गीता का सातवां अध्याय और विश्व समाज
ज्ञान-विज्ञान और ईश्वर का ध्यान
आत्र्त-जिज्ञासु भजें अर्थार्थी दिन रात।
युक्तात्मा ज्ञानी भजै उसकी अनोखी बात।।
श्रीकृष्ण दूसरे प्रकार के भक्त का नाम जिज्ञासु बताते हैं। जिज्ञासु का अर्थ है-जानने की इच्छा रखने वाला। यह भक्त अपना ज्ञानवद्र्घन करने के लिए मेधा की उपासना करता है। वह ईश्वर से बुद्घि मागता है, उसके उसी स्वरूप का ध्यान करता है-जिससे उसे मेधा लाभ मिले। ऐसा भक्त बुद्घि लाभ से लोकल्याण कर सकता है। अच्छे लोगों की बौद्घिक सम्पदा लोककल्याण के काम आती है, वह अपनी बौद्घिक सम्पदा को लोककल्याण के लिए ही बढ़ाते भी हैं। ऐसे भक्तों की अपनी कोई भी ऐसी योजना हो सकती है-जिससे लोककल्याण हो सकता है। यह भक्त आर्त नामक भक्त से उत्तम होता है। ऐसे भक्त एकान्त में रहकर लोककल्याण के लिए ईश्वर का ध्यान करते हैं और उससे शक्ति प्राप्त कर अपनी सारी ऊर्जा को जनता की भलाई में लगाते हैं। उन्हें एकान्त में भी संसार के लोगों के दु:ख दर्द दिखायी देते रहते हैं, जिनके उद्घार के लिए वह अपने आपको सहर्ष समर्पित कर देते हैं।
इसके पश्चात आता है-अर्थार्थी भक्त। यह भक्त केवल धन के लिए भगवान का भजन करता है। यह व्यापारी होता है और प्रत्येक कार्य में सौदाबाजी करता है, अपना लाभ देखता है। इसकी भक्ति में भी व्यापार होता है। उस व्यापार के बिना यह आगे बढ़ नहीं पाता।
आजकल के संसार में इसी प्रकार के व्यापारी भक्तों की संख्या अधिक है। ये अपने कथित भगवान पर चवन्नी चढ़ाते हैं और उससे हजारों लाखों की मांग करते हैं। इनका भक्ति में भी व्यापार चलता है। यद्यपि ये व्यापारी होते हैं और भक्ति में भी व्यापार करने के कारण निकृष्ट भी होते हैं, परन्तु इसके उपरान्त भी जघन्य अपराध करने वालों से तो उत्तम ही होते हैं। अपने भगवान से ये केवल अर्थ मांगते हैं-किसी की हत्या का प्रमाण पत्र नहीं मांगते। इसलिए इन्हें भी निकृष्ट श्रेणी का भक्त मानना भूल होगी।
अन्तिम और चौथा भक्त ज्ञानी होता है। इसके लिए श्रीकृष्णजी कहते हैं कि यह ज्ञानी नाम का भक्त सदा ब्रह्म के साथ युक्त रहता है जो एक प्रकार की भक्ति है। यह अनन्य भक्ति वाला होता है, सबसे विशिष्ट और सबसे श्रेष्ठ होता है। ऐसे ही भक्तों पर ईश्वर की कृपा होती है (मैं इस प्रकार के ज्ञानी भक्त को अत्यन्त प्रिय हूं और वह मुझे अति प्रिय है)।
अनन्य भक्ति जो करै मिलै ब्रह्म के साथ।
परमपिता कृपा करें पकड़ लेत हैं हाथ।।
ऐसा भक्त जानता है कि वह अजन्मा परमेश्वर इस सम्पूर्ण भूमण्डल और अन्तरिक्षादि को धारण किये हुए है। यह सारा तामझाम उसी के दिशा निर्देशन में गति कर रहा है। उसकी महानता को ऐसा भक्त जितना समझता जाता है, जानता जाता है, उतना ही उसके सामने वह मौन होता जाता है और अन्त में उस प्रजापति के समक्ष उसकी वाणी भी मौन हो जाती है। कुछ मांगे भी नहंी बनता। कृष्ण जी कहते हैं कि ऐसे ज्ञानी को मैं अपना आत्मा ही मानता हूं। क्योंकि वह अपनी आत्मा को मेरे साथ युक्त कर देता है, जिससे उसकी अति उत्तम गति होती है। ऐसा भक्त समझ जाता है कि जो कुछ है वह वासुदेव ही है। वासुदेव ईश्वर का ही एक नाम है। वासुदेव का अर्थ है-जो सब प्राणियों में वास करता है। इसलिए यहां पर वासुदेव का सही अर्थ समझना ही अपेक्षित है।
दूसरे देवताओं के उपासक लोग
