गीता का छठा अध्याय और विश्व समाज
योगी की समाधि अवस्था
गीता के छठे अध्याय की विशेषता यह है कि इसमें श्रीकृष्ण जी ने ध्यान योगी के लक्षण भी बताये हैं। इस पर प्रकाश डालते हुए श्रीकृष्णजी कहते हैं कि जब चित्त व्यक्ति के वश में हो जाता है और वह आत्मा में स्थित हो जाता है तो उस समय ऐसा व्यक्ति सारी वासनाओं से छूट जाता है। ऐसी अवस्था में उसे किसी प्रकार की कोई आकांक्षा नहीं रहती है। उसमें निस्पृहता का भाव आ जाता है-वह लालसाओं से मुक्त हो जाता है। ऐसी अवस्था को प्राप्त व्यक्तियों को ‘युक्त’ अर्थात ध्यान योगी कहा जाता है।
निस्पृह योगी योग में हो जावें जब युक्त।
दुर्गुण पीछा छोड़ दें करे लालसा मुक्त।।
वह ध्यान से युक्त अर्थात पूर्ण हो जाता है-उससे जुड़ जाता है। योगी को बाहरी आवेग किसी प्रकार से भी विचलित नहीं कर पाते। वह अविचल भाव से अडिग अवस्था के साथ परमपिता परमात्मा में निष्ठ हो जाता है। उसे अब न तो कोई डिगा सकता है और न ही अपने पथ से या स्थान से हटा सकता है। वह अमिट और अविनाशी का साधक बना स्वयं को भी अमिट और अविनाशी समझने लगता है। उसका अज्ञान मिट जाता है और वह निर्भयता को प्राप्त कर लेता है। भय तो लौकिक संसार की वस्तु है, इसका आत्मा के संसार में कोई स्थान नहीं है। ज्ञान होते ही भय मिट जाता है और व्यक्ति स्वयं को अभय मानने लगता है। वेद भी व्यक्ति को अभय बनने के लिए प्रेरित करता है। वेद में प्रार्थना है कि हमें मित्र से, अमित्र से, ज्ञात से, अज्ञात से और सभी दिशाओं से अभय की प्राप्ति हो। हम कोई ऐसा कार्य न करें जिससे हमें भय की प्राप्ति हो। हमारे खोटे कर्म ही हमें भय प्रदान करते हैं और हमारे सत्कर्म हमें अभय होने का वरदान देते हैं। अत: जब वेद की प्रार्थना में हम अपने अभय होने का वरदान ईश्वर से मांगते हैं तो समझो कि हम उससे सत्कर्मों में लगे रहने की प्रार्थना कर रहे हैं।
योगी की साधना की अवस्था में स्थिति कैसी होती है? इस पर प्रकाश डालते हुए श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि जैसे वायु रहित स्थान में रखे हुए एक दीपक की लौ कांपती नहीं है अर्थात वह सीधी अवस्था में रहकर जलता है और प्रकाश करता रहता है-उसी प्रकार की अवस्था या स्थिति एक योगी को अपनी ध्यान की अवस्था में प्राप्त हो जाती है। ऐसे योगी का अपना चित्त वश में हो जाता है और वह निभ्र्रान्त होकर अपनी सफलता का मार्ग तय करने लगता है। इस अवस्था में योगी अपनी आत्मा मेें ही आत्मा को पाकर अर्थात परमात्मा को जान व समझकर अपने में संतोष अनुभव करने लगता है। इसका अभिप्राय है कि एक योगी का चित्त शान्त हो जाता है उसके चित्त की वृत्तियां शान्त हो जाती हैं, उनका निरोध हो जाता है। इसी अवस्था को पाकर योगी कह उठता है-
मगन ईश्वर की भक्ति में
अरे मन क्यों नहीं होता।
दमन कर चित्त की वृत्ति
लगा ले योग में गोता।।
चित्त की वृत्तियों का निरोध हो गया तो योग में गोता लगाने का हमारा अभ्यास भी निरन्तर दृढ़ से दृढतर हो गया-समझा जाना चाहिए। हमारे शरीर में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय विज्ञानमय और आनंदमय नामक पांच कोशों की कल्पना की गयी है। जब प्राणायाम के माध्यम से ध्यान की अवस्था को योगी प्राप्त कर लेता है तो उसके अन्नमयकोश, मनोमयकोश और प्राणमय कोश का शोधन हो जाता है। ये पूर्णत: शुद्घ होते ही आत्म मंदिर जगमगा उठता है। तब आत्म मंदिर के पुजारी बने मन के पास भी किसी प्रकार की मलीन वासनाएं फटक नहीं पाती हंै। उसकी चंचलता शान्त हो जाती है। जिससे मनुष्य को ऐसा लगने लगता है कि उसके भीतर नये जीवन का और नई ऊर्जा का संचार हो रहा है। जो अभी तक का मलीन संसार उसे भीतर झांकने भी नहीं देता था, अब वह भीतर के संसार की इस जगमगाहट के सामने दुम दबाकर भाग खड़ा होता है। उसका कहीं पता नहीं होता कि वह कहां गया?
योगेश्वर श्रीकृष्ण जी इस अवस्था को ‘अतीन्द्रिय सुख’ कहते हैं। ‘अतीन्द्रिय सुख’ वह सुख होता है जो कभी भी इन्द्रियों से प्राप्त नहीं किया जा सकता। उसे श्रीकृष्ण जी बुद्घिग्राह्य अत्यधिक सुख की संज्ञा देते हैं। सचमुच श्रीकृष्ण जी का कहना ही उचित है। यह ‘अतीन्द्रिय सुख’ बुद्घि ग्राहय अत्यधिक अर्थात बुद्घि से प्राप्त होने वाला परम सुख ही कहा जाना चाहिए। इसमें व्यक्ति आत्म तत्व को और आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है, आत्म साक्षात्कार के आनन्दमय रस से भीग चुका होता है, और उसे सारे रस उपलब्ध होते हुए भी वे सबके सब नीरस लगने लगते हैं।
इस अवस्था को पाकर व्यक्ति समझने लगता है कि अब पाने के लिए कुछ शेष नहीं रहा, इसमें स्थित होकर भी यदि डिगने का या टहलने का प्रयास किया तो फिर भटकाव की स्थिति आ जाती है। इसलिए कोई भी सच्चा साधक इस अवस्था को पाकर फिर भटकता नहीं है।
एक सच्चा योगी दु:ख से मुक्त होकर आनन्द के साथ योग स्थापित कर लेता है। जिसे, श्रीकृष्ण जी ने गीता में ‘दु:ख संयोग’ का वियोग कहा है। दु:ख के साथ जो अब तक संयोग था-मेल था-मित्रता थी, दोस्ती थी-अब वह जाती रही और उसके स्थान पर वियोग आ गया है। यह वियोग ही योग है। वियोग का अर्थ विशेष योग है-इसलिए कई योगी अपना नाम वियोगी भी रख लेते हैं। ऐसा योगी श्रीकृष्णजी के शब्दों में संकल्प से उत्पन्न होने वाली सब कामनाओं का पूर्णत: त्याग कर चुका होता है, वह मन से ही सब इन्द्रियों को सब ओर से नियम में लाने में सफल हो जाता है। वह अपनी धैर्य युक्त बुद्घि से धीरे-धीरे शान्त होता जाता है और मन को आत्मा में पिरोकर अब वह किसी अन्य वस्तु का विचार तक भी नहीं करता। वह इधर-उधर भागते मन को आत्मा के वश में करने में सफल हो जाता है और उसका मन एक आज्ञाकारी शिष्य की भांति चुपचाप कान तोडक़र बैठने लगता है। ऐसे योगी को परमसुख की प्राप्ति होने लगती है। ऐसे योगी के पाप दूर हो जाते हैं और वह आत्मा को सदा ध्यान में लगाने का अभ्यासी हो जाता है। उसे ब्रह्म का संस्पर्श होकर उससे उपजाने वाले आत्मसुख की आनन्दमयी अमृतवर्षा का भान होता रहता है।
जिस समय महाभारत का युद्घ हुआ था-उस समय भारत के वैदिक धर्म का पतन हो रहा था। जिससे देश की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक मान्यताओं में तथा राजनीतिक स्थिति में क्षरण की अवस्था उत्पन्न हो चुकी थी। गीताकार ने गीता का विस्तार करके देश की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व राजनीतिक परिस्थितियों को वेदानुकूल बनाने का प्रयास किया। गीताकार ने समाजोत्थान के लिए श्रीकृष्ण के मुख से विषय को विस्तार दिलाकर अनेकों वैदिक मान्यताओं को पुनस्र्थापित कराने की दिशा में ठोस कार्य किया। गीताकार की भावना यही थी कि वैदिक संस्कृति का विस्तार हो और समाज की स्थिति में सुधार हो। ध्यान योगी को जिस ब्रह्मानन्द की उपलब्धि होती है उस पर हम पूर्व में भी प्रकाश डाल चुके हैं।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत