भारत में अध्यात्म और मानव समाज का चोली दामन का साथ है। बिना अध्यात्म के भारत में मानव समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यही कारण है कि भारत में आध्यात्मिक संतों व महात्माओं का विशेष सम्मान है। प्राचीनकाल में लोग पाप पुण्य से बहुत डरते थे। यही कारण था कि अपने अधिकांश कार्यों को लोग आध्यात्मिक सन्तों और महात्माओं से पूछकर किया करते थे कि यदि मैं अमुक कार्य करता हूं तो इससे किसी के अधिकारों का अधिक्रमण तो नहीं होगा? और क्या यह मेरे स्वयं के और समाज के हित में भी होगा या नहीं? इससे किसी के साथ मैं अन्याय तो नहीं कर बैठूंगा? इत्यादि। इस पर सन्त महात्मा लोग पूर्णत: न्यायसंगत और निष्पक्ष राय दिया करते थे और समाज का उचित मार्गदर्शन करते हुए लोगों को बुरे कार्य करने से बचा लिया करते थे। यही कारण रहा है कि भारत में सन्त महात्माओं के प्रति लोगों की गहरी आस्था और श्रद्घा आज भी देखने को मिलती है।
वास्तव में ज्ञानी जनों का सम्मान आवश्यक ही होता है। यदि ज्ञानियों का सम्मान करना समाज छोड़ देगा तो समाज का नैतिक पतन हो जाएगा और अन्त में समाज में अराजकता व्याप्त हो जाएगी। इस सबके उपरान्त भी श्रद्घा और आस्था की अपनी सीमाएं हैं। इनका पात्र हर व्यक्ति नहीं होता और ना ही ये हर किसी के प्रति प्रकट की जानी चाहिए। कौन व्यक्ति इनका पात्र है और कौन नहीं-यह देख लेना और परख लेना नितान्त आवश्यक है। व्यक्ति को कभी ज्ञान की निर्मलता, तो कभी रूढिय़ों की जकडऩ, और कभी साम्प्रदायिक मान्यताएं कुछ तथाकथित भगवानों, सन्तों-महात्माओं और मौलवियों के प्रति श्रद्घालु बनाती हैं। इनमें से ज्ञान की निर्मलता भी उतनी ही घातक है-जितनी रूढिय़ों की जकडऩ और साम्प्रदायिक मान्यताएं घातक हैं। ज्ञान की निर्मलता से हमारा अभिप्राय है कि व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करते-करते कुछ तथाकथित विद्वानों और धर्मगुरूओं के प्रति अपेक्षा से अधिक श्रद्घालु और सहिष्णु हो जाता है। वह उनके व्यक्तिगत चरित्र को देखना बन्द कर देता है, उनकी पात्रता और योग्यता पर विचार नहीं करता, उनके आचरण-व्यवहार को नहीं देखता और उनकी बात को आंख मूंदकर मानता चला जाता है। इससे ऐसे धर्मगुरूओं की पाखण्डी वृत्ति में वृद्घि होती है और वे अहंकारी होते जाते हैं। वे मानने लगते हैं कि धरती पर वही ‘भगवान’ हैं। हमारी माता-बहनें स्वभावत: कुछ अधिक भावुक और उदार होती हैं। वे इन तथाकथित भगवानों के चक्कर में शीघ्र फंस जाती हैं। उन्हें लगता है कि ये जो कुछ भी कह रहे हैं-वही सही है और इसीलिए इनका सारा संसार सम्मान करता है।
नारी सुलभ इस उदार स्वभाव का ये तथाकथित भगवान या अध्यात्मिक धर्मगुरू लाभ उठाते हैं और उनकी भावनाओं से खेलते-खेलते एक दिन उनके शरीर से ही खेलने लगते हैं।, बस, यही वह अवस्था होती है जो किसी भी सभ्य समाज के लिए घातक होती है। भारत में जहां अनेकों ऐसे सच्चे सन्तों व महात्माओं की एक लम्बी श्रंखला है, जिन्होंने अपने पवित्रतम ज्ञान से संसार का कल्याण किया, उद्घार और उपकार किया -वही आधुनिक काल के ऐसे कई नाम भी अनायास ही स्मृति स्थल पर उभर आते हैं जिनके नामों ने और कामों ने सन्त के चोले को ही अपमानित करके रख दिया है और इतना ही नहीं उनके कारण गुरूपद की गरिमा का भी हनन और पतन हुआ है।
इसी श्रंखला में एक नया नाम जुड़ा है। यह व्यक्ति बाबा बीरेन्द्र देव दीक्षित के नाम से दिल्ली की एक घनी आबादी में अध्यात्मिक विश्वविद्यालय चला रहा था। जहां इसने महिलाओं पर अत्याचार करने और उन्हें अपनी रखैल बनाकर रखने का धन्धा आध्यात्मिक विश्वविद्यालय की आड़ में चला रखा था। इसके कारनामों की सूची जैसे-जैसे सामने आती जा रही है वैसे-वैसे ही आस्था और श्रद्घा के प्रति लोगों की घृ़णा गहराती जा रही है। ऐसे लोगों के प्रति घृणा का बढऩा-केवल व्यक्ति के प्रति घृणा का बढऩा नहीं होता है-भारतीयता से घृणा करने वाले या कराने वाले इस घृणा को भारतीय संस्कृति के साथ जोड़ते हैं और लोगों को भ्रमित करते हैं कि भारत में यह सन्त परम्परा प्राचीनकाल से ही ऐसे ही कार्य करती चली आ रही है। इसलिए इस संस्कृति से और इसके प्रेरणास्रोत वैदिक सनातन धर्म से घृणा करो, इसे रूढि़वादी और घृणास्पद मानकर छोडिय़े। फलस्वरूप कुछ लोग भ्रमित हो जाते हैं और उससे भारत के वैदिक धर्म को छोडक़र वे किसी अन्य मजहब को अपना लेते हैं। जिसका परिणाम यह आ रहा है कि भारत का धर्म और भारत की संस्कृति दुर्बल होती जा रही है। विश्व की सर्वोत्कृष्ट वैदिक संस्कृति को इस प्रकार दुर्बल करने वाले षडय़ंत्रकारी दिमागों और हाथों को पहचानने की आवश्यकता है। ये शैतान हैं और इन शैतानों के कारण हम अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं।
वैसे इस प्रकार के कार्यों में सरकारी लापरवाही भी कम दोषी नहीं है। सरकार ने भारतीयता को प्रोत्साहित करने के लिए और वैदिक नैतिक शिक्षा को, अध्यात्म और ब्रह्मविद्या के रहस्य को समझाने के लिए हमारे विद्यालयों में पाठ्यक्रम लगाना चाहिए था। जिससे बच्चों को अपने धर्म व संस्कृति को जानने का अवसर मिलता। भारत के लोगों को आज की शिक्षा प्रणाली भारतीय धर्म और संस्कृति के विषय में कुछ भी नहीं बता रही है। जिससे बच्चे बड़े होकर परम्परागत रूप से अपने किसी न किसी धर्मगुरू की शरण में चले जाते हैं। वे अवस्था में बड़े होते हैं-पर दिमाग से छोटे होते हैं। उन्हें पता ही नही होता कि आध्यात्मिक दर्शन और चिन्तन क्या होता है और इन तथाकथित धर्मगुरूओं की शरण में कब और कैसे जाना चाहिए? वे कौन लोग होते हैं-जिनसे अपने कर्म की रेखा दिखानी चाहिए और यह पूछना चाहिए कि यदि मैं अमुक कार्य करूंगा तो वह मेरे लिए कितना पुण्यदायी अर्थात लाभदायक होगा? हमारे यहां तो पुण्य का अभिप्राय लाभ था। पुण्य ही (लाभ का उल्टा) हमारा भला कर सकता है। भारत की परम्परा अन्धी श्रद्घा पैदा करने की नहीं है और ना ही किसी साधु या धर्मगुरू की शरण में जाकर अपनी भाग्यरेखा दिखाकर दूसरों का माल हड़पने की है, अपितु भारत की परम्परा तो गुरूजी से ऐसे उपाय पूछना है-ऐसा मार्ग पूछना है, ऐसा मार्ग=दर्शन लेना है जिससे कि मेरे कार्य से, मेरे विचार से और मेरी योजना से मेरा तो भला होवे ही दूसरों का भी भला हो। यह परम्परा भारत के लिए ही नहीं-सारे संसार के लिए भी उपयोगी हो सकती है। भारत को अपनी इस परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए सचेष्ट होना होगा। दिल्ली के इस बीरेन्द्र बाबा को अधिक हवा देने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है देश में एक राष्ट्रदेव की आराधना की। इस राष्ट्रदेव की आराधना तभी सम्भव है जब सबका वैज्ञानिक दृष्टिकोण हो, वैज्ञानिक धर्म हो, और वैज्ञानिक सोच हो।
इसके लिए यही उचित होगा कि सरकार भारत की वैदिक संस्कृति के आध्यात्मिक चिन्तन के मोतियों की विचारमाला बनाकर बच्चों को विद्यालयों में ही पहनानी आरम्भ कर दें। देश बचाने के लिए संस्क ृति बचाना प्राथमिकता पर आना ही चाहिए।