गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-46
गीता का सातवां अध्याय और विश्व समाज
महर्षि पतंजलि ‘योग दर्शन’ में कहते हैं कि संसार और शरीर आदि के अनित्य पदार्थों को नित्य, मिथ्या-भाषण, चोरी आदि अपवित्र कर्मों को पवित्र, विषय सेवन आदि दु:ख को सुख रूप, शरीर और भौतिक जड़ पदार्थों को चेतन समझना यह अविद्या है।
अनित्य को नित्य मानकर करै जो व्यवहार।
अविद्याग्रस्त कहकर उसे छोड़ देय संसार।।
इसके विपरीत अनित्य को अनित्य, नित्य को नित्य, अपवित्र को अपवित्र और पवित्र को पवित्र, दु:ख को दु:ख और सुख को सुख, जड़ को जड़ और चेतन को चेतन समझना ही विद्या है।
श्रीकृष्ण जी की गीता इसी सत्य को प्रकट कर रही है, या कहिये कि वैदिक संस्कृति के इसी सत्य को स्थापित कर रही है। श्रीकृष्ण जी किसी प्रकार के पाखण्ड और अविद्या अन्धकार को बढ़ाने वाले धार्मिक आडम्बरों को बढ़ावा देने के पक्षधर नहीं हैं। वह विद्या को विद्या और अविद्या को अविद्या मानने के पक्षधर हैं। हमें श्रीकृष्णजी के वैज्ञानिक स्वरूप को और उनकी वैज्ञानिक चिन्तनधारा को समझना चाहिए। जिन लोगों ने श्रीकृष्णजी के नाम पर अनित्य को नित्य, नित्य को अनित्य, अपवित्र को पवित्र और पवित्र को अपवित्र मानने की भूल की है-उन्होंने हमारी संस्कृति के इस आप्तपुरूष को सही ढंग से समझा नहीं है, या समझकर भी अपने निजी स्वार्थों को देखते हुए ना समझने का नाटक किया है। इससे देश का और संसार के लोगों का भारी अहित हुआ है।
संसार के उन लोगों को संभलना चाहिए, जिन्होंने धार्मिक आडम्बरों को और पाखण्डों को श्रीकृष्णजी के नाम पर फैलाने का वेद विरूद्घ और निन्दनीय कृत्य किया है। हमारे योगीराज को योगीराज ही रहने चाहिए। उन्हें ‘भोगीराज’ बनाना सम्पूर्ण देश के साथ और मानवता के साथ किया गया सबसे बड़ा छल है। विज्ञान के इस युग मंव हमें अपने इस महान वैज्ञानिक आप्तपुरूष के साथ विज्ञानसम्मत न्याय करना चाहिए।
गीता में श्रीकृष्ण जी अर्जुन को बता रहे हैं कि अर्जुन जलों में ‘मैं’ रस हूँ, चन्द्रमा तथा सूर्य की प्रभा ‘मैं’ हूँ, सब वेदों में ओंकार ‘मैं’ हूँ। आकाश में शब्द ‘मैं’ हूँ, पुरूषों में पौरूष ‘मैं’ हूँ। पृथ्वी में सुगन्ध ‘मैं’ हूँ, अग्नि में तेज ‘मैं’ हूँ, सब प्राणियों में जीवन ‘मैं’ हूँ, तपस्वियों में तप ‘मैं’ हूँ। सब वस्तुओं का सनातनी बीज ‘मैं’ हूँ। बुद्घिमानों की बुद्घि ‘मैं’ हूँ, और तेजस्वियों का तेज ‘मैं’ हूँ। बलवानों का काम और राग से रहित बल ‘मैं’ हूँ। अन्त में वह कहते हैं कि ‘मैं’ सब प्राणियों में धर्म के विरूद्घ न रहने वाली लालसा हूँ।
यहां पर श्रीकृष्णजी ईश्वर के अन्तर्यामी और सर्वव्यापक स्वरूप का वर्णन कर रहे हैं। जलों का प्राण उनका रस है, इसी प्रकार सूर्य और चन्द्रमा की प्रभा उनका प्राण है। इसी प्रकार अन्य के विषय में समझना चाहिए। यदि जलों में से रस और सूर्य व चन्द्रमा से उनकी प्रभा छीन ली जाये तो वे निष्प्राण हो जाते हैं। वैसे ही यदि वह ईश्वर जो इन सबमें कहीं रस तो कहीं प्रभा आदि बनकर छिपा है, बैठा है-इससे छीन लिया जाए तो ये सब व्यर्थ हो जाएंगे। इनका कोई मूल्य नहीं रहेगा। ये अस्तित्वविहीन हो जाएंगे। बिलकुल वैसे ही जैसे यह शरीर बिना आत्मा के हो जाता है। शरीर में आत्मा रथी है और जब यह रथी नहीं रहता तो यह शरीर अ-रथी अर्थात अर्थी हो जाता है। अत: श्रीकृष्णजी जलों में रस और सूर्य चन्द्रमादि में उनकी प्रभा कहकर ईश्वर के स्वरूप का पता दे रहे हैं। उसके सर्वव्यापी और अन्तर्यामी होने की बात कह रहे हैं। श्रीकृष्णजी के ऐसा कहने के यौगिक और वास्तविक अर्थ को समझने की आवश्यकता है। ‘काम और राग’ से रहित बल ही वास्तविक बल होता है। ‘काम और राग’ से युक्त बल तो विनाशकारी होता है। जिसे आज का संसार अपना रहा है और अपने आप ही मरने के काम कर रहा है। श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि ‘काम और राग’ से रहित बल ही वास्तविक बल है। ‘काम और राग’ को बढ़ाने वाला बल पल-पल की मृत्यु का कारण बनता है।
