भारत मे दलित समाज और ईसाई मिशनरी भाग 2

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#डॉविवेकआर्य

  1. इतिहास के साथ खिलवाड़

    इस चरण में बुद्ध मत का नाम लेकर ईसाई मिशनरियों द्वारा दलितों को बरगलाया गया। भारतीय इतिहास में बुद्ध मत के अस्त काल में तीन व्यक्तियों का नाम बेहद प्रसिद्ध रहा है। आदि शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट और पुष्यमित्र शुंग। इन तीनों का कार्य उस काल में देश, धर्म और जाति की परिस्थिति के अनुसार महान तप वाला था। जहाँ एक ओर आदि शंकराचार्य ने पाखंड, अन्धविश्वास, तंत्र-मंत्र, व्यभिचार की दीमक से जर्जर हुए बुद्ध मत को प्राचीन शास्त्रार्थ शैली में परास्त कर वैदिक धर्म की स्थापना करी गई वहीं दूसरी ओर कुमारिल भट्ट द्वारा माध्यम काल के घनघोर अँधेरे में वैदिक धर्म के पुनरुद्धार का संकल्प लिया गया। यह कार्य एक समाज सुधार के समान था। बुद्ध मत सदाचार, संयम, तप और संघ के सन्देश को छोड़कर मांसाहार, व्यभिचार, अन्धविश्वास का प्रायः बन चूका था। ये दोनों प्रयास शास्त्रीय थे तो तीसरा प्रयास राजनीतिक था। पुष्यमित्र शुंग मगध राज्य का सेनापति था। वह महान राष्ट्रभक्त और दूर-दृष्टि वाला सेनानी था। उस काल में सम्राट अशोक का नालायक वंशज बृहदरथ राजगद्दी पर बैठा था। पुष्यमित्र ने उसे अनेक बार आगाह किया था कि देश की सीमा पर बसे बुद्ध विहारों में विदेशी ग्रीक सैनिक बुद्ध भिक्षु बनकर जासूसी कर देश को तोड़ने की योजना बना रहे है। उस पर तुरंत कार्यवाही करे। मगर ऐशो आराम में मस्त बृहदरथ ने पुष्यमित्र की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। विवश होकर पुष्यमित्र ने सेना के निरीक्षण के समय बृहदरथ को मौत के घाट उतार दिया। इसके पश्चात पुष्यमित्र ने बुद्ध विहारों में छिपे उग्रवादियों को पकड़ने के लिए हमला बोल दिया। ईसाई मिशनरी पुष्यमित्र को एक खलनायक, एक हत्यारे के रूप में चित्रित करते हैं। जबकि वह महान देशभक्त था। अगर पुष्यमित्र बुद्धों से द्वेष करता तो उस काल का सबसे बड़ा बुद्ध स्तूप न बनवाता। ईसाई मिशनरियों द्वारा आदि शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट और पुष्यमित्र को निशाना बनाने के कारण उनकी ब्राह्मणों के विरोध में दलितों को भड़काने की नीति थी। ईसाई मिशनरियों ने तीनों को ऐसा दर्शाया जैसे वे तीनों ब्राह्मण थे और बुद्धों को विरोधी थे। इसलिए दलितों को बुद्ध होने के नाते तीनों ब्राह्मणों का बहिष्कार करना चाहिए। इस प्रकार से इतिहास के साथ खेलते हुए सत्य तथ्यों को छुपाकर ईसाईयों ने कैसा पीछे से घात किया। पाठक स्वयं निर्णय कर सकते है।

  2. हिन्दू त्योहारों और देवी -देवताओं के नाम पर भ्रामक प्रचार

    ईसाई मिशनरी ने हिन्दू समाज से सम्बंधित त्योहारों को भी नकारात्मक प्रकार से प्रचारित करने का एक नया प्रपंच किया। इस खेल के पीछे का इतिहास भी जानिए। जो दलित ईसाई बन जाते थे। वे अपने रीति-रिवाज, अपने त्योहार बनाना नहीं छोड़ते थे। उनके मन में प्राचीन धर्म के विषय में आस्था और श्रद्धा धर्म परिवर्तन करने के बाद भी जीवित रहती थी। अब उनको कट्टर बनाने के लिए उनको भड़काना आवश्यक था। इसलिए ईसाई मिशनरियों ने विश्वविद्यालयों में हिन्दू त्योहारों और उनसे सम्बंधित देवी देवता के विषय में अनर्गल प्रलाप आरम्भ किया। इस षड़यंत्र का एक उदाहरण लीजिये। महिषासुर दिवस का आयोजन दलितों के माध्यम से कुछ विश्वविद्यालयों में ईसाइयों ने आरम्भ करवाया। इसमें शोध के नाम पर यह प्रसिद्ध किया गया कि काली देवी द्वारा अपने से अधिक शक्तिशाली मूलनिवासी राजा के साथ नौ दिन तक पहले शयन किया गया। अंतिम दिन मदिरा के नशे में देवी ने शुद्र राजा महिषासुर का सर काट दिया। ऐसी बेहूदगी, बचकाना बातों को शोध का नाम देने वाले ईसाइयों का उद्देश्य दशहरा, दीवाली, होली, ओणम, श्रावणी आदि पर्वों को पाखंड और ईस्टर, गुड फ्राइडे आदि को पवित्र और पावन सिद्ध करना था। दलित समाज के कुछ युवा भी ईसाइयों के बहकावे में आकर मूर्खता पूर्ण हरकतें कर अपने आपको उनका मानसिक गुलाम सिद्ध कर देते है। पाठक अभी तक यह समझ गए होंगे की ईसाई मिशनरी कैसे भेड़ की खाल में भेड़िया जैसा बर्ताव करती है।

