदय सिंह ने अकबर से प्रत्यक्ष रूप में पराजय स्वीकार नहीं की थी। उन्होंने अपने लिए उदयपुर बसाकर वहां से शासन करना आरंभ किया। समय महाराणा उदय सिंह ने संकट काल के लिए उदयपुर राजधानी स्थानांतरित कर ली थी। इस प्रकार संकट के समय में भी पराजय स्वीकार न करने और मनोबल बनाए रखने का गुण महाराणा प्रताप सिंह को अपने पिता राणा उदय सिंह से ही प्राप्त हुआ था। 1567 ई0 में अकबर और महाराणा उदयसिंह के बीच हुए इस युद्ध को चित्तौड़ का तीसरा शाका कहा जाता है। चित्तौड़ के इन 3 शाकों में हिंदू लोगों पर मुगलों ने अप्रतिम अत्याचार किए थे। जिनसे हिन्दुओं को अपार जन - धन की हानि हुई थी। के उपरांत भी उन्होंने मुगलों के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया था। अपने मनोबल को बनाए रखकर अपने स्वाभिमान की लड़ाई लड़ने के लिए इसके उपरांत भी हिंदू वीर योद्धा सदा तत्पर रहे। इन तीनों शाकों का प्रभाव मेवाड़ की सांस्कृतिक विरासत पर भी पड़ा।

महाराणा प्रताप का पदार्पण

महाराणा प्रताप ने 1572 ई0 में जब राज्य सिंहासन संभाला तो पहले दिन से ही वे अकबर से चित्तौड़ को लेने के लिए प्रयास करने लगे थे। इतिहास के महाराणा प्रताप भारतीय इतिहास के एक ऐसे अप्रतिम योद्धा हैं जिनके भीतर देशभक्ति कूट-कूट कर भरी हुई थी। वह मेवाड़ के इतिहास के ही मुकुट मणि नहीं हैं, अपितु वे भारतवर्ष के इतिहास के भी मुकुट मणि कहे जाएं तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी। अत्यल्प संसाधनों के आधार पर इतने विशाल मुगल साम्राज्य से भिड़ना केवल महाराणा प्रताप से ही सीखा जा सकता है।

महाराणा के सम्मान में झुकता सारा देश।
देश भक्ति से भर दिया देश का परिवेश।।

अकबर भी यह भली प्रकार समझता था कि महाराणा प्रताप का आगमन उसके लिए कष्टकर रहेगा। यही कारण रहा कि जून 1576 ई0 की हल्दीघाटी की लड़ाई के पश्चात अगले 10 वर्ष तक निरन्तर महाराणा प्रताप और अकबर का युद्ध चित्तौड़ को लेकर होता रहा । अब तो यह भी स्थापित हो चुका है कि हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप पराजित नहीं हुए थे बल्कि अकबर ही पराजित हुआ था। यद्यपि महाराणा चित्तौड़ लेने में असफल रहे थे, क्योंकि वह असमय ही हमें छोड़ कर चले गए थे। इसके उपरांत भी उन्होंने मुगल सम्राट अकबर के दांत खट्टे करने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी। उस समय महाराणा का गौरव राष्ट्र का गौरव बन चुका था। उनका स्वाभिमान राष्ट्र का स्वाभिमान था और उनका तेज राष्ट्र का तेज था। जब यह किला अलाउद्दीन जैसे नीच विदेशी शासक के हाथों में चला गया तो इसे फिर से प्राप्त करने में हम्मीर देव जैसे योग्य और राष्ट्रभक्त शासक ने सफलता प्राप्त की थी। उसने अपने बुद्धि बल और बाहुबल से मालदेव को परास्त किया और किले को प्राप्त करने में असाधारण सफलता प्राप्त की। हम्मीर देव का यह कार्य सचमुच राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत था । उसने अपने बुद्धि बल और बाहुबल से 50 वर्ष तक पराक्रमपूर्ण शासन किया।

चित्तौड़ के प्रसिद्ध जौहर

मेवाड़ के इतिहास में जौहर बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। जौहर के माध्यम से बलिदान देकर निज संस्कृति की सर्वोच्चता और सर्वोपरिता को स्थापित करने की ऐसी शूरवीरता विश्व इतिहास में अन्यत्र ढूंढने से भी नहीं मिलती। लोगों ने देश ,धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए अपने सिर कटा लिये यह एक बड़ी बात हो सकती है पर जीते जी अपने आपको अग्नि के समर्पित कर देना उससे भी बड़ी बात है। अपने प्राणों का बलिदान करना ही अपनी रक्षा का हथियार बना लेना उन परिस्थितियों में भारत की वीरांगना नारियों की एक अकल्पनीय और आश्चर्यजनक खोज थी।

जौहर किए इतिहास में देकर के निज प्राण।
यही हमारी वीरता, यही हमारी शान।।

 वास्तव में जौहर की इस अतुलनीय परंपरा ने चित्तौड़ के इतिहास को बहुत अधिक रोमांचकारी बना दिया है। चित्तौड़ को वीरता, देशभक्ति, पराक्रम और वीरांगनाओं की महानतम परंपरा की पवित्र धरती बनाने में जौहरों का विशेष योगदान है। जौहर के पीछे छुपी देशभक्ति की भावना और धर्म व संस्कृति के प्रति असीम लगाव के चलते मर मिटने का उत्तम भाव हमें चित्तौड़ से बहुत कुछ सीखने के लिए देता है। अपने धर्म और अपने संस्कारों के प्रति पूर्ण समर्पण के भाव को झलकाने वाले जौहर हमें यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि हमारी वीरांगना नारियों ने अपने धर्म पर मर मिटना तो उचित माना परंतु अपने सम्मान का सौदा किसी विदेशी म्लेच्छ, पापी, लुटेरे के हाथों नहीं होने दिया।

देश की उन महान नारियों की इस प्रकार की वीरता को किसी एक क्षेत्र या किसी एक जाति या किसी प्रदेश से बांध कर देखना भारतवर्ष के आत्मसम्मान के साथ खिलवाड़ करना है। यह तब और भी अधिक दु:खद हो जाता है जब हम सब यह भली प्रकार जानते हैं कि संपूर्ण भारतवर्ष आर्य संस्कारों और वैदिक संस्कृति के बलिदानी भावों से भरा हुआ रहा है। ऐसी परिस्थितियों में इसके इतिहास को समग्र रूप में समझने की आवश्यकता है।

क्रमश:

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक: उगता भारत

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