गीता का सातवां अध्याय और विश्व समाज
आज के संसार में प्रकृतिवादी लोग ऐसी ही मानसिकता और सोच रखते हैं। प्रकृतिवादी नास्तिक बन गये हैं। उन्हें प्रकृति से आगे ईश्वर के होने की बात स्वीकार ही नहीं है। वे मानते हैं कि ये प्रकृति ही सब कुछ है और यह स्वयं यन्त्रवत चल रही है। इसके पीछे किसी प्रकृत्र्ता (ईश्वर) का कोई सहयोग या योगदान नहीं है। यही कारण है कि संसार में नास्तिकवाद बढ़ रहा है। जो प्रकृतिवादी हैं उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है। उनकी दृष्टि में प्रकृति अपने आप में पूर्ण है और यह सम्पूर्ण चराचर जगत इस प्रकृति के कारण ही गतिमान है।
भारत की संस्कृति की यह विशेषता है कि वह प्रकृति और प्रकृत्र्ता दोनों की उपासिका है। इसलिए भारत की संस्कृति शुद्घ और वैज्ञानिक आस्तिकवाद पर टिकी है। इसी आस्तिकवाद की ओर मानव मन को मोडऩे की प्रेरणा देते हुए श्री कृष्णजी गीता में प्रकृति से परे ईश्वर को भी मानने की बात कह रहे हैं। वह मानव समाज को सचेत कर रहे हैं कि माया-मोह के आवरण को तोडक़र इससे परे देखने का भी अभ्यास करना चाहिए। श्रीकृष्णजी कहते हैं कि इस त्रिगुणात्मक माया का पार पाना बड़ा कठिन है। इससे वे संसार के साधारण लोगों की उस मानसिकता की ओर संकेत कर रहे हैं-जिसके आधीन होकर वे लोग भटकाव का शिकार बन जाते हैं। उनकी कोई स्थिर गति न होने के कारण कोई गति भी नहीं हो पाती। मति में स्थिरता होने से ही गति की स्थिरता प्राप्त होती है। गति की स्थिरता का अभिप्राय सदगति से है। सदगति में मर्यादा होती है, उन्नति और उत्थान होता है, इसलिए उसे स्थिरता देने वाली गति कहा जा सकता है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि जो लोग इस प्रकार के सांसारिक भटकाव को छोडक़र केवल ईश्वर की शरण में आ जाते हैं-वे इस माया का पार पा जाते हैं, अर्थात इसे जीत लेते हैं। जो लोग सांसारिक मायामोह में और संसार के सम्बन्धों में रस खोजते हैं, या आनन्द प्राप्ति की इच्छा रखते हैं, उन्हें इनसे कोई आनन्द रस नहीं मिलता, उल्टा दु:ख ही मिलता है। उनकी स्थिति वैसी ही हो जाती है जैसे एक मक्खी की स्थिति शहद में पडक़र हो जाती है। वह मक्खी शहद पीने के लिए उसमें उतरती है, परन्तु उसके पंख शहद में भीगते ही उसे उडऩे योग्य नहीं रहने देते। फिर वह उसी शहद में डूबकर मरने के लिए अभिशप्त हो जाती है। यही स्थिति पूर्ण सांसारिक लोगों की होती है जो मायामोह और विषय वासना के शहद में डूबकर अपने पंखों को उसमें लिपटा देते हैं।
आनन्द की प्राप्ति के लिए प्रकृति के मायाजाल से अर्थात इस दृश्यमान जगत के दृश्यों से स्वयं को दूर हटाना पड़ता है। हमें, वृक्ष, वनस्पति, पशु, पक्षी आदि का जो मायारूप दीख रहा है, यह केवल इनके होने की प्रतीति है। वास्तव में ये क्षणभंगुर हंै, नाशवान हैं। एक दिन निश्चय ही नाश को प्राप्त होते हैं और यह सत्य है कि जो स्वयं नाशवान है, क्षणभंगुर है-वह आनन्द का स्रोत नहीं बन सकता। वह आनन्द को मिटा तो सकता है, पर आनन्द का स्रोत नहीं बन सकता। आनन्द का स्रोत तो वही बन सकता है जो स्वयं अनश्वर है, अमर और अजर है, अमृतमय है, जो कभी नहीं सूखता-जिसमें सदा आनन्दरस बना रहता है। उसके आनन्द के सामने संसार के सभी रस फीके लगते हैं। जिसे उस आनन्दरस को पीने का चस्का लग जाता है-उसका जीवन सफल हो जाता है। उस अक्षय स्रोत का नाम ही परमात्मा है। उसी परमात्मा के लिए श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि जो उसकी शरण में चला जाता है, वह इस माया रूपी नदी को पार कर जाता है।
आनन्दरस में तृप्त हो करते हों जो ध्यान।
