जिस समय देश स्वतन्त्र हुआ उस समय सरदार पटेल के प्रयासों से देश की 563 रियासतों में से 560 ने भारत के साथ अपने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये थे, जो शेष तीन रियासतें बची थीं वे थीं कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद की रियासतें। सरदार पटेल जिस समय हैदराबाद को सैनिक कार्यवाही के माध्यम से भारत के साथ मिलाने का कार्य कर रहे थे उसी समय उनसे एक राजनीतिक भूल हुई। उन्होंने कह दिया था कि यदि जम्मू कश्मीर के महाराजा हरिसिंह अपनी रियासत का विलय पाकिस्तान के साथ करना चाहें तो भारत उनके इस कृत्य को अमैत्रीपूर्ण नहीं मानेगा। ऐसी ही दूसरी राजनीतिक भूल पं. नेहरू से हुई थी, जिन्होंने 2 जनवरी 1948 को कलकत्ता में एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए कह दिया था कि कश्मीर ना तो पाकिस्तान का है और ना ही भारत का है, अपितु कश्मीर कश्मीरियों का है। अगर पाकिस्तान कश्मीर पर आक्रमण करता है तो (कश्मीर के अलग अस्तित्व अर्थात कश्मीरियत को बचाने के लिए) भारत के साथ उसका व्यापक युद्घ छिड़ जाएगा।
हमारे तत्कालीन नेतृत्व की इस प्रकार की बातों को सुनकर पाकिस्तानी शासकों को लगा कि कश्मीर में भारत की रूचि अधिक नहीं है और यदि यहां विरोध और विद्रोह को भडक़ाया जाए तो एक दिन कश्मीर भी उन्हें वैसे ही मिल जाएगा जैसे हंसते-हंसते पाकिस्तान मिल गया था। पं. नेहरू ने कश्मीर और कश्मीरियत की बात तो कह दी थी और उसे उनके अनुयायियों ने आज तक बोलना भी नहीं छोड़ा है पर नेहरूजी या उनके अनुयायी आज तक भी यह स्पष्ट नहीं कर पाये हैं कि यह कश्मीर और कश्मीरियत है क्या? यदि कश्यप ऋषि की वेदवाणी से कश्मीरियत का निर्माण हुआ है तो उसे कश्मीरियत माना जाए या जिन सूफी सन्तों ने कश्यप जैसे वैदिक ऋषियों की इस पवित्र भूमि को हड़पकर बड़ी सावधानी से एक विदेशी मजहब को सौंप दिया-उनकी इस देश विरोधी गतिविधि को कश्मीरियत माना जाए? दुर्भाग्यवश कश्मीर से कश्यप को विदाकर सूफीवाद को कश्मीरियत मानने की भारी भूल की गयी है। एक धर्मनिरपेक्ष देश के इस भाग में शासन और प्रशासन की ओर से मिलकर यह प्रयास किया गया कि कश्मीर की कश्मीरियत के नाम पर उसका इस्लामिक चेहरा सुरक्षित रखा जाए। शेष देश में वैदिक हिन्दू धर्म की मान्यताओं और सिद्घान्तों को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मिटाने का प्रयास किया गया तो कश्मीर में इस्लाम को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सुरक्षा देने का प्रयास किया गया।
हमारी इस प्रकार की दोगली नीतियों से पाकिस्तान और कश्मीर के अलगाववादियों को कश्मीर में इस्लामिक आतंकवादी संगठनों को खड़ा करने का अवसर मिला। फलस्वरूप जम्मू कश्मीर में कुकुरमुत्तों की भांति आतंकी संगठनों का जन्म, विकास और विस्तार हुआ। धारा 370 की आड़ में केन्द्र सरकार और प्रदेश की सरकार कश्मीर को इस्लामिक रंग में रंगती गयी और उसका सीधा लाभ आतंकी संगठन उठाते गये। आतंकी दूध पी-पीकर जब बड़े हो गये तो 3 फरवरी 1984 को उन्होंने अपनी ओर से फिरौती की पहली और बड़ी घटना को अंजाम दिया। ‘जम्मू कश्मीर लिब्रेशन फ्रन्ट’ के आतंकियों ने लंदन स्थित भारतीय दूतावास के सहायक उच्चायुक्त सन्दीप महात्रे का अपहरण कर लिया। फिरौती के रूप में एक ऐसे आतंकी मकबूल भट्ट की रिहाई की मांग की जिसे फांसी की सजा सुनाई जा चुकी थी। उस समय देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी थीं। जिन्होंने आतंकियों की इस मांग के सामने न झुककर मकबूल भट्ट को फांसी दिला दी। फलस्वरूप संदीप महात्रे की हत्या कर दी गयी। बाद में 1989 में केन्द्र में वीपीसिंह की सरकार बनी और देश के गृहमंत्री मुफ्ती मौहम्मद सईद बनाये गये। तब मुफ्ती की बेटी रूबिया का भी उसी समय अपहरण कर लिया गया जिस प्रकार संदीप महात्रे का किया गया था। तब भी आतंकियों ने यह मांग रखी कि उनके कुछ आतंकी साथियों को छोड़ दिया जाएगा तो वे रूबिया के प्राण बख्श देंगे। वीपीसिंह की सरकार झुक गयी और इससे आतंकियों को लगा कि इस प्रकार की घटनाओं से भारत की सरकार को हिलाया जा सकता है। उसके पश्चात अपहरण की अनेकों घटनाएं इस प्रदेश में हुई। 2009 तक जम्मू कश्मीर में ऐसी अपहरण की घटना करने वाले लगभग 40 आतंकी संगठन कार्यरत रहे हैं। 1995 में अलफारान गुट के आतंकियों ने जुलाई 1995 में पांच विदेशी पर्यटकों का अपहरण कर लिया था। जिनमें से नार्वे के एक पर्यटक की बाद में हत्या कर दी गयी थी। उद्देश्य यही था कि विश्व का ध्यान कश्मीर की आजादी की ओर आकृष्ट किया जाए। इसी प्रकार की घटना के कारण भारत को कन्धार काण्ड की शर्मनाक घटना का भी सामना करना पड़ा।
कश्मीर से बड़ी संख्या में हिन्दुओं ने पलायन करना आरम्भ किया। सच्ची कश्मीरियत उजडऩे लगी और एक नकली कश्मीरियत कश्मीर में बसने लगी। वीपीसिंह की सरकार के सत्ता संभालने के बाद 19 जनवरी 1990 को कश्मीर में राज्यपाल शासन लागू किया गया। तब तक राज्य प्रशासन अपने आपको आतंकियों को सौंप चुका था। बड़ी संख्या में हिन्दू कश्मीर से भाग रहे थे। 1600 हिंसक घटनाएं हो चुकी थीं, 351 बमकाण्ड हो चुके थे। यह सब 11 महीनों में हुआ था। एक जनवरी 1990 से लेकर 19 जनवरी 1990 तक 319 हिंसक घटनाएं, 21 सशस्त्र हमले, 114 बम फटने की घटनाएं 112 स्थानों पर आगजनी और भीड़ द्वारा 72 हिंसक घटनाएं हो चुकी थीं। स्थितियां इतनी भयावह हो गयी थीं कि खुफिया विभाग की सूचना पर जब शबीर अहमद शाह को सितम्बर 1989 में गिरफ्तार किया गया तो श्रीनगर के डिप्टी कमिश्नर ने उसकी नजरबन्दी के वारण्ट पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था। अनंतकाल के डिप्टी कमिश्नर ने भी ऐसा ही किया था। राज्य का महाधिवक्ता राज्य का केस रखने के लिए अदालत में हाजिर ही नहीं हुआ था। इन तथ्यों के साथ जम्मू कश्मीर की वस्तुस्थिति को स्पष्ट करने वाला एक खुला पत्र जम्मू कश्मीर राज्यपाल रहे श्री जगमोहन द्वारा 21 अप्रैल 1990 को कांग्रेस के नेता राजीव गांधी के लिए लिखा गया था। उन्होंने उस पत्र में यह भी लिखा था कि राज्य के महाधिवक्ता ने अपनी जिम्मेदारी अपने अधीनस्थ अधिकारी पर डाल दी थी। 22 नवंबर 1989 को जब वहां लोकसभा के लिए वोट डाले जा रहे थे तो मतपेटी पर लिखा था ‘जो कोई वोट डालेगा उसे कफन मिलेगा।’ ऐसी परिस्थितियों में जम्मू कश्मीर में हिन्दुओं का रहना दूभर हो गया था। वहां का प्रशासन पंगु था, शासन कान्तिहीन था, नेता दोगले और राष्ट्रविरोधी थे। उनके हृदय में पाकिस्तान धडक़ता था और भारत के विरूद्घ उनकी वाणी विषवमन करती थी।
तब अपने ही देश में शरणार्थी बनने के लिए कश्मीर के हिन्दू ने वहां से निकल जाना बेहतर समझा। वह बेचारा हिन्दू विस्थापित होकर पिछले 28 वर्ष से अपने ही देश में दर-दर भटक रहा है। लगता है ‘अकबर’ से ‘महाराणा प्रताप’ की जंग आज भी जारी है तभी तो एक नहीं अनेकों ‘महाराणाओं’ को अपनी राजधानी छोडकर इधर-उधर भटकना पड़ रहा है। हमारा मानना है कि कश्मीर के इन हिन्दू विस्थापितों की इस दशा को बनाने में धारा 370, पंगु प्रशासन, दोगला और राष्ट्रविरोधी नेताओं का चरित्र, केन्द्र सरकार की अस्थिर नीतियां और कथित धर्मनिरपेक्षता की मूर्खतापूर्ण धारणा उत्तरदायी है। वर्तमान में केन्द्र में भाजपा की मोदी सरकार से लोगों को विशेष अपेक्षा है। यद्यपि आतंकवाद को मिटाने की दिशा में सरकार को सफलता मिली है पर पूर्ण सफलता तभी मानी जाएगी जब वहां की स्थितियां इन हिन्दू विस्थापितों को पुन: बसाने के अनुकूल हों। स्थायी समाधान के लिए कश्मीर से धारा 370 को हटाकर वहां हमारे पूर्व सैनिकों को बसाना ही एक मात्र उपाय है। सरकार को इस दिशा में कदम उठाना चाहिए और कश्मीर के हिन्दू विस्थापितों को उनका घर और देश लौटाना चाहिए।