  3. हिंदुत्व से अलग करने का प्रयास

ईसाई समाज की तेज खोपड़ी ने एक बड़ा सुनियोजित धीमा जहर खोला। उन्होंने इतिहास में जितने भी कार्य हिन्दू समाज द्वारा जातिवाद को मिटाने के लिए किये गए । उन सभी को छिपा दिया। जैसे भक्ति आंदोलन के सभी संत कबीर, गुरु नानक, नामदेव, दादूदयाल, बसवा लिंगायत, रविदास आदि ने उस काल में प्रचलित धार्मिक अंधविश्वासों पर निष्पक्ष होकर अपने विचार कहे थे। समग्र रूप से पढ़े तो हर समाज सुधारक का उद्देश्य समाज सुधार करना था। जहाँ कबीर हिन्दू पंडितों के पाखंडों पर जमकर प्रहार करते है वहीं मुसलमानों के रोजे, नमाज़ और क़ुरबानी पर भी भारी भरकम प्रतिक्रिया करते है। गुरु नानक जहाँ हिन्दू में प्रचलित अंधविश्वासों की समीक्षा करते है वहीँ इस्लामिक आक्रांता बाबर को साक्षात शैतान की उपमा देते है। इतना ही नहीं सभी समाज सुधारक वेद, हिन्दू देवी-देवता, तीर्थ, ईश्वर आराधना, आस्तिकता, गोरक्षा सभी में अपना विश्वास और समर्थन प्रदर्शित करते हैं। ईसाई मिशनरियों ने भक्ति आंदोलन पर शोध के नाम पर सुनियोजित षड़यंत्र किया। एक ओर उन्होंने समाज सुधारकों द्वारा हिन्दू समाज में प्रचलित अंधविश्वासों को तो बढ़ा चढ़ा कर प्रचारित किया वहीँ दूसरी ओर इस्लाम आदि पर उनके द्वारा कहे गए विचारों को छुपा दिया। इससे दलितों को यह दिखाया गया कि जैसे भक्ति काल में संत समाज ब्राह्मणों का विरोध करता था और दलितों के हित की बात करता था वैसे ही आज ईसाई मिशनरी भी ब्राह्मणों के पाखंड का विरोध करती है और दलितों के हक की बात करती है। कुल मिलकर यह सारी कवायद छवि निर्माण की है। स्वयं को अच्छा एवं अन्य को बुरा दिखाने के पीछे ईसा मसीह के लिए भेड़ों को एकत्र करना एकमात्र उद्देश्य है। ईसाई मिशनरी के इन प्रयासों में भक्ति काल में संतों के प्रयासों में एक बहुत महत्वपूर्ण अंतर है। भक्ति काल के सभी हिन्दू समाज के महत्वपूर्ण अंग बनकर समाज में आई हुई बुराइयों को ठीक करने के लिए श्रम करते थे। उनका हिंदुत्व की मुख्य विचारधारा से अलग होने का कोई उद्देश्य नहीं था। जबकि वर्तमान में दलितों के लिए कल्याण कि बात करने वाली ईसाई मिशनरी उनके भड़का कर हिन्दू समाज से अलग करने के लिए सारा श्रम कर रही है। उनका उद्देश्य जोड़ना नहीं तोड़ना है। पाठक आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते है।

  1. सवर्ण हिन्दू समाज द्वारा दलित उत्थान का कार्य

पिछले 100 वर्षों से हिन्दू समाज ने दलितों के उत्थान के लिए अनेक प्रयास किये। सर्वप्रथम प्रयास आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद द्वारा किया गया। आधुनिक भारत में दलितों को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने वाले, सवर्ण होते हुए उनके हाथ से भोजन-जल ग्रहण करने वाले, उन्हें वेद मंत्र पढ़ने, सुनने और सुनाने का प्रावधान करने वाले, उन्हें बिना भेदभाव के आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करने का विधान देने वाले, उन्हें वापिस से शुद्ध होकर वैदिक धर्मी बनने का विधान देने वाले अगर कोई है तो स्वामी दयानंद है। स्वामी दयानंद के चिंतन का अनुसरण करते हुए आर्यसमाज ने अनेक गुरुकुल और विद्यालय खोले जिनमें बिना जाति भेदभाव के समान रूप से सभी को शिक्षा दी गई। अनेक सामूहिक भोज कार्यक्रम हुए जिससे सामाजिक दूरियां दूर हुए। अनेक मंदिरों में दलितों को न केवल प्रवेश मिला अपितु जनेऊ धारण करने और अग्निहोत्र करने का भी अधिकार मिला। इस महान कार्य के लिए आर्यसमाज के अनेकों कार्यकर्ताओं ने जैसे स्वामी श्रद्धानंद, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द आदि ने अपना जीवन लगा दिया। यह अपने आप में बड़ा इतिहास है।

 इसी प्रकार से वीर सावरकर द्वारा रत्नागिरी में पतित-पावन मंदिर की स्थापना करने से लेकर दलितों के मंदिरों में प्रवेश और छुआछूत उन्मूलन के लिए भारी प्रयास किये गए। इसके अतिरिक्त वनवासी कल्याण आश्रम, रामकृष्ण मिशन आदि द्वारा वनवासी क्षेत्रों में भी अनेक कार्य किये जा रहे हैं। ईसाई मिशनरी अपने मीडिया में प्रभावों से इन सभी कार्यों को कभी उजागर नहीं होने देती। वह यह दिखाती है कि केवल वही कार्य कर रहे है। बाकि कोई दलितों के उत्थान का कार्य नहीं कर रहा है। यह भी एक प्रकार का वैचारिक आतंकवाद है। इससे दलित समाज में यह भ्रम फैलता है कि केवल ईसाई ही दलितों के शुभचिंतक है। हिन्दू सवर्ण समाज तो स्वार्थी और उनसे द्वेष करने वाला है।  
  1. मीडिया का प्रयोग

    ईसाई मिशनरी ने अपने अथाह साधनों के दम पर सम्पूर्ण विश्व के सभी प्रकार के मीडिया में अपने आपको शक्तिशाली रूप में स्थापित कर लिया है। उन्हें मालूम है कि लोग वह सोचते हैं, जो मीडिया सोचने को प्रेरित करता है। इसलिए किसी भी राष्ट्र में कभी भी आपको ईसाई मिशनरी द्वारा धर्म परिवर्तन के लिए चलाये जा रहे गोरखधंधों पर कभी कोई समाचार नहीं मिलेगा। जबकि भारत जैसे देश में दलितों के साथ हुई कोई साधारण घटना को भी इतना विस्तृत रूप दे दिया जायेगा। मानों सारा हिन्दू समाज दलितों का सबसे बड़ा शत्रु है। हम दो उदाहरणों के माध्यम से इस खेल को समझेंगे। पूर्वोत्तर राज्यों में ईसाई चर्च का बोल बाला है। रियांग आदिवासी त्रिपुरा राज्य में पीढ़ियों से रहते आये है। वे हिन्दू वैष्णव मान्यता को मानने वाले है। ईसाइयों ने भरपूर जोर लगाया परंतु उन्होंने ईसाई बनने से इनकार कर दिया। चर्च ने अपना असली चेहरा दिखाते हुए रियांग आदिवासियों की बस्तियों पर अपने ईसाई गुंडों से हमला करना आरम्भ कर दिया। वे उनके घर जला देते, उनकी लड़कियों से बलात्कार करते, उनकी फसल बर्बाद कर देते। अंत में कई रियांग ईसाई बन गए, कई त्रिपुरा छोड़कर आसाम में निर्वासित जीवन जीने लग गए। पाठकों ने कभी चर्च के इस अत्याचार के विषय में नहीं सुना होगा। क्योंकि सभी मानवाधिकार संगठन, NGOs, प्रिंट मीडिया, अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं ईसाइयों के द्वारा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से संचालित हैं। इसके ठीक उलट गुजरात के ऊना में कुछ दलितों को गोहत्या के आरोप में हुई पिटाई को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसे उठाया गया जैसे इससे बड़ा अत्याचार तो दलितों के साथ कभी हुआ ही नहीं है। रियांग आदिवासी भी दलित हैं। उनके ऊपर जो अत्याचार हुआ उसका शब्दों में बखान करना असंभव है। मगर गुजरात की घटना का राजनीतीकरण कर उसे उछाला गया। जिससे दलितों के मन में हिन्दू समाज के लिए द्वेष भरे। इस प्रकार से चर्च अपने सभी काले कारनामों पर सदा पर्दा डालता है और अन्यों की छोटी छोटी घटनाओं को सुनियोजित तरीके से मीडिया के द्वारा प्रयोग कर अपना ईसाईकरण का कार्यक्रम चलाता है। इसके लिए विदेशों से चर्च को अरबों रूपया हर वर्ष मिलता है।

  2. डॉ अम्बेडकर और दलित समाज

ईसाई मिशनरी ने अगर किसी के चिंतन का सबसे अधिक दुरुपयोग किया तो वह संभवतः डॉ अम्बेडकर ही थे। जब तक डॉ डॉ अम्बेडकर जीवित थे, ईसाई मिशनरी उन्हें बड़े से बड़ा प्रलोभन देती रही कि किसी प्रकार से ईसाई मत ग्रहण कर ले क्योंकि डॉ अम्बेडकर के ईसाई बनते ही करोड़ों दलितों के ईसाई बनने का रास्ता सदा के लिए खुल जाता। उनका प्रलोभन तो क्या ही स्वीकार करना था। डॉ अम्बेडकर ने खुले शब्दों के ईसाइयों द्वारा साम, दाम, दंड और भेद की नीति से धर्मान्तरण करने को अनुचित कहा। डॉ अम्बेडकर ने ईसाई धर्मान्तरण को राष्ट्र के लिए घातक बताया था। उन्हें ज्ञात था कि इसे धर्मान्तरण करने के बाद भी दलितों के साथ भेदभाव होगा। उन्हें ज्ञात था कि ईसाई समाज में भी अंग्रेज ईसाई, गैर अंग्रेज ईसाई, सवर्ण ईसाई, दलित ईसाई जैसे भेदभाव हैं। यहाँ तक कि इन सभी गुटों में आपस में विवाह आदि के सम्बन्ध नहीं होते है। यहाँ तक इनके गिरिजाघर, पादरी से लेकर कब्रिस्तान भी अलग होते हैं। अगर स्थानीय स्तर पर (विशेष रूप से दक्षिण भारत) दलित ईसाइयों के साथ दूसरे ईसाई भेदभाव करते है। तो विश्व स्तर पर गोरे ईसाई (यूरोप) काले ईसाइयों (अफ्रीका) के साथ भेदभाव करते हैं। इसलिए केवल नाम से ईसाई बनने से डॉ अम्बेडकर ने स्पष्ट इंकार कर दिया। जबकि उनके ऊपर अंग्रेजों का भारी दबाव भी था। डॉ अम्बेडकर के अनुसार ईसाई बनते ही हर भारतीय भारतीय नहीं रहता। वह विदेशियों का आर्थिक, मानसिक और धार्मिक रूप से गुलाम बन जाता है। इतने स्पष्ट रूप से निर्देश देने के बाद भी भारत में दलितों के उत्थान के लिए चलने वाली सभी संस्थाएं ईसाइयों के हाथों में है। उनका संचालन चर्च द्वारा होता है और उन्हें दिशा निर्देश विदेशों से मिलते है।

इस लेख के माध्यम से हमने यह सिद्ध किया है कि कैसे ईसाई मिशनरी दलितों को हिंदुओं के अलग करने के लिए पुरजोर प्रयास कर रही हैं। इनका प्रयास इतना सुनियोजित है कि साधारण भारतीयों को इनके षड़यंत्र का आभास तक नहीं होता। अपने आपको ईसाई समाज मधुर भाषी, गरीबों के लिए दया एवं सेवा की भावना रखने वाला, विद्यालय, अनाथालय, चिकित्सालय आदि के माध्यम से गरीबों की सहायता करने वाला दिखाता है। मगर सत्य यह है कि ईसाई यह सब कार्य मानवता कि सेवा के लिए नहीं अपितु इसे बनाने के लिए करता है। विश्व इतिहास से लेकर वर्तमान में देख लीजिये पूरे विश्व में कोई भी ईसाई मिशन मानव सेवा के लिए केवल धर्मान्तरण के लिए कार्य कर रहा हैं। यही खेल उन्होंने दलितों के साथ खेला है। दलितों को ईसाईयों की कठपुतली बनने के स्थान पर उन हिंदुओं का साथ देना चाहिए जो जातिवाद का समर्थन नहीं करते है। डॉ अम्बेडकर ईसाईयों के कारनामों से भली भांति परिचित थे। इसीलिए उन्होंने ईसाई बनना स्वीकार नहीं किया था। भारत के दलितों का कल्याण हिन्दू समाज के साथ मिलकर रहने में ही है। इसके लिए हिन्दू समाज को जातिवाद रूपी सांप का फन कुचलकर अपने ही भाइयों को बिना भेद भाव के स्वीकार करना होगा।

(इस लेख को पढ़कर हर हिन्दू जातिवाद का नाश करने का संकल्प अवश्य ले)

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