गीता का सातवां अध्याय और विश्व समाज
ईश्वर विषयक भ्रम
जो लोग विभिन्न देवी देवताओं की पूजा में लगे रहते हैं, या विभिन्न व्यक्तियों को ईश्वर मानकर उनकी पूजा करते रहते हैं-उन्हें श्रीकृष्ण जी बुद्घिहीन मानते हैं। कहते हैं कि जो बुद्घिहीन लोग मुझ अव्यक्त को व्यक्त हुआ मानने लगते हैं, अर्थात भिन्न-भिन्न देवताओं के रूप में परमपिता परमात्मा की उपासना करते रहते हैं-ऐसे लोग मेरे परम अविनाशी और जिसके सम्मुख दूसरा कोई उत्तम नहीं है-ऐसे रूप को न जानते हुए वे ऐसा करते रहते हैं।
पिछले ढाई तीन हजार वर्ष का विश्व का इतिहास इसी प्रकार की भक्ति का इतिहास है। लोगों ने विभिन्न मत-मतान्तर स्थापित किये और अपने-अपने भगवान अपने-अपने पूजास्थलों में विराजमान कर लिये। कुछ लोगों ने ईश्वर को साकार माना तो उन्होंने उसकी साकार रूप में अपने पूजास्थल में मूत्र्ति स्थापित कर ली तो कुछ उसे निराकार माना और उसे अपने पूजास्थल में बैठकर अजान देकर बुलाने लगे। जैसे समझो वह परमपिता परमात्मा बहरा हो, या एकदेशीय होने से उस पूजाघर में रहता ही न हो-जहां से वह अज्ञान लगायी जा रही है। इसी प्रकार की भक्ति के कारण ही विश्व में विभिन्न प्रकार की पूजा पद्घति और मत-मतान्तरों का विस्तार हुआ। जिनके कारण मानवता खण्डित होने लगी और संसार में सम्प्रदायवाद हावी होने लगा। विभिन्न पूजा-पद्घतियों से साम्प्रदायिकता जन्मती है और मानवता मरती है। यह साम्प्रदायिकता बड़ी घातक होती है, इससे मनुष्य के मस्तिष्क में विकृति आ जाती है, और वह विपरीत मतावलम्बी के प्रति असहिष्णु हो उठता है। वह अपने ही लोगों को अर्थात अपने सम्प्रदाय के लोगों को ही परमपिता परमात्मा की सन्तान समझता है, शेष को नहीं। अन्य मतावलम्बियों से वह ईष्र्या और घृणा करता है। जिससे समाज का और संसार का वातावरण बोझिल बन जाता है।
यही कारण है कि श्रीकृष्णजी एक पूजा पद्घति और एक देव की मान्यता को ही विश्व के लिए उपयोगी मान रहे हैं। भारतवासियों को अपने इस महापुरूष के चिन्तन को समझना चाहिए। यदि भारतवासी श्रीकृष्णजी की बात के मर्म को समझ गये होते तो यह देश विदेशियों का कभी गुलाम नहीं होता। यह मिथ्या धारणा है कि सभी सम्प्रदाय एक हैं और वे सभी ईश्वर को खोजने के विभिन्न रास्ते हैं। जब सम्पूर्ण विश्व समाज का धर्म मानवता एक है तो पूजा पद्घतियां भी अलग-अलग नहीं होनी चाहिएं। ‘एक’ की पूजा से ‘एकता’ उत्पन्न होती है और बहुतों की पूजा से ‘विभिन्नता’ जन्मती है। योगेश्वर श्रीकृष्णजी कहते हैं कि मैं अपनी योग माया से ढके रहने के कारण सबको प्रकट रूप से प्रकाशित नहीं होता। इसी कारण यह मूढ मनुष्य मुझे अज अर्थात जिसका जन्म नहीं होता और अव्यय अर्थात जो नष्ट नहीं होता-को पहचान नहीं पाता।
अज और अव्यय को जानने के लिए और उसकी योगमाया के रहस्य को समझने के लिए किसी पंडित-पुजारी, मुल्ला-मौलवी या पादरी के प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं है, अपितु उसे योग से ही पाया जा सकता है। जो विषय योग का है उसे भोग में रहकर नहीं पाया जा सकता।
पाषाणों में खोजता अज अव्यय को मूढ।
खोजना है तो खोज ले योग रहस्य से गूढ़।।
योगेश्वर श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि हे अर्जुन! चाहे लोग मुझे ना जानें, पर मैं उन सब प्राणियों को जानता हूं जो अतीत में हो चुकेे हैं जो इस समय विद्यमान हैं और जो भविष्य में होने वाले हैं। मेरे लिए कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे मैं नहीं जानता। अज का अभिप्राय अजन्मा से है। जो अजन्मा है वह परमपिता परमात्मा अजन्मा होने से सदा वर्तमान रहता है। अत: उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह सब कुछ नहीं जानता। जब सब कुछ उसी से जन्मा है तो वह सब कुछ को जानने वाला होना स्वयं ही निश्चित है।
श्री कृष्णजी अर्जुन से कह रहे हैं कि हे भारत! इस संसार के लोग इच्छा और द्वेष से जन्मने वाले सुख दु:खादि द्वन्द्वों के मोह में फंसे रहते हैं। (जिससे उन्हें मेरा ध्यान करने का समय ही नहीं मिलता और संसार के मायामोह के पाश में ही वे जकड़े रहते हैं।)
विद्वानों का मानना है कि इच्छा से सुख तथा द्वेष से दु:ख की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार के द्वंन्द्वों में फंसकर मानव का जीवन व्यर्थ ही चला जाता है। इच्छा और द्वेष का यह द्वन्द्व भाव मनुष्य की मृत्यु का कारण बनता है और उसे मोक्ष नहीं मिलने देता। जो लोग मोक्षाभिलाषी होकर उधर बढऩे का प्रयास करते हैं उन्हें ये इच्छा और द्वेष नाम के शत्रु पकडक़र पीछे खींच लेते हैं और उसे विषय वासना की गहरी खाई में ले जाकर पटक देते हैं। विषय और वासना की यह गहरी खाई ही मानो उस व्यक्ति की मृत्यु है।
ईश्वर भक्त इस प्रकार के द्वन्द्वों से मुक्त होने के लिए ईश्वर का भजन करता है। जिन लोगों के पाप का अन्त हो जाता है वे सुख दु:खादि द्वन्द्वों के मोह से और प्रत्येक प्रकार के भ्रम से युक्त होकर अर्थात दृढ़व्रती होकर मेरी भक्ति करते हैं। कहने का अभिप्राय है कि सुख दु:खादि का द्वन्द्व ही मनुष्य के लिए मारने वाला है। उसे भ्रम में डालने वाला है। इसलिए द्वन्द्व का आवरण चीरकर निद्र्वन्द्व होकर ईश्वर भजन में लगना चाहिए। विद्वान लोग मृत्यु के इस रहस्य को समझकर द्वन्द्व भाव की खाई में न जाने के प्रति सदा सावधान रहते हैं और अपने प्रत्येक कार्य और गतिविधि पर ध्यान देते रहते हैं कि कहीं मेरा कोई कार्य या मेरी कोई गतिविधि मुझे किसी गहरी खाई में ले जाने का कारण तो नहीं बन रहे हैं? ऐसे लोगों के लिए श्रीकृष्ण जी गीता के सातवें अध्याय के अन्त में कहते हैं कि जो लोग मेरा आश्रय लेकर अर्थात मेरी शरण में आकर जरा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए यत्न करते हैं वे ब्रह्म को अर्थात सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान को और कर्म के रहस्य को जान जाते हैं और जो अधिभूत, अधिदैव तथा अधियज्ञ सहित मुझे जान जाते हैं वे भगवान के साथ युक्त चित्त होने वाले मृत्यु के समय भी मेरा ही स्मरण करते हैं।
कहने का अभिप्राय है कि पांच महाभूतों के विकार इस सृष्टि को जानना अधिभूत है, इन महाभूतों के भीतर बैठे देवता (पुरूष) को जानना अधिदैव है और सृष्टि यज्ञ अधियज्ञ है। इस रहस्य को जान लेना ही ईश्वर को जानने में सहायता करता है। ज्ञानी महात्माजन अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ की इस त्रिवेणी के संगम में गोते लगाते हंर और अपने भीतर आनन्द के स्रोतों को प्रवाहित करने में या खोलने में सफल हो जाते हैं। उनका योग सफल हो जाता है और योग का सफल हो जाना ही ईश्वर की प्राप्ति का सटीक प्रमाण है। जब ईश्वर का सान्निध्य और सामीप्य मिल जाता है तो आत्मसाक्षात्कार हो जाने से योगी अपने आपको बहुत ही आनन्दित अनुभव करने लगता है। इस प्रकार गीता के सातवें अध्याय में बहुत बड़ी साधना की ओर संकेत है गीताकार का। इस संकेत को हमें समझना होगा। क्रमश: