प.उ.प्र. में हाईकोर्ट की खण्डपीठ की स्थापना : एक भटका हुआ आन्दोलन
मैं अधिवक्ता समाज व पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता का ध्यान इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूत्र्ति मुख्य न्यायाधीश (तत्कालीन) डा. डी.वाई. चन्द्रचूड़ के उस पत्र की ओर दिलाना चाहता हूं जिसे उन्होंने 8 जनवरी 2015 को विधि मंत्रालय भारत सरकार को यह स्पष्ट करते हुए लिखा था कि राज्य सरकार का कोई प्रस्ताव पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाईकोर्ट की खण्डपीठ स्थापित किये जाने के विषय में हमें प्राप्त नहीं है। अत: न्यायालय की ओर से इस संबंध में अपनी राय दिया जाना संभव नहीं है। यही नहीं न्यायमूत्र्ति विनीत शरण की अध्यक्षता में बनी पांच जजों की समिति भी उन्होंने भंग कर दी थी। यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि केन्द्रीय विधिमंत्री रविशंकर प्रसाद द्वारा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खण्डपीठ स्थापना के विषय में जब राय मांगी गयी थी तो उस पर माननीय मुख्य न्यायाधीश ने उक्त कदम उठाये।
सर्वप्रथम पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उच्च न्यायालय की खण्डपीठ की स्थापना का औचित्य क्या है?-इस पर विचार किया जाना उचित होगा। आखिर ऐसे कौन से कारण हैं कि जिनके चलते पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खण्डपीठ की स्थापना आवश्यक है? इस तथ्य को समझने के लिए सर्वप्रथम यह भी समझना होगा कि क्या अन्य राज्यों में खण्डपीठ एक से अधिक हैं? इसके लिए देश के अन्य उच्च न्यायालयों और उनकी खण्डपीठों का विवरण निम्नप्र कार है-
राज्य कुल कितनी पीठ कहां कहां पर
1. राजस्थान दो जोधपुर, जयपुर
2. मध्य प्रदेश तीन जबलपुर, इंदौर, ग्वालियर
3. तमिलनाडु तीन चेन्नई, पुदुच्चेरी, मदुरै
4. कर्नाटक तीन बेंगलूरू, धारवाड़, गुलबर्गा
5. आसाम चार गुवाहाटी, कोहिमा, आइजल, ईटानगर
6. पश्चिमी बंगाल दो कोलकाता,जलपाईगुडी
7. महाराष्ट्र तीन मुम्बई, नागपुर, औरंगाबाद
8. उत्तर प्रदेश दो इलाहाबाद, लखनऊ
उपरोक्त तालिका से स्पष्ट हो जाता है कि दो से अधिक खण्डपीठ अर्थात तीन-तीन खण्डपीठ भारत के मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र जैसे प्रांतों में स्थापित हैं। जबकि गुवाहाटी हाईकोर्ट की तो चार खण्डपीठ हैं। यह भी सर्वविदित है कि जनसंख्या के आधार पर उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा प्रान्त है। इसके लिए चार पीठ होनी आवश्यक हैं। क्योंकि आसाम, मिजोरम, नागालैंड, अरूणाचल प्रदेश इन सभी प्रांतों की जनसंख्या कुल मिलाकर भी उत्तर प्रदेश की जनसंख्या से बहुत कम है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय दूरी के तर्क को सन 2000 में कर्नाटक की फैडरेशन ऑफ बार एसोसिएशन की याचिका में खारिज कर चुका है। परंतु हम फिर भी दूरी के तर्क के आधार पर अपना आंदोलन चलाये जा रहे हैं। जिसमें कोई बल प्रतीत नहीं होता। हमको माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष ही अपनी बात को रखने की कोशिश करनी चाहिए और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की परिस्थितियों व जनता की परेशानी से न्यायालय अवगत कराना चाहिए। इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दी जा सकती है-यह पहला उपाय है।
खण्डपीठ स्थापना संबंधी प्रक्रिया पर विचार करें तो यह भी बड़ी स्पष्ट है। जब कोई राज्य सरकार उचित समझे तो हाईकोर्ट की खण्डपीठ की स्थापना हेतु संबंधित राज्यपाल के परामर्श से केन्द्र सरकार को पीठ स्थापना का प्रस्ताव भेज सकती है, फिर केन्द्र सरकार को निर्णय लेना होता है। जहां तक उत्तर प्रदेश का प्रश्न है तो इसके लिए राज्य सरकार कोई पहल नहीं करती, क्योंकि आंदोलन एवं संगठन में बल नहीं है। सरकार झुकती है मगर बलपूर्वक आंदोलन के समक्ष। यहां उल्टा हो रहा है-अधिवक्ता समाज की हड़ताल होती है और जनता को पता भी नहीं होता कि उसके हितों की लड़ाई अधिवक्ताओं द्वारा लड़ी जा रही है। ऐसे में अधिवक्ताओं का आंदेालन कभी भी जनांदोलन नहीं बन पाया, इसलिए राज्य सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगती। अधिवक्ता समाज ने पिछले 40-41 वर्षों से अपना ही नुकसान काम न करके और लंबी-लंबी हड़तालें करके किया है। राज्य सरकार अथवा केन्द्र सरकार को झुकाने के लिए सक्षम नेतृत्व और मजबूत आंदोलन की आवश्यकता है। यह है दूसरा विकल्प-जिससे प.उ.प्र. में खण्डपीठ आ सकती है।
