गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-42
गीता का छठा अध्याय और विश्व समाज
भारत की ऐसी ही परम्पराओं में से एक परम्परा यह भी है कि जब किसी व्यक्ति को कोई कष्ट होता है तो दूसरा उसके विषय में यह कहता है कि यह कष्ट मुझे ऐसे ही अनुभव हुआ है जैसे कि मुझे ही हुआ हो। लोग अक्सर कहते हैं कि ‘पड़ोसी की हान-तो अपनी ही जान’…..अर्थात पड़ोसी के कष्ट को अथवा हानि को अपनी ही मानना चाहिए। भारतीय साम्यवाद सम्वेदनात्मक है, वह भाव प्रधान है और वह दूसरे की सम्वेदनाओं को सम्मानित करके स्वयं को सम्मानित हुआ अनुभव करता है, वह दूसरों की भावनाओं से खेलता नहीं है, अपितु दूसरों भावनाओं का सम्मान करता है।
पड़ोसी की हुई हान को अपनी लेता मान।
सच्चा मानव है वही खुश रहते भगवान।।
भारत के इस विशाल दृष्टिकोण का संसार लोहा मानना है। भारत को इतना विशाल हृदयी दृष्टिकोण का देश बनाने में श्रीकृष्ण जी की गीता का विशेष योगदान है। ‘पड़ोसी की हान अपनी ही जान’ की भारतीय परम्पराओं को श्रीकृष्ण जी ने गीता के छठे अध्याय में ‘आत्मौपम्य दृष्टि’ कहकर अभिव्यक्ति दी है। ‘आत्मौपम्य दृष्टि’ का अभिप्राय है कि किसी के दुख को अपना ही दुख मानना। इसके विषय में श्रीकृष्णजी कहते हैं कि जिस व्यक्ति की ‘आत्मौपम्य दृष्टि’ हो जाती है उसे परमयोगी समझा जाता है।
‘आत्मौपम्य दृष्टि’ की बात कहकर गीता ने विश्व को बहुत बड़ा संदेश दिया है। आज के विश्व की सबसे बड़ी समस्या ही ये है कि सारा विश्व समाज ही ‘आत्मौपम्य दृष्टि’ से शून्य हो गया है। सबको अपना दु:ख ही दु:ख दिखायी देता है। दूसरे के दु:ख को दु:ख मानने को लोग तैयार नहीं है। इसलिए उसकी अनुभूति भी लोगों को नही होती है। इस एक कमी ने ही सारे विश्व को कलह का आगार बना दिया है। श्रीकृष्णजी ने ‘आत्मौपम्य दृष्टि’ की बात कहकर विश्व को इस कलह की महौषधि दे दी है। इसे अपनाओ और कलहमुक्त हो जाओ। कितना सहज और सरल उपाय श्रीकृष्णजी ने वर्तमान विश्व में व्याप्त कलह और क्लेश को मिटाने के लिए दे दिया है?-संसार के लिए आवश्यक है कि वह योगेश्वर श्रीकृष्ण के द्वारा दिये गये इस उपाय को अपनाकर परमशान्ति को प्राप्त करे।
मन चंचल क्यों रहता है
मानव मन एक ऐसी चीज है जो उसे आराम से नहीं रहने देती है। इसे रोकने के लिए लाख प्रयत्न करने पर भी यह इधर उधर भागता रहता है। संकल्प और विकल्पों की डोर में फंसाकर हमारी ऊर्जा का अपव्यय कराता रहता है। इसे पकडक़र अपने वश में करना अच्छे-अच्छे योगियों के लिए सम्भव नहीं हो पाया। इसके उपरान्त भी हमारी भारतीय संस्कृति की महानता देखिये कि इसी असम्भव कार्य को सम्भव करके दिखाना उसने अपना उद्देश्य घोषित किया। मन को वश में किये बिना मोक्ष प्राप्ति सम्भव नहीं है। श्रीकृष्ण जी की गीता में भी मन की चंचलता पर प्रकाश डाला गया है।
मन की चंचलता को अर्जुन भी भली प्रकार जानता था। वह जानता था कि बिना मन को जीते किसी भी प्रकार का योग सफल नहीं हो पाएगा। इसलिए अर्जुन श्रीकृष्णजी से कहने लगता है कि आपने जो यह बुद्घियोग का उपदेश मुझे दिया है-मुझे यह बताइए कि मन की चंचलता को समाप्त किये बिना क्या यह सफल हो सकता है? अर्जुन स्वयं ही कहता है कि मन की चंचलता के बने रहने तक बुद्घियोग की सफलता प्राप्त होगी-यह मुझे संदिग्ध जान पड़ता है।
साधारण व्यक्ति के लिए तो यह भी सम्भव नहीं कि वह एकाग्रता और आसनादि साधनों को भी पूर्ण मनोयोग से अपना ले और उसमें सफलता प्राप्त कर ले। इसलिए मन की चंचलता का बड़ी सहजता से मिट जाना सम्भव नहीं है।
अर्जुन कहता है कि यह जो मन है ना कृष्ण! यह बड़ा ही चंचल है-यह व्यक्ति को मथ डालता है, इसके मथ डालने की प्रक्रिया के सामने व्यक्ति असहाय हो जाता है, निरूपाय हो जाता है। वह कुछ भी नहीं कर पाता, मन उससे चाहे जो करा लेता है। यह मन बड़ा बलवान है। इसके बल के सामने टिक पाना हर किसी के वश की बात नहीं है और सबसे बड़ी बात है कि यह मन हठीला भी बहुत है। जिसकी हठ कर लेता है-उसे प्राप्त करके ही रहता है। अर्जुन की बात का अभिप्राय है कि मन संकल्पों और विकल्पों में फंसा रहकर नकारात्मक अधिक सोचता है और हमारी ऊर्जा को विपरीत दिशा में व्यय कराने के लिए अक्सर हमसे हठ करने लगता है। जिससे इसे हटा पाना हर किसी के लिए सम्भव नहीं है। इसकी हठ के सामने अच्छे-अच्छे योगी हथियार डालते देखे गये हैं। तब एक साधारण व्यक्ति इस पर कैसे विजय प्राप्त करे?-यह प्रश्न अर्जुन के मन मस्तिष्क में कौंधने लगा है।
मन की चंचलता को उसका स्वभाव मानना गलत होगा। मन का स्वभाव विद्वानों ने स्थिरता माना। स्वभाव वह है-जिसकी निरन्तर ढूंढ़ होती रहती है। आत्मा का स्वभाव अमरता और नित्यता है, तभी तो वह अजर, अमर और नित्य परमात्मा की खोज में रहता है, उसका सान्निध्य पाने के लिए आत्मा मोक्ष की तैयारी करता है। जिससे कि उसे अपने इष्ट परमात्मदेव का सान्निध्य, सामीप्य और निकटता निरन्तर मिलती रहे। इसी के लिए व्यक्ति साधना और तप करता है। इसी प्रकार मन अपने लिए स्थिरता ढूंढता है। उसकी इस ढूंढ़ को या खोज को लोग उसकी चंचलता से जोडक़र उसका स्वभाव मान लेते हैं। जो कि गलत है। जब योगी मन के वास्तविक स्वरूप को ढूंढ़ लेता है या जान लेता है तो वह मन की चंचलता को मिटाने का उपाय खोज लेता है। वह समझ जाता है कि चंचलता स्वयं ही चंचल है-जो चंचल होने के कारण अब तो है पर कुछ समय पश्चात स्वयं ही नहीं रहेगी। मन को विजय करने का यह एक रहस्य है। जिसे योगीजन समझते हैं और वे बड़ी सहजता से इस दुस्साध्य और अपराजित से दीखने वाले मन को जीत लेते हैं। योगीजनों की ऐसी जीत विश्व की सबसे बड़ी जीत होती है, इस जीत पर उनके अन्तर्जगत में जो उत्सव मनाया जाता है-उसका आनन्द केवल वही लेते हैं। उस आनन्द के सामने संसार की सभी जीतों के आनन्द बहुत ही तुच्छ और छोटे होते हैं। संसार के जितने बड़े-बड़े सम्राट, राजा-महाराजा, विश्व विजेता, तानाशाह, या बादशाह हुए हैं, उन सब की जीत इस जीत के सामने कुछ भी नहीं होती। इस जीत को प्राप्त करने वाले योगीजनों के लिए असम्भव सम्भव हो जाता है। इसे ही इन योगियों द्वारा की गयी ‘आत्मविजय’ कहा जाता है।
अर्जुन ने अपनी बात रख ली तो श्रीकृष्णजी ने अपनी बात को कहना आरम्भ किया। वह कहते हैं कि हे कौन्तेय! मन का निग्रह करना निस्संदेह बहुत ही कठिन है, इसका कारण बताते हुए श्रीकृष्णजी स्पष्ट कर रहे हैं कि यह जो मन नाम का तत्व हमारे भीतर विराजमान है-यह बहुत ही चंचल है। इसे जीत पाना या अपने वश में करना निश्चय ही हर किसी के लिए सम्भव नहीं है। परन्तु ऐसा भी नहीं है कि यह कार्य नितान्त असम्भव ही है। ऐसा कहकर श्रीकृष्णजी मन को जीतने की सम्भावनाओं को हमारे लिए खुला छोड़ देते हैं, और एक ऐसे रणक्षेत्र में ले जाकर हमें खड़ा कर देते हैं जहां आत्मविजयी बनने की कामना लिये अनेकों योद्घा मैदान में खड़े हों। गीता का यह बहुत बड़ा सन्देश है। इसे समझने की आवश्यकता है कि श्रीकृष्णजी कहना क्या चाहते हैं? और उनकी बात का आशय क्या है?
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत