विकेंद्रित विकास से आर्थिक समानता
आज जरूरत है कि विकास के मॉडल में आमूलचूल परिवर्तन लाया जाए। हमें जीडीपी केंद्रित विकास के बजाय रोजगारयुक्त समानता आधारित और विकेंद्रित ग्रोथ का मॉडल अपनाना होगा। सरकारों द्वारा पूंजीपतियों को दी जाने वाली रियायतों को न्यूनतम करते हुए उसके स्थान पर लघु एवं कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देते हुए उनकी रोजगार सृजन क्षमता के आधार पर करों में छूट और मदद देनी होगी।
हाल में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने भारत में आर्थिक संवृद्धि (ग्रोथ) का विश्लेषण करते हुए खुलासा किया कि 1980 से 2014 के 34 वर्षों में आर्थिक संवृद्धि से होने वाले लोगों में से दो तिहाई हिस्सा सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोगों ने हथिया लिया और 29 प्रतिशत लाभ तो ऊपर के मात्र एक प्रतिशत लोगों के हाथ में सीमित हो गए। 90 प्रतिशत जनसंख्या तक ग्रोथ के मात्र एक-तिहाई लाभ ही पहुंच पाई। यानी ग्रोथ ने मात्र कुछ चुनिंदा लोगों को ही लाभान्वित किया। उसी तर्ज पर विश्व विषमता रिपोर्ट 2018 के अनुसार भारत में जहां 1980 में ऊपर के 10 प्रतिशत लोगों के पास 32 प्रतिशत आय हुआ करती थी, वर्ष 2016 में उनके पास यह बढक़र 55 प्रतिशत हो गई। भारत के बाद दुनिया भर में मात्र मध्य पूर्व ही ऐसा क्षेत्र था, जहां ऊपर के 10 प्रतिशत लोगों के पास कुल आय का 61 प्रतिशत सिमटा हुआ था। पिछले 35 सालों में पूरी दुनिया में असमानताओं में घोर वृद्धि हुई है। गिनी चरांक असमानता का एक मापक होता है, जिसमें शून्य पूर्ण समानता का द्योतक है। भारत में यह 1990 और 2012 के बीच यह 0.43 से बढक़र 0.48 पहुंच गया, जबकि चीन में तो यह इस दौरान 0.37 से बढक़र 0.51 तक पहुंच गया। दक्षिण पूर्व के देशों में भी असमानताएं, जो पहले कम होती थीं, अब काफी बढ़ गई हैं। भूमंडलीकरण के युग में सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्ति घटी और उसके स्थान पर बड़ी कंपनियों का प्रादुर्भाव बढ़ गया। विश्व विषमता रिपोर्ट 2018 के अनुसार वर्ष 1980 के बाद लगभग सभी देशों में सार्वजनिक संपदा निजी हाथों में केंद्रित होती जा रही है। विभिन्न देशों में इसका अलग-अलग प्रभाव पड़ा है, लेकिन अमीर या गरीब सभी देशों में सार्वजनिक पूंजी का हृस और निजी पूंजी का उत्कर्ष स्पष्ट दिखाई देता है। यानी सार्वजनिक पूंजी निजी हाथों में जाती जा रही है, जिससे असमानताएं बढ़ रही हैं।
दूसरे, निर्बाध भूमंडलीकरण और प्रौद्योगिकी विकास के कारण कुशल श्रम की मांग बढ़ी है और साथ ही उनकी मजदूरी और वेतन भी। कुशल और अकुशल श्रमिकों के बीच आमदनी में खाई काफी बढ़ चुकी है। यही नहीं, भूमंडलीकरण के दौरान पूंजी के बेरोकटोक प्रवाह के चलते कंपनियां सस्ते श्रम की तलाश में अपने ठिकाने भी बदलने लगीं, जिसके कारण पूंजी के स्थानांतरण से मूल स्थान पर बेरोजगारी बढऩे लगी। तीसरे, नई प्रौद्योगिकी का लाभ भी पूंजीपतियों ने उठाया और अपनी आमदनी बढ़ा ली। भारत में 1990-91 में जहां (फैक्टरी क्षेत्र में) मजदूरी और वेतन का हिस्सा 78 प्रतिशत था, अब वह घटकर मात्र 45 प्रतिशत ही रह गया है। इस प्रकार नई प्रौद्योगिकी के कारण पूंजीपतियों के लाभ बढ़ गए और मजदूरी का हिस्सा घटता गया। चौथे, एक बार आय की असमानताएं बढऩे के बाद, भविष्य में असमानताएं बढऩे की आशंकाएं और अधिक बढ़ जाती हैं। सीमित आमदनियों के कारण गरीब अपने बच्चों को भलीभांति शिक्षा और प्रशिक्षण नहीं दिला पाते। ऐसे में गरीब लोगों के बच्चों की आमदनियां बढऩे की संभावनाएं भी सीमित हो जाती हैं। इससे न केवल सामाजिक समरसता में खलल आता है, राजनीतिक अस्थिरता भी बढ़ती है।
सस्ते श्रम की तलाश में स्थानांतरित होते उत्पादन के चलते दुनिया के अधिकांश देशों में बढ़ती बेरोजगारी और उससे घटती मजदूरी के कारण सरकारें कामगारों के जीवन स्तर को बनाए रखने की कोशिश में न्यूनतम मजदूरी कानून लागू करती रही हैं। सही नीति होने पर भी न्यूनतम मजदूरी कंपनियों को मजदूरों के स्थान पर मशीनों के प्रयोग के लिए प्रेरित करती है, जिसके चलते बेरोजगारी और बढ़ती है।
आज यूरोप के अधिकांश देशों में बेरोजगारी, विशेष तौर पर युवा बेरोजगारी बढ़ती जा रही है और कई देशों में तो यह 50 प्रतिशत से अधिक पहुंच चुकी है। कहा जा सकता है कि समानता लाने का न्यूनतम मजूदरी बढ़ाने का तरीका समस्या को और जटिल बना रहा है। उदारीकरण की नीतियों से पहले असमानताओं को घटाने के लिए अमीरों पर ऊंचे कर लगाना ही सर्वाधिक लोकप्रिय नीति हुआ करती थी। भारत में भी अमीरों पर 97 प्रतिशत तक कर की दर हुआ करती थी, लेकिन उदारीकरण के बाद करों की दरें घटाई गईं, ताकि करों की चोरी रुके और साथ ही अधिक काम करने और अधिक कमाई करने के लिए प्रोत्साहन मिल सके। इसलिए असमानताओं को कम करने हेतु आजकल कर बढ़ाना उचित नीति नहीं मानी जाती। उसके बावजूद हालांकि दुनिया भर के देशों में यह पाया गया है कि अमीरों पर करों के द्वारा समानता बढ़ाई जा सकती है। अमरीका में भी ट्रंप सरकार नए कर सुधार लेकर आ रही है, जिसमें आयकर को कम करने का प्रस्ताव है। पहले विलासिता की वस्तुओं पर भी अधिक कर लगाने का रिवाज था, लेकिन आजकल उत्पादन और मांग को बढ़ावा देने के लिए विलासिता की वस्तुओं पर भी कर कम किए जा रहे हैं। आज पूरी दुनिया में एक तरफ बड़ी कंपनियां अपने लाभ बढ़ाती जा रही हैं, दूसरी ओर बेरोजगारी लगातार बढ़ती जा रही है। इस कारण अमीर और गरीब के बीच खाई भी बढ़ती जा रही है। नई प्रौद्योगिकी के माध्यम से श्रम के विकल्प खोजे जा रहे हैं, जिसके चलते बेरोजगारी तो बढ़ती ही है, श्रमिकों की सौदेबाजी की क्षमता भी कम हो जाती है। उद्योगों के विभिन्न वार्षिक सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि जहां कुल उत्पादन में लाभ का हिस्सा 1990-91 में 19 प्रतिशत से बढक़र लगभग 52 प्रतिशत तक पहुंच गया है, श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी लगभग स्थिर है। अभिप्राय यह है कि ग्रोथ के तमाम लाभ उद्योगपतियों तक ही सीमित हैं, जबकि मजदूरों के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। ऐसे में अर्थव्यवस्था विकास के वर्तमान मॉडल पर एक सवालिया निशान लगता है। मुद्दा यह है कि इस ग्रोथ का आम आदमी के लिए क्या कोई मतलब है या यह केवल चंद पूंजीपतियों के लाभ के लिए ही है? 2011 के जनगणना के सामाजिक-आर्थिक आंकड़े बतलाते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी 92 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं, जिनके मुखिया की आमदनी 10,000 रुपए मासिक ही है और 75 प्रतिशत परिवार तो ऐसे हैं, जिनके मुखिया की आमदनी 5,000 रुपए मासिक से भी कम है। जीडीपी के ताजा आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि गांवों और शहरों के बीच भी खाई बढ़ती जा रही है। गौरतलब है कि शहरों में औसत प्रति व्यक्ति आय गांवों की औसत प्रति व्यक्ति से नौ गुना ज्यादा है।
ऐसे में जरूरत है कि विकास के मॉडल में आमूलचूल परिवर्तन लाया जाए।
हमें जीडीपी केंद्रित विकास के बजाय रोजगारयुक्त समानता आधारित और विकेंद्रित ग्रोथ का मॉडल अपनाना होगा। सरकारों द्वारा पूंजीपतियों या कारपोरेट को दी जाने वाली रियायतों को न्यूनतम करते हुए उसके स्थान पर लघु एवं कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देते हुए उनकी रोजगार सृजन क्षमता के आधार पर करों में छूट और मदद देनी होगी। यह सही है कि अमीरों पर कर बढ़ाने से समानता नहीं आ सकती, इसलिए गरीबों की रोजगार की क्षमता बढ़ानी होगी। उसके लिए शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के समान अवसर भी उपलब्ध कराने होंगे। बड़े-बड़े कारपोरेट के स्थान पर विकेंद्रित विकास का मॉडल अपनाना होगा, ताकि ज्यादा रोजगार और समानता लाई जा सके।