यदि राज्य सरकार राज्यपाल के परामर्श से प्रस्ताव न भेजे तो संसद के पास अधिकार है कि वह कानून पारित करके पीठ गठन कभी भी और किसी भी राज्य में कर सकती है। जिसके लिए राज्यपाल की स्वीकृति भी आवश्यक नहीं है। ऐसे में केन्द्र सरकार को अधिवक्ताओं के आंदोलन के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता के हित में सदाशयतापूर्ण निर्णय लेना चाहिए। इसके लिए अधिवक्ताओं को सरकार को झुकाने के लिए आंदोलन करना पड़े-यह उचित नहीं होगा। अधिवक्ताओं को सरकार को झुकाने के लिए अपनी ओर से कानूनी लड़ाई अवश्य लडऩी चाहिए। अभी तक के आंदोलन इस दिशा में अपर्याप्त और कमजोर रहे हैं।
वास्तव में खण्डपीठ गठन का मामला काफी पुराना हो चुका है। प्रारंभ में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खण्डपीठ गठन के लिए तत्कालीन अटॉर्नी जनरल एम.सी. शीतलवाड़ ने 26 अक्टूबर 1962 को तथा उसके बाद के अटॉर्नी जनरल श्री नीरेन डे ने 23 जनवरी 1970 को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खण्डपीठ की स्थापना हेतु अपनी राय केन्द्र सरकार को दी थी। इसके बाद मार्च 2013 में तत्कालीन अटॉर्नी जनरल श्री पीपी राव ने भी केन्द्र सरकार को राय देकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता की समस्या हल करने को कहा था। लेकिन अधिवक्ताओं की पैर्रवी की कमजोरी के चलते ये प्रयास सफल नहीं हो सके।
अब यह कहना भी प्रासंगिक और सामयिक है कि वर्ष 2001 में मुख्य न्यायाधीश इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा राज्य सरकार के प्रस्ताव पर असहमति जता दी गयी थी। जो आज तक आधार बनी चली आ रही है। अत: राज्य सरकार व उच्च न्यायालय के मध्य भी मतभेद है, और इसी कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता अन्याय की चक्की में पिस रही है। अत: केन्द्र सरकार को अपनी ओर से समस्या के निदान के लिए सक्रियता दिखानी चाहिए, जिससे इस क्षेत्र की करोड़ों की जनसंख्या को सस्ता और सुलभ न्याय प्राप्त हो सके। इसके लिए अधिवक्ताओं को सुनियोजित और संवैधानिक किंतु प्रभावशाली रणनीति के तहत अपना आंदोलन खड़ा करना चाहिए। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो अधिवक्ता समाज देश की आजादी को दिलाने के लिए उठ खड़ा हुआ था वही आज अपने ही देश की जनता को न्याय नहीं दिला पा रहा है, इसलिए आंदोलन के नेताओं को अपने गिरेबान में झांकना होगा कि आखिर गलती कहां हो रही है?
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाईकोर्ट की खण्डपीठ की स्थापना के लिए मेरा मानना है कि अब उचित समय चल रहा है। वर्ष 2018 के अंत में या 2019 के प्रारंभ में लोकसभा के आम चुनाव होने संभावित हैं।
केन्द्र व प्रांत में इस समय एक ही पार्टी की सरकार है। जब सरकार के प्रतिनिधियों को लगेगा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता खण्डपीठ के मामले में एक होकर आवाज दे रही है और उसका आंदोलन उग्र भी हो सकता है-तब सत्तासीन पार्टी की नींद टूट सकती है। यह अत्यंत दु:ख का विषय है कि भारत के लोकतंत्र में लोक की आवाज लोकतांत्रिक उपायों से न सुनी जाकर जनता के उग्र हो जाने पर सुनी जाती है। जिसे उचित नहीं कहा जा सकता-परंतु जितने भी आंदोलन देश में सफल हुए हैं उनके पीछे उनकी उग्रता प्रमुख कारण रही है। हमारा मंतव्य उग्र आंदोलन के लिए जनता को उकसाना नहीं है-परंतु सोती हुई सरकार को सावधान करना अवश्य है-जो कि जनता के दुख-दर्द को तब तक नहीं समझती जब तक कि वह सडक़ों पर आकर कानून को अपने हाथ में न ेले लेती है। अच्छा होगा कि इससे पहले कि प्रदेश की जनता अपने अधिकारों के लिए हिंसक होकर सडक़ों पर उतरे-केन्द्र सरकार और प्रदेश की योगी सरकार मिलकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता को उसका जायज हक देते हुए यहां पर हाईकोर्ट की खण्डपीठ स्थापित करने की घोषणा करें।
वैसे राज्य पुनर्गठन/उत्तर प्रदेश के विभाजन की प्रक्रिया को पूर्ण करके भी प्रदेश को चार भागों में बांटकर प्रत्येक प्रांत को उसका हाईकोर्ट अलग देकर भी इस समस्या का समाधान हो सकता है। इस पर मैं भविष्य में कभी पुन: विस्तार से अपने विचार रखूंगा।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।