श्रीकृष्ण जी अपने आपके विषय में कह रहे हैं कि मैं धर्म के विरूद्घ न रहने वाली सब प्राणियों की लालसा हूं। इसका अभिप्राय है कि परमपिता परमेश्वर धर्मविरोधी लालसा में नहीं रहते, अर्थात ऐसे व्यक्ति को परमपिता परमात्मा का साथ या सहयोग नहीं मिलता जो धर्म विरोधी कार्य करने की लालसा करता है। जो धर्मसंगत कार्य करता है उसी को परमपिता परमेश्वर का सान्निध्य और सामीप्य प्राप्त होता है।
प्रकृति के तीन गुण हैं-सत, रज और तम। इन्हीं तीनों गुणों से मानव शरीर की रचना होती है। किसी में सात्विकता की प्रधानता होती है तो उसकी प्रकृति को सात्विक प्रकृति कहा जाता है तो जिसकी प्रकृति में राजसिक भाव अधिक होता है उसकी प्रकृति राजसिक कही जाती है और जिसकी प्रकृति में तामसिकता का भाव अधिक होता है-उसे तामसिक प्रकृति वाला कहा जाता है। श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि ये तीनों प्रकृतियां मुझमें हैं, मैं उनमें नहीं हूँ। ये तीनों प्रकृतियां ईश्वर के आश्रय से हैं, ईश्वर इनके आसरे नहीं हैं।
मोह के विषय में गीता के विचार
मोह मानव मन का एक सद्गुण तब तक माना जा सकता है जब तक यह अपनी सीमाओं में रहता है। सीमा से बाहर जाते ही यह हमारे लिए घातक बन जाता है। मां की ममता यदि किसी को न मिले या मां ऐसी हो जिसके भीतर ममता का भाव न हो, तो यह संसार नहीं चलेगा। इस प्रकार ईश्वर ने काम, क्रोधादि की एक निश्चित सीमा रेखा खींची है, जहां तक यह हमारे लिए आवश्यक होते हैं। पश्चिमी देशों में कामवासना और मौजमस्ती के सामने ममता की भेंट चढ़ा दी गयी है। फलस्वरूप कई देशों में महिलाएं मां बनना नहीं चाह रही हैं। जिससे वहां जनसंख्या सन्तुलन बनाये रखना कठिन होता जा रहा है।
चाणक्य कहते हैं कि खूब सन्तप्त गर्म लोहे पर पड़ी हुई जल की बूंद का नाम भी दिखायी नहीं देता। वही जल की बूंद कमलदल पर पड़ी हुई मोती के आकार में शोभायमान होती है। वही बूंद यदि स्वाति नक्षत्र में होकर सागर के सीप की सम्पुट में गिर जाए तो मोती बन जाती है। प्राय: करके अधम, मध्यम और उत्तम गुण संसर्ग से ही आते हैं।
कहने का अभिप्राय है कि कामवासना के गर्म लोहे पर ‘ममता’ उसी बूंद की भांति मिट गयी जो गर्म लोहे पर डाली गयी थी। परन्तु यदि काम वासना को मर्यादित रखा जाता और संसारचक्र को चलाये रखने के लिए संतानोत्पत्ति की जाती तो परिणाम वही आते जो एक बूंद को कमल दल पर डालने से आते हैं। इससे भी उत्तम अवस्था वह होती है-जब मोह और ममता मर्यादित होते हैं और वे किसी का अहित न करके सर्वकल्याण के भाव से ओत-प्रोत होते हैं।
श्रीकृष्णजी माया मोह में भटके संसारी जनों की मन:स्थिति को पहचानते हैं। वह ये भली प्रकार जानते हैं कि संसारीजन प्रकृति के इन तीन गुणों (सत, रज और तम) में भटककर रास्ता भूल जाते हैं और ईश्वर को नहीं पहचान पाते। वे इन तीन गुणों को ही अर्थात मायारूपी प्रकृति को ही सब कुछ समझ लेते हैं। उन्हें नहीं पता होता कि इस माया से परे ईश्वर है, जो कि अविनाशी है।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत