मन हो जावै सुमन तो, समझो प्रभु समीप
बिखरे मोती-भाग 214
गतांक से आगे….
वाणी व्यवहार का आधार होती है। यह ऐसा प्रभु-प्रदत्त गहना है जिसका कोई सानी नहीं। इसे न तो कोई चुरा सकता है और न ही कोई छीन सकता है। वाणी में विवेक और विनम्रता यश की सुगंध भरते हैं। वाक्पटुता और व्यवहार कुशलता तो व्यक्ति के हृदय पर राज करते हैं-किन्तु ध्यान रहे, वाणी में वाक् चातुर्य के साथ-साथ वाकसंयम भी नितान्त आवश्यक है।
वाणी ऐसा अमोघ अस्त्र है जिससे शत्रु भी मित्र बन जाते हैं, हृदय परिवर्तन होते हैं। इतना ही नहीं वाणी की ऋजुता (सरलता, कुटिलता रहित होना) शीतलता और मृदुता से घृणा ईष्र्या-द्वेष (बैर) प्रतिशोध और क्रोध के ज्वालामुखी भी अपना लावा उगलना बन्द कर देते हैं। फलस्वरूप शान्ति, प्रेम, मित्रता, सौहार्द और आनन्द की अमृत वर्षा होने लगती है, प्रेम की पावस ऋतु पुन: आ जाती है, सहयोग की हरियाली देखकर आशा और अरमानों के मोर तथा पपीहे बोलने लगते हैं। वाणी इंसान को शैतान से फरिश्ता बना देती है। जरा वाणी का तप करके तो देखिये-यह आपके व्यक्तित्व को ऐसे सुसज्जित कर देगी जैसे सूर्य की स्वर्णिम रश्मियां उसके आभामण्डल को अलंकृत कर देती है। इसीलिए वाणी का गहना सब गहनों में श्रेष्ठ माना गया है।
वाणी के सन्दर्भ में महर्षि देव दयानंद के शब्द हृदयस्पर्शी और प्रेरक हैं :-
”पुरूष अपनी वाणी में अहम जोडक़र बोलता है, महिलाएं अपनी वाणी में भावना जोडक़र बोलती हैं, जबकि महापुरूष अपनी वाणी को आत्मा और परमात्मा से जोडक़र बोलते हैं।”
उपरोक्त विश्लेषण से निकृष्ट और उत्कृष्ट सोच के सन्दर्भ में अपनों से अपनी बात कहनी थी सो कह दी। पाठक स्वयं फैसला करें कैसी सोच और वाणी को अपनाना है। मैं तो सिर्फ इतना कहता हूं-
खामोशी से अच्छी जुबां जानते हो, तो बोलो।
वर्ना दिलकश माहौल में जहर मत घोलो।।
हमेशा याद रखो, घटिया दर्जे के इंसान की वाणी घटिया दर्जे की होती है, जबकि ऊंचे दर्जे के इंसान की वाणी ऊंचे दर्जे की होती है। वह नाराज भी हो तो भी अशिष्ट भाषा का प्रयोग नहीं करता है। जो जीवन में विशिष्ट बनना चाहते हैं, उन्हें पहले शिष्ट बनना चाहिए। विद्वान व्यक्ति अपनी वाणी से पीडि़त नहीं, अपितु प्रेरित किया करता है। वाणी के सन्दर्भ में जगद्गुरू शंकराचार्य के विचार भी अनुकरणीय हैं-”एक बार किसी व्यक्ति ने उनसे पूछा-गुरूदेव जगत को किसने जीता? उन्होंने उत्तर दिया-जिसने अपने मन को जीत लिया। मन को किसने जीता? जगद्गुरू शंकराचार्य ने उत्तर दिया-जिसने अपनी जुबान (वाणी) को जीत लिया।”
मन हो जावै सुमन तो,
समझो प्रभु समीप।
आत्म ज्ञान का जल गया,
अन्तकाल में दीपक ।। 1148।।
व्याख्या :-जैसे सूर्य की किरणें मुरझाये हुए कमल को खिला देती हैं, ठीक इसी प्रकार जब मनुष्य का मन भगवान से जुड़ता है अर्थात परमात्मा में तन्मय होता है, तो ईश्वर के दिव्य गुणों की तरंगें मनुष्य के मुरझाये हुए मन को नयी ऊर्जा देकर उसे ऊर्जान्वित करती हैं अर्थात नई प्रेरणा देकर उसे उत्साह से भरती हैं, शक्ति और स्फूर्ति देकर उसे ऊर्जावान बनाती हैं, जैसे चुम्बक लोहे को अपने गुण देकर उसे भी चुम्बक बना देती है, अपने जैसा ऊर्जावान बना देती है। उस व्यक्ति के आचरण में दिव्य गुण अर्थात ईश्वरीय गुण भासने लगते हैं। फिर मन, मन नहीं रहता, वह सुमन हो जाता है। मन सत्व गुण प्रधान हो जाता है, उसे पुण्य-प्रार्थना का जुनून चढ़ जाता है। सत्कर्म करने की प्रेरणा को वह प्रभु की प्रेरणा समझने लगता है, जिसे वह सम्पन्न करने में अपना तन-मन और धन लगा देता है और उसे प्राणपण से पूरा करता है, इसलिए वह प्रभु का प्रिय बन जाता है, प्रभु -कृपा का पात्र बन जाता है, प्रभु के समीप हो जाता है।
क्रमश: