गतांक से आगे …
ऋषि देवता और छन्दादि तथा सूक्त, अध्याय और मण्डल आदि की आलोचना के बाद अब वेदों के अर्थो की – भावो की बात सामने आती है। क्योंकि अर्थो अर्थात् भाष्यों के ही द्वारा जाना जाता है कि वेदों में किन विषयों का वर्णन है। परन्तु अव तक जितने वेदों के भाष्य हुए हैं, उन सब में मतभेद है, इसलिए किसी एक भाष्य को प्रामाणिक और दूसरे को अप्रामाणिक नहीं कहा जा सकता।हो, प्राचीन शैली-आर्य शैली और वैदिक शैली के अनुसार इतना अवश्य कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण वेदों का भाष्य करना उचित नहीं है। पुराकाल में कभी चारों वेदों का सम्पूर्ण भाष्य नहीं किया गया था। इसका कारण यह नहीं है कि लोगों को भाष्य करना नहीं आता था अथवा सब लोग वेदों के ज्ञाता ही थे, इसलिए भाष्य करने की आवश्यक नहीं समझते थे। प्रत्युत भाष्य न करने का कारण यह था कि वे ज्ञानभण्डार वेद के ज्ञान की इयत्ता एक ही मस्तिष्क द्वारा निर्धारित करना वेद का अपमान समझते थे। जिस प्रकार वेद के स्वरूप की इयत्ता निर्धारित है, उसी प्रकार वेद के ज्ञान की इयत्ता निर्धारित नहीं है। यह ठीक भी है। मनुष्य के सिर की इसत्ता हो सकती है कि वह कितना लम्बा चौड़ा है, पर उसके अन्दर जो विचारात है, उसकी लम्बाई चौड़ाई की सत्ता निर्धारित नहीं हो सकती। यही हाल वेदों का भी है। इसीलिए अगले जमाने में वेदों का सम्पूर्ण भाष्य नहीं किया गया किन्तु पठनपाठन के लिए अर्थ करने की परिपाटी बताने के लिए और मन्त्रों में श्रम करने के लिए निरुक्त जैसे ग्रन्थ बना लिए गये थे अथवा ब्राह्मणग्रन्थों में पाये हुए वेदार्थसूचक प्रकरणों की भांति छोटे छोटे पुस्तक रच लिए गये थे, जिनके द्वारा वेदार्थ का ज्ञान और भाष्य को शैली ज्ञात रहती थी।
वेदभाष्य करने का सबसे प्रथम आरम्भ रावण ने किया। उसे वेदों का अर्थ और भाव पलटना था, इसलिए उसे ऐसा करना पड़ा। तभी वे भाष्य करने का रिवाज हो गया। सायणाचार्य, उवट, महीधर और स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा यूरोप के अनेक विद्वानों ने वेदों का भाष्य कर डाला है किन्तु वेद का पठनपाठन करनेवालों को अब -तक इन भाष्यों से तसल्ली नहीं हुई – अब भी इस समय भी अनेकों भाष्य हो रहे हैं और आगे भी होंगे, किंतु कभी भी संतोष न होगा। इसका कारण यही है कि वेदों के ज्ञान की इयत्ता नहीं हो सकती। वेदों में अनेक प्रकार का ज्ञान है। उस ज्ञान की अनेकों छोटी बड़ी शालाएँ है और उन शाखायों में अनेक भाव है, इसलिए एक या दो आदमी समग्र वेद के ज्ञानसमुद्र को बाहर नहीं ला सकते। पुराने जमाने में तो एकएक दो दो अथवा दसबीस मंत्रों का अर्थ विचार करने ही में बड़े बड़े मत्रद्रष्टा ऋषि अपनी जिन्दगी बिता देते थे। अभी हम जिन ऋषियों और देवताओं का वर्णन कर आये हैं, उस वर्णन से स्पष्ट हो गया है कि एक एक सुक्त का ही उत्कृष्ट भाग निकालने में ऋषियों का नाम उक्त सूक्तों के ही नाम से रख दिया गया था, जो अबतक कायम है और अमर है। ऐसी दशा में एक दो व्यक्तियों का किया हुआ संपूर्ण वेदभाष्य कैसे पूर्ण समझा जा सकता है? और कैसे वह सर्वमान्य हो सकता है ? अगले समयों में लोग मनोयोग के द्वारा मंत्रार्थ का विचार करते थे। योगशास्त्र में लिखा है कि ‘स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोग अर्थात् स्वाध्याय से इष्ट देवता का संप्रयोग होता है। वेदों के पठनपाठन का ही नाम स्वाध्याय है और वेद के विषयों की ही देवता कहते हैं अमुख देवतावाले मंत्रों का दीर्घकाल तक स्वाध्याय-विचार करने से ही उनका अच्छी तरह प्रयोग हो सकता है। कहने का मतलब यह कि यथार्थ वेदार्थ करना- भाष्य करना – सरल नहीं है और न वह एक दो आदमी से हो सकता है ।
वेद ईश्वरीय ज्ञान है। ईश्वरीय ज्ञान मनुष्यों को शिक्षा देने के लिए है। वेदों की सभी शिक्षा उपयोगी है। इसलिए वेदों का थोड़ा या चाहे तो अंश लेकर और उसका सरलार्थ करके लोगों में प्रचार किया जा सकता है। परन्तु स्मरण रखना चाहिये कि वह अर्थ चार परीक्षाओं से परीक्षित हो । क्योंकि वेदार्थ को चारों परीक्षाएं बड़े-बड़े प्राचीन वेदज्ञ ऋषिमुनियों की स्थापित की हुई हैं। सबसे पहिली परीक्षा यह है कि वेद का जो अर्थ किया जाए, वह यज्ञ में कहीं न कहीं काम देता हो । क्योंकि ऋग्वेद में खुद ही लिखा हुआ है कि ‘यज्ञेन याचा पदवीयमाय’ अर्थात् समस्त वेदवाणी यज्ञ के द्वारा ही स्थान पाती है। दूसरी परीक्षा यह है कि वह बुद्धि के विपरीत न हो, किन्तु बुद्धि के अनुकूल हो। क्योंकि कणादमुनि वैशेषिक दर्शन में कहते हैं कि ‘बुद्धिपूर्वा वाक् प्रकृतिवदे’ अर्थात् वेदबाणों को प्रकृति बुद्धिपूर्वक है। तीसरी परीक्षा यह है कि वह वेदार्थ तर्क से सिद्ध किया गया हो। क्योंकि निरुक्तकार कहते हैं कि मनुष्यों के प्रश्न करनेपर देवताओं ने कहा कि तर्क ही ऋषि है, अतः जो तर्क से गवेषणा करके अर्थ निश्चित करेगा, यही वेदार्थ का ऋषि होगा + चौथी परीक्षा यह है कि वह अर्थ धातुज हो, अर्थात् वह अर्थ प्रत्येक शब्द को धातु से निष्पन्न होता हो। क्योंकि पतञ्जलिमुनि महाभाष्य में कहते हैं कि नाम व धातुजपाह निरुक्त, अर्थात् निरुक्तकार धातुज ही अर्थ ग्रहण करते हैं। इन चारों परीक्षाओं में सायणाचार्य ने प्रायः याज्ञिक पर्व का अनुकरण किया है और स्वामी दयानन्द सरस्वती ने बुद्धि, तर्क और धातुज अर्थ का ध्यान रक्खा
क्रमशः