गीता का आठवां अध्याय और विश्व समाज
उत्तरायण प्रकाश है दक्षिणायन अंधकार।
शुक्लपक्ष प्रकाश है कृष्णपक्ष अंधकार।।
उत्तरायण प्रकाशकाल है तो दक्षिणायन अंधकारकाल है। इन दोनों प्रकार के मार्गों को जीवन पर लाकर तोलते समय ध्यान देना चाहिए कि शुक्ल पक्ष और उत्तरायण काल का अर्थ प्रकाशमान से है। अत: जिसका जीवन शुभ कार्मों से प्रकाशमान है-वह लौटकर नहीं आता। इसी प्रकार कृष्ण पक्ष और दक्षिणायन काल अंधकार के प्रतीक हैं। अत: जिसके जीवन में अशुभ कार्यों का प्राबल्य रहा- वह संसार से जाता है तो लौटकर भी आता है। इस रहस्य को समझने की आवश्यकता है। सत्यार्थ स्वयं ही समझ आ जाएगा, साथ ही हमारे ऋषियों का विज्ञानवाद भी स्वयं ही स्पष्ट हो जाएगा। आज के संसार को भारत के इस विज्ञान को भी समझने की आवश्यकता है, जिससे कि अशुभ कर्मों से लोगों की अप्रीति और शुभ कर्मों में उनकी प्रीति बढ़े और यह संसार पुन: स्वर्ग बन सके। संसार को नरक बनाना ही कृष्ण पक्ष है और इसे स्वर्ग बनाना ही शुक्ल पक्ष है।
श्रीकृष्णजी की मान्यता है कि जो योगी जीवन और संसार के इन दोनों मार्गों के रहस्य को और वास्तविकता को जान जाता है -वह कभी भी मोह या भ्रम में नहीं पड़ता। इसीलिए वह संसार के कल्याण के लिए और संसार के लोगों को भारत की सनातन योग परम्परा के साथ जुड़े रहने की प्रेरणा देते हुए अर्जुन से कह रहे हैं कि तू सब कालों में योग से जुड़ा रह और योग में जुटा रह। ईश्वर के प्रति ऐसा समर्पण अथवा भक्तियोग ही जीवन नैया को पार लगाएगा। यह सब जान लेने पर वेदों के अध्यापन से, यज्ञों को करने से, तपों की तपने से, दानों को देने से, जो पुण्य फल प्राप्त होने की बात कही जाती है-योगी उस सबको पार कर जाता है और सबसे पहला और परम स्थान प्राप्त कर लेता है।
‘गीता’ का यह आठवां अध्याय सांसारिक व्यक्तियों को याद दिला रहा है कि प्रभु भक्ति में रोज डूबे रहो। उससे हटो नहीं। उसी में ठहरे रहो। इससे यह होगा कि उस प्रभु से हमारी मित्रता के संस्कार प्रगाढ़ होंगे और ये प्रगाढ़ संस्कार यहां से जाते समय हमारे काम आएंगे। यही वह पूंजी होगी जो हमारा अगला लोक बनाएगी अगला महल बनाएगी। काम ऐसे करो कि बना बनाया महल मिले और तिनका-तिनका न चुनना पड़े। जाते समय प्रभु की गोद मिले और हम दुख में विलीन ना होकर आनंद में लीन हो जायें। ऐसे शुभ कर्मों के करने से यह जीवन सफल हो जाता है और मनुष्य मोक्षपद का पात्र बन जाता है। गीता का आठवां अध्याय यहीं पर समाप्त होता है। इस अध्याय में श्रीकृष्णजी ने जीवन के उत्तरायण और दक्षिणाययन दो मार्गों का बड़ी सुंदरता और उत्तमता से वर्णन किया है। इस वर्णन को समझकर साधारण से साधारण व्यक्ति भी लाभान्वित हो सकता है। उत्तरायण और दक्षिणायन का समीकरण शुक्लपक्ष और कृष्ण्पक्ष के साथ जिस उत्तमता से स्थापित किया गया है-वह भी बहुत ही वैज्ञानिक और तार्किक आधार पर बनाया गया है। आधुनिक भौतिक विज्ञान और पश्चिमी जगत का ज्ञान-विज्ञान इस बात को समझ नहीं पाया है।
गीता का नौवां अध्याय