गीता एकेश्वरवाद की समर्थक है। यही वेद का मत है। गीताकार हर व्यक्ति से अपेक्षा करता है कि वह इस जगत के आधारभूत सत्य परमपिता परमात्मा की भक्ति में लीन रहे, उसे ही अपना इष्ट बनाये। जो लोग उस एक ईश्वर को छोडक़र इधर-उधर भिन्न-भिन्न देवताओं की भक्ति में लगे रहते हैं, श्रीकृष्णजी सातवें अध्याय में ऐसे लोगों के विषय में कहते हैं कि उनका ज्ञान हरा जा चुका है। ऐसे लोग भिन्न-भिन्न कामनाओं के वशीभूत होकर भिन्न-भिन्न नियमों-पूजापाठों का आश्रय लेते हैं। गीताकार का कथन है कि जो जो भक्त श्रद्घापूर्वक जिस जिस देवता के रूप की पूजा करना चाहता है- मैं देवता के उस-उस रूप में उसकी श्रद्घा को अचल बना देता हूं।
योगेश्वर श्रीकृष्णजी के इस वाक्य से ऐसा लगता है कि जैसे गीता बहुदेवतावाद को बढ़ावा दे रही है। वास्तव में यहां उस जगदाधार परमेश्वर के विभिन्न नामों की ओर संकेत है, जिन्हें हम विभिन्न देवताओं के नाम से जानते हैं। महर्षि दयानन्द जी महाराज ने ‘सत्यार्थप्रकाश’ में ईश्वर के एक सौ पर्यायवाची नामों की बड़ी सुन्दर व्याख्या की है। ईश्वर के इन अनेकों पर्यायवाची नामों को यदि कोई अलग-अलग समझता है तो यह उसके ज्ञान के अधकचरा होने का संकेत है। ऐसा अधकचरा ज्ञान हानिकारक होता है। सत्यार्थ को सत्यार्थ ही समझना ज्ञान की निर्मलता है। हमारे ऋषियों ने ज्ञान के निर्मल स्वरूप को ही लोगों के और प्राणीमात्र के लिए उत्तम समझा है। यही कारण है कि हमारे ऋषियों ने ज्ञान के निर्मल वैज्ञानिक स्वरूप की उपासना की है। उसी निर्मल वैज्ञानिक स्वरूप की चर्चा श्रीकृष्णजी यहां कर रहे हैं।
जब श्रीकृष्ण जी यह कहते हैं कि-‘जो कोई व्यक्ति श्रद्घापूर्वक जिस-जिस देवता के स्वरूप की पूजा करना चाहता है’-तो उसका अभिप्राय ये है कि व्यक्ति ईश्वर के विभिन्न नामों की अलग-अलग उपासना करता है। जैसे कोई ईश्वर को सर्वव्यापक मानता है और इसी रूप में उसे भजता है, तो ईश्वर ऐसे भक्त की इसी रूप में सहायता करते है। कोई उसे विष्णु मानकर भजता है तो उसके लिए वह विष्णु रूप में ही सहायक हो जाते हैं। इसीलिए श्रीकृष्णजी कहते हैं कि मैं देवता के उस-उस रूप में उसकी श्रद्घा को अचल बना देता हूं। ऐसा भक्त अन्त में अपनी श्रद्घापूर्ण भक्ति से अपनी समस्त कामनाओं को पा जाता है। इसके लिए श्रीकृष्ण जी कह रहे हैं कि ऐसे भक्त को यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि ईश्वर मेरी कामनाओं को पूर्ण कर रहा है, अपितु यह मानना चाहिए कि मैं ही इन कामनाओं को पूर्ण कर रहा हूं।
इस सबके उपरान्त भी देवताओं की उपासना में लगे रहने वालों की पूजा को श्रीकृष्ण जी अधिक उत्तम नहीं मान रहे। कारण ये है कि विभिन्नताओं से मत मतान्तर उत्पन्न होते हैं, नये-नये सम्प्रदायों का जन्म होता है। इसलिए ऐसे लोगों की विभिन्न देवताओं की पूजा करने से विभिन्न पूजा-पद्घतियों का विकास होता है। वह अपनी कामनाओं की तृप्ति कर सकते हैं। परन्तु वह ईश्वर को नहीं पा सकते। ईश्वर को तो वही पाएगा जो उसके किसी देवता के चक्कर में न पडक़र सीधे उसे ही ध्यान में लाएगा और उसके विभिन्न नामों या रूपों का भी विस्तृत अध्ययन करेगा। इसीलिए श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि इन (देवताओं की पूजा में लगे रहने वाले लोगों) अल्पबुद्घि वालों को जो फल मिलता है वह नाशवान होता है। देवताओं की पूजा करने वाले लोग देवताओं को पाते हैं कि न्तु मेरे भक्त मेरे ही पास पहुंचते हैं।
बात स्पष्ट है कि एकेश्वर को बहुनामी समझ कर केवल उसे ही भजना उत्तम है। अन्य किसी प्रकार के देवताओं की पूजा में लगे रहे तो श्रीकृष्ण जी के शब्दों में ‘अत्यल्पमेधसाम्’ अल्प बुद्घि वाले बन जाओगे। क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत