बात तब की है जब कश्मीर में आतंकवादी घटनाएं अपने चरम पर थीं। 1989-90 का वर्ष खासतौर पर इसलिए याद किया जाएगा क्योंकि इस साल रोज-रोज के बम धमाकों, अत्याचारों, आतंकी घटनाओं,हत्याओं आदि से तंग आकर बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडित घाटी से विस्थापित होकर देश के दूसरे हिस्सों में चले आए।चले क्या आये,जिहादियों द्वारा बर्बरतापूर्वक खदेड़े गए। कुछ तो अपना घर-गृहस्थी का सामान साथ ले आने में सफल रहे, मगर कुछ को वहां सब कुछ छोड़ कर खाली हाथ ही अपनी जान बचाते हुए घरों से भाग जाना पड़ा।
अधिकतर विस्थापित कश्मीरी पंडित जम्मू और देश के दूसरे शहरों में चले आए और यहां विभिन्न कैंपों, मंदिरों, शरणस्थलियों में रहने लगे। देश के कई सामाजिक संगठनों और संस्थाओं ने विपदा की इस घड़ी में विस्थापित कश्मीरी पंडितों की हर तरह से यथोचित मदद और सेवा की। मगर यह दर्द/गिला सभी को है कि जम्मू-कश्मीर सरकार ने घाटी से कश्मीरी पंडितों के इस पलायन पर आज तक चुप्पी साध रखी है और उनको वापस घाटी में बसाने की कोई कार्य-योजना अभी तक अम्ल में नहीं आई नहीं है। पूरी घाटी में कश्मीरी पंडितों के खाली पड़े मकान इस बात के गवाह हैं कि उनमें रहने वाले लोगों पर आतंकवादियों या उनके नाम पर कश्मीर के ही लोगों ने कितने जुल्म ढाए होंगे !
चूंकि अधिकतर कश्मीरी-पंडित(हिन्दू) घाटी से पलायन कर चुके हैं, इसलिए आज उनमें बिखराव के कारण उनकी वोट की ताकत भी किसी मतलब की नहीं रही। जब वोट की ताकत ही नहीं बची, तो उनकी सुध लेने वाला भी कोई नहीं है। यों तो वहां ऐसा भी एक वर्ग मौजूद है, जो घाटी से पंडितों के पलायन पर बहुत दुखी है और कहता है कि यह पलायन कश्मीरी मुसलमानों के लिए बहुत बड़ा कलंक है।
विस्थापन की इस भगदड़ में मेरे मित्र त्रिलोकी बाबू का एक सूट, दर्जी अली मुहम्मद के पास श्रीनगर में ही रह गया था। यह सूट त्रिलोकी ने अपनी शादी की तीसवीं सालगिरह पर पहनने के लिए अली मुहम्मद दर्ज़ी को सिलने के लिए दिया था। मगर किसको पता था कि एक दिन आतंक का कहर पंडितों को बेघर कर देगा? त्रिलोकी बाल-बच्चों समेत रातों-रात एक ट्रक में अपना सामान भर कर जम्मू चले आए।
सात-आठ वर्ष बाद जब स्थिति तनिक सामान्य हुई तो मुझे किसी काम से श्रीनगर जाना पड़ा। त्रिलोकी को जब मालूम पड़ा कि मैं श्रीनगर जाने वाला हूं तो उन्होंने मुझे एक काम पकड़ा दिया: दर्जी की पर्ची हाथ में थमा कर कहने लगे- ‘भई, मेरा सूट वहां दर्जी के पास पड़ा हुआ है, उसने सिल तो दिया होगा, ये रहे सिलाई के पैसे और यह रही पर्ची।’ दर्जी और दर्जी की दुकान से मैं अच्छी तरह वाकिफ था। मैंने पैसे और पर्ची जेब में डाल दिए।
श्रीनगर पहुंच कर अली मुहम्मद दर्जी की दुकान ढूंढ़ने में मुझे ज्यादा दिक्कत नहीं हुई। हां, इतना जरूर पाया कि आसपास की दुकानें कुछ बदल और कुछ चौड़ी हो गई थीं। सड़कों पर आवाजाही और रौनक वैसी की वैसी थी। हां, दुपहियों की जगह चार पहिए वाली गाड़ियां कुछ ज्यादा नजर आ रही थीं। मुझे सचमुच बहुत अच्छा लग रहा था। इतने वर्षों बाद अपने मुहल्ले को देख कर, गली-कूचों, सड़कों, खाली पड़े मकानों आदि को देख कर मेरे मन में एक अजीब तरह का भाव भर आया।
मैं अली भाई की दुकान पर पहुंचा। सामने बैठे एक बुजुर्गवार के हाथ में त्रिलोकी की पर्ची थमा दी। वह शख्स मुझे कुछ क्षण तक एकटक निहारता रहा, फिर मेरे कंधे पर अपना एक हाथ रख कर बोला- ‘अच्छा तो आप त्रिलोकीनाथ जी के दोस्त हैं? उन्होंने आपको अपना सूट मंगाने के लिए भेजा है…?’ फिर दूसरा हाथ भी मेरे कंधे पर रखते हुए भावपूर्ण शब्दों में कहने लगे- ‘वो! वोह देखो! उनका कोट ऊपर हैंगर में टंगा है, बिल्कुल तैयार है।’ अपने एक सहायक से सूट को पैक करने के लिए कहते हुए उन्होंने मुझसे पूछा- ‘कैसे हैं त्रिलोकीनाथ जी? बच्चे उनके कैसे हैं? अब तो बड़े हो गए होंगे, भाभी जी कैसी हैं?… भई, सचमुच बहुत बुरा हुआ, हमें भी बहुत दुख है… जाने कश्मीर को किसकी नजर लग गई!’
इससे पहले कि वे कुछ और कहते, मैंने जेब से सिलाई के पैसे निकाले और दर्जी को पकड़ाने लगा। मेरे हाथ में पैसे देख कर अली मुहम्मद बोले- ‘पहले तो त्रिलोकीनाथ जी को हमारा आदाब कहना, फिर उनको कहना कि इंशाअल्लाह जब वे खुद यहां आएंगे, यहां रहने लगेंगे, तब मैं ये पैसे लूंगा, अभी नहीं, अभी बिल्कुल नहीं।…. आप बैठिए, चाय वगैरह लीजिए।’ मैं कुछ भी बोल नहीं पाया। बस, सोचता रहा कि सदियों से चली आ रही कश्मीर की भाई-चारे की इस रिवायत को यह किसकी नजर लग गई!
(डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)
संप्रति दुबई में।