इतिहास क्या है ॽ
आखिर इतिहास लेखन को लेकर विवाद क्यों उठ रहे हैं ॽ
अखंड भारत राष्ट्र निर्माण में गुर्जर राज्य वंशो के योगदान का पुनर्मूल्यांकन क्यों जरूरी हैॽ
अभी हाल ही में गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा को लेकर पूर्वाग्रह से परिचालित विवाद देश भर में उत्पन्न करने के प्रयास किए गए हैं। यह विवाद कतिपय लोगों द्वारा ऐतिहासिक तथ्य और कथ्यों से परे उत्पन्न किए जा रहे हैं। ऐतिहासिक कथानक पर आधारित फिल्म निर्माण एवं नाट्य प्रस्तुतियों को लेकर भी विवाद चर्चित हो रहे हैं। सत्यान्वेषण की दृष्टि से सभ्यता और संस्कृति के विकास के अंतर्गत मानव स्वभाव का चित्रण ही इतिहास की विषय वस्तु बनता है।।
राष्ट्रीय सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से उस राष्ट्र में विद्यमान ऐतिहासिक धरोहर, उत्खनन में प्राप्त वस्तुओं संबंधी सामग्री के अवशेष,साहित्य और कला में चित्रित सामग्री तथा सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्थाएं और प्रचलित धार्मिक परंपराओं के संबंध में प्राप्त उल्लेखित साक्ष्यों के चयन के द्वारा इतिहासकार अपने, इतिहास लेखन विषय का ताना-बाना बुनता है।
भारतीय वर्ण- जाति- संप्रदाय धर्म -दर्शन के संबंध में उपलब्ध प्राचीन धर्म शास्त्र और साहित्य प्रतीक रूप भाषा के माध्यम से लिखे गये है। प्रतीक के निहितार्थ को ठीक प्रकार से न समझ पाने के कारण उपलब्ध सामग्री को पिछले सैकड़ों वर्षो से गलत रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। परिणाम स्वरुप इतिहास को लेकर उत्पन्न विवादों के निराकरण के लिए भारतीय इतिहास का पुनर्मूल्यांकन एवं पुनर्लेखन आवश्यक प्रतीत होता है।
भारतीय राष्ट्र निर्माण में गुर्जरों के अवदान, उत्थान, पतन और विभिन्न जाति समूहों एवं संप्रदाय धर्मों में गुर्जरों के सामूहिक विभाजन के तत्कालीन कारणों और परिस्थितियों को दृष्टिगत रखकर ही भारतीय इतिहास का सही पुनर्मूल्यांकन और पूनर्लेखन संभव है।
भारतीय धार्मिक साहित्य इतिहास पुराणों में जन्मना जाति और वर्ण व्यवस्था का उल्लेख, लौकिक सामाजिक व्यवस्था और परमार्थतः आध्यात्मिक संदर्भ में शब्द प्रतीक रूप हुआ है। साहित्य में भाषा के माध्यम से आध्यात्मिक धार्मिक प्रतीकों के उल्लेख को सनातन शाश्वत धर्म बुद्धि के बल पर ही समझा जा सकता है। गुर्जर राजवंशों के राजपूत जाति रूप विभाजन को बिना वंश, कुल परंपरा ज्ञान के नहीं समझा जा सकता है।वर्तमान में भारतवर्ष में गुर्जर राज्य वंश, गुर्जर प्रतिहार ,चौहान, तोमर- तंवर, परमार- पवांर वंशो के संबंध में राजपूत जाति नाम को लेकर जो विवाद उत्पन्न किया जा रहा है, वह मात्र भ्रांति मूलक है। राष्ट्र और समाज हित में इसका निराकरण आवश्यक है। इसके लिए इतिहासकारों को संदर्भित इतिहास की पुस्तकों में उल्लिखित संदर्भ और साहित्य में वर्णित तथ्यों को प्रतीक और लोकवार्ता साहित्य परंपरा के प्रमाणों को दृष्टिगत रखते हुए पूर्वाग्रह मुक्त होकर, स्वीकार करने की आवश्यकता है।