मायारूपी जगत को लेते हैं पहचान।।
सातवें अध्याय में ही श्रीकृष्णजी यह भी स्पष्ट कर रहे हैं कि जो लोग माया के वशीभूत हो गये हैं और माया ने जिनकी बुद्घि हर ली है, ऐसे आसुरी प्रवृत्ति के लोग नराधम होते हैं, वे कभी भी ईश्वर की शरण में नहीं जा सकते।
कहने का भाव है कि जिनके मन-मस्तिष्क में और बुद्घि में मायावाद ठसाठस भर गया हो, जिन्हें माया के भौतिकवाद से बाहर निकलकर अपने प्रियतम प्यारे प्रभु से मिलने का क्षणभर का भी समय न हो, ऐसे लोग आसुरी प्रवृत्ति के होते हैं। उनका बौद्घिक चिन्तन अत्यन्त निम्न स्तर का होता है और लोग उन्हें नराधम की श्रेणी में रखते हैं। ऐसे नराधम लोगों को परमपिता परमात्मा की शरण कभी भी उपलब्ध नहीं हो पाती। परमपिता परमात्मा की सहायता के बिना अच्छे-अच्छे विद्वान भी विजय प्राप्त नहीं कर पाते। यही कारण है कि सुजन सदा ही ईश्वर की सहायता प्राप्ति की कामना करते रहते हैं, और वे अपनी प्रत्येक सफलता को ईश्वर को समर्पित करते हुए चलते हैं। वे जितने भी काम करते हैं उन सबको अपने प्यारे प्रभु के श्रीचरणों में चढ़ा देते हैं और उससे यही प्रार्थना करते हैं कि मेरी बुद्घि को सन्मार्गगामिनी बनाओ।
युद्घभूमि में लड़ते हुए शूरवीर भी उसी प्यारे प्रभु की प्राप्ति की इच्छा करते हैं और उसी के आशीर्वाद एवं कृपा को पाने की कामना करते हैं। जिनके चिन्तन में ईश्वर और उनकी कृपा की झलक नहीं होती-वास्तव में वे लोग छोटे होते हैं। इन छोटे लोगों से चाहकर भी बड़े काम नहीं हो पाते। बड़े काम वही लोग कर पाते हैं जो ईश्वर भक्त होते हैं। गीता इन्हीं बड़े लोगों को ईश्वर की कृपा का पात्र घोषित करती है। क्योंकि ये बड़े लोग माया से अपने आपको बाहर निकाल लेते हैं। ये भूसुर की श्र्रेणी के लोग होते हैं, उनकी उपस्थिति से यह भूमि अपने आपको धन्य मानती है। इन्हीं को भूमिपुत्र कहा जाता है। पुत्र वह होता है जो नरक से निकाले (पु=नरक, और त्र=त्राण करे, निकाले) धरती को अपनी आसुरी प्रवृत्तियों से नरक बनाने वालों से ईश्वर भक्त लोग मुक्त करते हैं। इसीलिए वह भूमिपुत्र कहलाते हैं।
रहीमदास जी कहते हैं :-
रहिमन छोटे नरनसों होत बड़ो नहीं काम।
मढ़ो दमामो ना बने सौ चूहे के चाम।।
गीता में भक्तों के चार प्रकार
श्रीकृष्णजी ने गीता में ईश्वर भक्तों के प्रकार भी गिनाये हैं। कृष्णजी ईश्वर भक्तों को चार प्रकार के मानते हैं। इन्हीं चार प्रकार के लोगों को वह सकुर्मी कहते हैं और बताते हैं कि ये चार प्रकार के सुकर्मी ही मेरी भक्ति करते हैं, अर्थात ईश्वर की भक्ति करते पाये जाते हैं। इन्हें स्पष्ट करते हुए वह बताते हैं कि ये आत्र्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी के रूप में जाने जाते हैं।
श्रीकृष्णजी ने जिन चार प्रकार के लोगों को भक्त की श्रेणी का माना है उनमें सबसे पहला भक्त आत्र्त कहा है। यह आत्र्त नाम के भक्त ऐसे लोग होते हैं जिन्हें कोई न कोई मानसिक क्लेश चुपचाप दु:खी करता रहता है। जिसे वह संसार के लोगों से तो सांझा नहीं कर सकता, परन्तु अपने भगवान से अवश्य सांझा कर लेता है। वह जब अपने भजन या भक्ति के माध्यम से अपने भगवान से वात्र्तालाप करता है तो उसकी प्रार्थना में अपनी मन की पीड़ा को भी वह व्यक्त करता है और उसे दूर करने की करूण पुकार ईश्वर से करता है। यह आत्र्त नाम का भक्त अपने लाभ के लिए भजन करता है। संसार मेें ऐसे अनेकों लोग हैं, जो इसी भाव के साथ भगवान की भक्ति करते हैं। इनकी भक्ति अपने लाभ के लिए होकर भी किसी दूसरे को कष्ट पहुंचाने वाली हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत