राजनीति में राजनीतिक वफादारी और नैतिकता
मेरा अनुभव है कि सरकार बदलने के साथ ही बहुत सारी बातें अनायास ही बदल जाती हैं या अमल में आती हैं.नयी नीतियाँ,नये नियम,नये आदेश,नये लोग,और नयी समझ का आगाज़ होता है.यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है क्योंकि “तिल तिल नूतन होय”—वाला आप्त-वचन प्रकृति और राजनीति दोनों पर लागू होता है.पिछले दिनों मेरे एक मित्र आग बगूला हो गये: ‘नयी सरकार ने आते ही मुझे अध्यक्ष-पद से हटा दिया.यह सरासर अन्याय,अनुचित और अनैतिक है.. ’मेरा मन किया कि कहूँ कि आप जब अध्यक्ष मनोनीत किये गए थे तो किस योग्यता के आधार पर किये गये थे? ऐसी कौनसी विशेष योग्यता थी आपमें जो अन्य सभी को छोड़ पिछली सरकार आप पर मेहरबान हो गयी थी?अध्यक्ष कोई और भी तो बन सकता था.इसी के साथ एक बात और याद आ गयी मुझे.बहुत पहले जिस विश्वविद्यालय से मैं सम्बद्ध था वहां के हिंदी-विभाग के अध्यक्ष से जब मैं ने शिकायत की कि मुझे भी प्रश्नपत्र बनाने के लिए आमंत्रित क्यों नहीं किया जाता? मेरे पास भी दूसरों से कम योग्यता और अनुभव तो नहीं है. मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए अध्यक्षजी ने मुझे तब समझाया था: ’देखो, ’बोर्ड ऑफ़ स्टडीज’ के चुनावों में जो लोग(व्याख्याता) हमें जिताते हैं और हम परीक्षा-समिति आदि के संयोजक बन जाते हैं,उनमें ‘प्रसाद’ बांटना हमारा फर्ज़ बन जाता है.अपने ‘निर्वाचन-क्षेत्र को नहीं सींचेंगे तो दुबारा जीतेंगे कैसे?’ ऊपर के दो उदाहरणों से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि ‘निष्पक्ष’ रहकर या फिर किसी का हुए विना आप कुछ भी पाने की दौड़ से बाहर हो जाते हैं. ऊंचे राजनीतिक पदों को पाने के लिए तो यह बात ख़ास तौर पर लागू होती है.राजनीतिक पद प्राप्त करने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी यह अवश्य देखेगी कि पार्टी के लिए आपने क्या किया?डंडे खाए कभी?जिंदाबाद-मुर्दा बाद के नारे लगाये कभी?अनशन पर बैठे कभी? या फिर जेल गए कभी?दरियां-जाजमें बिछायी कभी?सभाओं के लिए भीड़ जुटायी?पार्टी के हक़ में कभी कुछ बोले या कभी कुछ लिखा?पार्टी के लिए चंदा इक्कठा किया कभी,आदि? अगर यह सब नहीं किया तो बताइए सत्तारूढ़ दल आपके लिए क्यों कुछ करने लगा?ज़ाहिर सी बात है कि पद और सम्मान नवाज़ते समय सरकार अपने आदमियों का ध्यान नहीं रखेगी तो क्या बेगानों का रखेगी?योग्यता अपनी जगह और पार्टी के प्रति कर्मठता और वफादारी अपनी जगह.इस सारी उठा-पटक में योग्य किन्तु ‘निष्पक्ष’ जन हमेशा हाशिये पर चले जाते हैं और शायद हर सरकार में उनकी नियति यही रहती है.
निष्पक्ष और साफ़-सुथरी छवि का दम भरने वाली नयी सरकार के लिए क्या यह संभव है कि वह राजनीतिक वफादारी के आलावा जाति,धर्म,ऊंच-नीच,लिंग,भाई-भतीजावाद आदि के दायरे से बहार निकल कर मात्र योग्यता और सक्षमता को ऊँचे पद बांटने के लिए अपने मापदंड बनाए?योग्यता और सक्षमता सापेक्षिक शब्द ज़रूर हैं मगर ‘कर्णधारों’ के लिए नि:स्पृह होकर इन दो शब्दों के वास्तविक अर्थ समझने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए.
शिबन कृष्ण रैणा(संप्रति दुबई से)
DR.S.K.RAINA
(डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)