दीपावली के अवसर पर महर्षि दयानंद को निर्वाण मिला था। अत: इस पावन पर्व पर महर्षि दयानंद का स्मरण हो आना स्वाभाविक है। उनका भारतीय स्वातन्त्र्य संग्राम में अनुपम और अद्वितीय योगदान था। भारत में राष्ट्रवाद की अलख जगाने वाले महर्षि दयानंद के विषय में ‘भारतीय स्वातन्त्र्य संग्राम में आर्यसमाज का योगदान’ के विद्वान लेखक आचार्य सत्यप्रिय शास्त्री अपनी इस पुस्तक के पृष्ठ संख्या 46-47 पर बड़ी महत्वपूर्ण जानकारी देते हुए लिखते हैं-”जब महाराज (स्वामी दयानन्द जी महाराज) चित्तौड़ में थे, और अंग्रेज गवर्नर जनरल भी चित्तौड़ आये हुए थे, (यह 1882 की घटना है) गवर्नर जनरल ने महाराजा सज्जनसिंह से कहा कि चित्तौड़ का किला आप सरकार को दे दें, इस पर महाराणा तो चुप रहे, परन्तु जब स्वामी (दयानन्द) जी को इस बात का पता लगा तो उन्होंने उदयपुर के सरदारों को जो वहां इकट्ठे हुए थे, बुलाकर समझाया कि बारी-बारी जाकर वे गवर्नर से मिलें, और कहें कि चित्तौड़ काकिला केवल महाराणा का ही नहीं है, इसपर राजपूतों का हक है, और सबकी सम्मति के बिना महाराणा को कोई हक नहीं है कि इसके विषय में कोई बातचीत करे, तब गवर्नर जनरलसमझ गया है कि यह हमारी मांग को नहीं मानेंगे, तो उन्होंने कहा कि मैंने वैसे भी महाराजा साहब से जिकर किया था, हमने किला लेकर क्या करना है?”
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महर्षि दयानन्द के जीवन की दो महत्वपूर्ण घटनाएं
(सन्दर्भ : ‘पूर्ण पुरूष का विचित्र जीवनचरित्र’ पृष्ठ 152, लेखक श्री कुन्दलाल आर्य)
इस प्रकार महर्षि दयानन्द की कूटनीति ने चित्तौडग़ढ़ को अंग्रेजों के पास जाने से रोक लिया। यह महर्षि दयानन्द की बहुत बड़ी सफलता थी। क्योंकि यह वही किला था जिसे लेने के लिए सैकड़ों वर्ष तक विदेशी शक्तियों संघर्ष करती रही थीं, और जो भारत के स्वाभिमान और सम्मान का प्रतीक बन चुका था।
बात 1877 की है। उन दिनों दिल्ली में दरबार की तैयारियां हो रही थीं, तब महाराजा इंदौर ने उस समय के भारतवर्ष के 700 राजाओं के समक्ष राजधर्म विषय पर महर्षि दयानंद का ओजस्वी भाषण कराने का प्रस्ताव रखा था। महाराजा इंदौर के इस प्रस्ताव के समर्थन में बड़ी संख्या में राजाओं ने अपनी सहमति व्यक्त की थी। महाराजश्री को भी दिल्ली में उपस्थित रहने के लिए कह दिया गया था। परंतु जब अंग्रेजों को इस बात की जानकारी हुई कि भारत के राजाओं का विचार महर्षि दयानंद का भाषण सभी राजाओं के समक्ष कराने का है, तो उन्होंने महाराजा इंदौर के सारी योजना की हवा निकाल दी। इस घटना से महर्षि दयानंद स्वयं भी बड़े आहत हुए थे।
कलकत्ता के राजा ज्योतिन्द्र मोहन टेगौर के यहां महर्षि दयानंद दिसंबर 1872 से मार्च 1873 तक रूके थे। यहीं पर महर्षि दयानंद से तत्कालीन वायसराय लार्ड नार्थ ब्रुक आकर मिला था। जिसने महर्षि दयानंद से विनम्र अनुरोध किया था कि वह अपने प्रवचनों में अंग्रेजी राज के भारत में स्थायित्व के विषय में भी कुछ बोल दिया करें। इस पर महर्षि दयानंद ने नार्थ ब्रुक को स्पष्ट जवाब दिया था कि वह अपनी प्रार्थना में नित्यप्रति अंग्रेजी राज को भारत से समाप्त करने की प्रार्थना ईश्वर से करते हैं। इस पर नार्थ ब्रुक ने इंडिया हाउस के लिए लिखा था कि इस फकीर पर विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है। इस प्रकार महर्षि दयानंद अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी बन गये थे। फिर उनसे 1877 में राजाओं को संबोधित कराने की अपेक्षा अंग्रेजों से कैसे की जा सकती थी?