धार्मिक लौकिक- आध्यात्मिक संदर्भ में अतीत और वर्तमान में घटित घटनाएं अपना वृत्तांत स्वयं नहीं रच सकती, यह एक तथ्य है।अपने घटित होने के वृतांत को स्वयं नहीं सुना सकती। उन्हें तत्कालीन समय के साहित्यकारों और इतिहासकारों ने आख्यान रूप प्रस्तुत किया है। इसे हम मनोनुवृति आख्यान रचना भी कह सकते हैं। अतीत के ऐतिहासिक घटनाक्रम कि वास्तविकता क्या थी। उसका * यथार्थ कैसा था, यह वर्तमान को तभी उपलब्ध हो पाता है जब वह हमारे सामने किसी निश्चित रूप में प्रस्तुत किया जाता है। भारतीय इतिहास की पुस्तकों में गुर्जर और राजपूत जाति की उत्पत्ति की कोई भी निश्चित परिभाषा उपलब्ध नहीं है। भारतीय वर्ण व्यवस्था और जन्मना जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था के संबंध में सामाजिक विज्ञान संबंधी पुस्तकों में भी ऐसी कोई निश्चित परिभाषा नहीं मिलती है। ऐसे में वर्ण और जाति के संबंध में धर्म और प्रतीक के संबंध में प्राप्त ज्ञान परंपरा के अतिरिक्त सत्य तक पहुंचने का हमारे पास कोई मार्ग नहीं है। कुछ घटनाएं अतीत में भले ही वास्तविक रूप में घटित हुई हो, लेकिन वह हमारे लिए तभी सार्थक होगी जब हम उनके कारण और परिणामों को भारतीय धार्मिक और दार्शनिक प्रतीकों या व्याकरण और शब्द प्रतीकों के अर्थ को उसके संबंध में प्रचलित परंपरा के माध्यम से जान पाएंगे। जिससे ऐतिहासिक घटनाएं हमारे समक्ष व्याख्यायित और स्पष्ट हो सके।उसके लिए प्राप्त परंपरा ज्ञान के बल पर हमें ऐतिहासिक घटनाओं की पुनर्रचना करनी होगी।
इतिहास की पुनर्रचना के लिए हमें ऐतिहासिक चरित्रों और घटनाओं तथा स्थानों के आपसी संबंधों को कल्पना, परंपरा और तर्क के बल पर इतिहास में घटित घटनाओं के विशिष्ट सत्य उगलवाने पड़ेंगे। यथार्थ में घटनाएं इतिहास को नहीं लिखती, इतिहासकार लिखते हैं।इसलिए भारतीय इतिहास पुराण, धार्मिक -दार्शनिक साहित्य में उल्लेखित आख्यान अतीत के वृतांत संबंधी साक्ष्य इतिहास के पुनर्लेखन मे ऐतिहासिक सत्य प्रस्तुत करते हैं।
इस दृष्टि से भारतीय इतिहास की पुनर्रचना के लिए वर्तमान और भविष्य को अतीत के इतिहास से परिचित कराने के लिए, इतिहास में प्रभाव कारी धार्मिक- दार्शनिक प्रतीकों की आख्यानकारी पद्धतियों का प्रयोग करना आवश्यक है।
भारतीय इतिहास के नाम पर उपलब्ध इतिहास की पुस्तकों का लेखन यूरोपीय इतिहास लेखन पद्धति पर आधारित है। जिस पद्धति को भारतीय इतिहास लेखन में अपनाया गया है। उसमें इतिहास के सिद्धांत कार हेडन के द्वारा उल्लेखित अतीत की घटनाओं के संप्रेषण के तीन प्रमुख कारकों का आश्रय लिया गया है।
*1-एनल मोडतिथि वार पद्धति* इतिहास की प्रमुख घटनाओं को सूचिबद्ध करके वर्णित किया जाना।इस तिथि वार क्रम में घटनाओं के घटने का कारण, उनसे उत्पन्न अन्य घटनाओं के घटने के कारण और प्रभाव का अभाव पाया जाता है।
2-क्रोनिकल मोडइतिवृत्तात्मक पद्धति* जिनमें व्यक्ति के जीवन वृत्त भी सम्मिलित होते हैं।
3-हिस्टोरिकल नेरिटवऐतिहासिक आख्यान* यह शैली घटित घटनाओं के संबंध में उत्कंठात्मक होती है।-*1-
इतिहास लेखन की प्राचीन एशियाई पद्धतियां इससे अत्यंत भिन्न थी। इस दृष्टि से यह स्पष्ट है कि गुर्जर राजवंशों और गुर्जरों के अन्य सामाजिक सांप्रदायिक समूह में विभाजन के यथार्थ को जो धार्मिक प्रतीकात्मक आख्यानो के रूप में उपलब्ध है। भारतीय इतिहास का पुनर्मूल्यांकन और पुनर्लेखन उनकी अनदेखी करके नहीं किया जा सकता है।
मोहनलाल वर्मा
संपादक देव चेतना मासिक पत्रिका जयपुर।
*1-संदर्भ,,,, भाषा आध्यन्त प्रविधि पृष्ठ संख्या 66- 68राजकुमार,,, वाणी प्रकाशन।