गीता के आठवें अध्याय में श्रीकृष्ण जी ने शुक्ल मार्ग और कृष्ण मार्ग की बात कही है। उसी को ‘प्रश्नोपनिषद’ के ऋषि ने (प्रथम प्रश्न 9-15) में भी वर्णन किया है। उसके अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है जिसे हम उत्तरायण कह रहे हैं-वही प्राण मार्ग, देवयान मार्ग और निवृति मार्ग कहा गया है। इसी प्रकार जिसे हम कृष्ण मार्ग कह रहे हैं वही दक्षिणायन मार्ग है, रयि मार्ग है, पितृयाण मार्ग है, प्रवृत्ति मार्ग है। कृष्ण मार्ग वास्तव में अंधकार का काल और शुक्ल मार्ग ज्ञान के प्रकाश का मार्ग है। संसार के लोगों को चाहिए कि वे दक्षिणायन मार्ग के पथिक न बनकर उत्तरायण मार्ग के पथिक बनें। इसके लिए वे संसार के प्रति दृष्टिकोण अपनायें कि यहां उपद्रवकारी व उग्रवादी शक्तियों का अंत हो और सज्जन शक्ति का प्राबल्य हो।
योगेश्वर श्री कृष्णजी संसार को नरक या मृत्युलोक के रूप में देखने की निराशावादी प्रवृत्ति के विरोधी हैं। वे इसे स्वर्ग बनाना चाहते हैं और इसीलिए एक आशावादी प्रेरणास्पद उपदेश कर रहे हैं कि हे संसार के लोगों! तुम उत्तरायण मार्ग के या शुक्लमार्ग के पथिक बनो। उत्तरायण मार्ग का पथिक बनने का अभिप्राय है कि जीवन में विज्ञानवाद के प्रकाश को स्थान दो और वैज्ञानिकता के उपासक बनो। गीता आशावाद का संचार करने वाला ग्रथ है, तभी तो वह निराशा निशा के प्रतीक अज्ञानान्धकार के काल को व्यक्ति के लिए त्याज्य और ज्ञानप्र्रकाश के काल को ‘गेय’ बनाकर चलती है। वह भूले भटकों को राह दिखाना चाहती है और भवसागर से पार लगाने का उपाय बता रही है।
मानो संसार एक नदिया है और संसार के लोग इस नदिया के एक किनारे पर खड़े इसे पार करने की युक्ति खोज रहे हैं। तब गीता उस युक्ति को देने का मार्ग बता रही है और कह रही है कि अपने वेद को और वैदिक संस्कृति के सनातन ज्ञान को भूलो मत, उसकी शरण में जाओ और अपना कल्याण कर लो। गीता ने अपने आपको ही सर्वश्रेष्ठ नहीं माना है, अपितु उसने वेद की सनातनता को नमस्कार करते हुए आर्ष ग्रन्थों का निचोड़ हमें देकर यह बता दिया है कि यदि मोक्ष चाहते हो तो अपनी उड़ान को ऊंचा करो, अपने दृष्टिकोण को व्यापकता दो, कल्याण हो जाएगा। इसलिए गीता अन्त में वेदों की ओर संकेत कर देती है। इस संकेत को समझने की आवश्यकता है। याद रहे कि गीता तक स्वयं को मत रोको, अपितु गीता के स्रोत अर्थात वेद तक स्वयं को ले चलो। वहां जाकर जो स्नान किया जाएगा-वह अमृत स्नान होगा।
सबसे बड़ी विद्या अर्थात राजविद्या
विद्या के विषय में विद्यादान करने वाला गुरू कैसा होना चाहिए? इस पर विचार प्रकट करते हुए ऋग्वेद (4/2/12) का ऋषि कहता है कि वह ‘अदब्धा’ अर्थात न दबने वाला होना चाहिए। अभिप्राय है कि गुरू शिष्य से दबने वाला न हो, उसका व्यक्तित्व ऐसा हो जो अपने शिष्यों को प्रभावित कर सके और उन्हें अपने आभामण्डल के तेज के सामने झुकने के लिए प्रेरित कर सके। यहीं पर वेद का ऋषि कहता है कि गुरू दर्शनीय और अद्भुत होना चाहिए। गुरू के दर्शन करने से उसकी दिव्याभा का प्रभाव उसके छात्रों पर पड़े और उसकी सौम्यता व शालीनता उन्हें सहज रूप से आकर्षित करने वाली हों। गुरू अभूतपूर्व (अद्भुत) हो। उसके ज्ञान की थाह पाने की चाह में चाहे जितनी चेष्टा की जाए, पर उसे कोई पा न सके-ऐसा व्यक्तित्व गुरू का होना चाहिए। कहने का अभिप्राय है कि गुरू किसी भी प्रकार से पाखण्डी, ठोंगी, व्यभिचारी या आडम्बरी न होकर दिव्य आभा से युक्त सच्चरित्र और महान गुणों से भूषित होना चाहिए। ऐसा गुरू ही विद्याओं में उत्तम और धर्मानुकूल विद्या अपने छात्र छात्राओं को दे सकता है। श्रीकृष्ण जी सौभाग्य से अर्जुन को ऐसे ही गुरू मिल गये हैं। उनका व्यक्तित्व बड़ा ही विशाल है और ज्ञान गाम्भीर्य तो ऐसा है कि आज तक कोई उसकी थाह नहीं ले सका।
क्रमश: