■ ईसाईयत का इतिहास दर्शन
लेखक : राजेश आर्य, गुजरात
ई.स. 410 में गोथिक नेता अलारिक (Alaric) ने रोम शहर पर अचानक हमला कर दिया। उसने आसानी से कब्जा कर, उसने पूरे शहर को लूट लिया। पूरा सभ्य संसार स्तब्ध रह गया। बर्बर लोगों ने पहले भी रोमन साम्राज्य में उत्पात मचाया था और खुद इटली पर भी हमला किया था, फिर भी सामान्य लोगों की दृष्टि में रोम एक “अविनाशी शहर” बना रहा था। लेकिन इस बार तो शाही महानगर को भी तबाह किया गया था। इसलिए लोगों ने इस बार जब इस भयानक विपत्ति का अनुभव किया तब वे इस विपत्ति के कारण ढूंढने लगे। ज्यादातर लोगों का मानना था कि जब तक रोम ज्युपिटर केपिटोलिनस और अन्य प्राचीन देवता की सेवा करता रहा तब तक संसार के एक बड़े हिस्से पर उसका प्रभुत्व कायम रहा, परंतु सम्राट कॉन्स्टंटिन (ई.स. 312-337) के शासन काल में पहली बार किसी पराये मजहब – ईसाईयत – को राज्याश्रय दिया गया था। उसके उत्तराधिकारियों के शासन काल में तो ईसाईयत को अधिकाधिक सुविधाएं दी जाने लगी थी। इसी क्रम में ई.स. 356 में कॉन्स्टंटिअस ने रोमन देवताओं की प्रतिमाओं के समक्ष दिए जाने वाले सभी प्रकार के परम्परागत बलिदानों पर प्रतिबंध लगा दिया और देव मंदिरों को बंद करवा दिए थे। ई.स. 382 में ग्रेसियन ने रोमन सेनेट गृह में ‘विजय की प्रतिमा’ के सामने स्थित बलिवेदी को हटाने का आदेश जारी कर दिया था! अपने प्राचीन धर्म के प्रति निष्ठावान लोगों के लिए यह अंतिम कृत्य अपने धर्म और पूर्वजों की परम्पराओं का घोर अपमान था।
शहर की गैरईसाई प्रजा रोम की इस विपत्ति में ईश्वरीय दंड देखने लगी। वे सोचने लगे कि रोम के प्राचीन देवताओं ने अब रोमनों पर कृपा बरसानी बंद कर दी है और ईसाईयों का परमेश्वर भी बर्बरों की विनाशलीला के सामने बेबस हो गया है। गैरईसाईयों की ऐसी सोच से ईसाईयों का विक्षुब्ध होना स्वाभाविक था और उनकी शंकाओं का निराकरण करना भी अनिवार्य था।
ठीक इसी समय रोम के ईसाईयों को रोमन साम्राज्य के उत्तर अफ्रिका प्रान्त के हिप्पो रेजिअय शहर के बिशप ऑगस्टिन का सहारा मिल गया। ईसाईयत और उसके परमेश्वर पर पैगन (गैरईसाई) लोगों के आरोपों का निराकरण करने हेतु उसने “The City of God” (लेटिन “De Civilate Dei”) शीर्षक एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में ऑगस्टिन ने अपनी विद्वता का परिचय देते हुए लिखा कि अन्य सभी सांसारिक धर्मों, संस्थाओं, समाजों, और शहरो को उखाड़ फेंक कर ईसाई चर्च उनका स्थान ले, यही परमेश्वर का उद्देश्य और योजना है, और मिस्र, असिरीया, ग्रीस और रोमन साम्राज्य के इतिहास का हवाला देते हुए आगे लिखा कि रोम का पतन तो पुरे संसार के पतन और विनाश की शुरुआत भर है।
ईसाईयत का उद्भव यहूदी मत से हुआ था, इसलिए यहूदियों की इतिहास दृष्टि उसे विरासत में मिली थी। इस इतिहास दृष्टि के अनुसार, इस्रायल के परमेश्वर याहवे ने सृष्टि के आरम्भ से ही अपने चयनित लोगों के हित में पुरे इतिहास के प्रवाह को संचालित किया था। ई.पू. की दसवीं शताब्दी तक यहूदीयों का यह दावा कायम रह। ई.पू. की दसवीं शताब्दी में कनान देश पर इस्रायली प्रजा ने जो विजय प्राप्त की थी उसका पूरा श्रेय वे परमेश्वर याहवे को देते है, परंतु कनान देश में बस जाने के बाद इस्रायली प्रजा का जो पतन प्रारम्भ हुआ, उस पतन ने उनको उनकी इतिहास दृष्टि में बदलाव करने के लिए बाध्य किया। ज्यों-ज्यों इस्रायली राष्ट्र एक के बाद दूसरे, बेबीलोन, ग्रीस और रोम के साम्राज्यों के पैरों तले कुचला जाने लगा और इस्रायली प्रजा की राजनीतिक स्थिति बद से बदतर होती चली गई, त्यों-त्यों उनका यह विश्वास दृढ होता गया कि जैसे प्राचीन काल में परमेश्वर याहवे ने मुसा के माध्यम से इस्रायली प्रजा को मिस्र के चुंगल से मुक्त किया था वैसे ही वह वर्तमान दमनकारी साम्राज्यों से भी एक न एक दिन मुक्ति दिलाएगा। पराधीनता के इसी काल में यहूदी नबियों ने भी ऐसी ही कई भविष्यवाणियाँ की। उनकी यह मुक्ति की आशा धीरे-धीरे परमेश्वर द्वारा प्रेषित एक “मसीहा” पर केन्द्रित होने लगी, जो भविष्य में इस्रायल को मुक्त करेगा और परमेश्वर का उद्देश्य पूर्ण करेगा। आनेवाला मसीहा कैसा होगा और वह अपना मिशन कैसे पूर्ण करेगा, इस पर तत्कालीन यहूदी साहित्य में स्पष्ट नहीं लिखा गया है, पर ऐसा सामान्यतः माना जाता था कि वह अलौकिक शक्तियों से सम्पन्न होगा, उसके आगमन के समय इस्रायल पतन के गर्त में डूब गया होगा, और उसके आगमन के तुरंत पश्चात तत्कालीन अभी सांसारिक व्यवस्थाओं का अंत हो जाएगा।
जीसस का जब जन्म हुआ तब पेलेस्टाइन (इस्रायल) पर विदेशी रोमनों का शासन था। जीसस के मूल यहूदी अनुयायी जीसस को ही इस्रायल के राज्य की पुनर्स्थापना के लिए परमेश्वर याहवे द्वारा प्रेषित ‘मसीहा’ (ग्रीक में – Christ) मानने लगे थे, परंतु रोमन साम्राज्य के विरुद्ध राजद्रोह के आरोप में जीसस को सूली पर लटकाकर प्राणदंड दिया गया। जीसस की असामयिक और आकस्मिक मृत्यु के बाद भी उसके अनुयायी निराश नहीं हुए, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि मृत्यु के तीसरे दिन परमेश्वर ने उसे पुनर्जीवित कर अपने पास उपर उठा लिया था और आसन्न भविष्य में ही उसका दूसरा आगमन (Second Coming) होगा, फैसले के दिन (Day of Judgment) वह न्याय करेगा, वर्तमान सांसारिक व्यवस्थाओं का अंत हो जाएगा, और परमेश्वर के राज्य (Kingdom of God) की स्थापना करेगा। इसलिए ईसाईयों की पहली पीढी को भविष्य में लम्बा सोचने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी; उनके लिए तो आसन्न भविष्य में ही – उनके अपने जीवन काल में ही – जीसस के दूसरे आगमन और फैसले के दिन अंतिम न्याय के साथ ही परमेश्वर का उद्देश्य पुर्ण होने वाला था। संसार के अंत के संदर्भ में स्वयं जीसस ने अपने अनुयायियों से कहा था, “मैं तुम लोगों से सच कहता हूँ कि जब तक ये सब बातें पूरी न हो लें, तब तक इस पीढी का अन्त नहीं होगा (अर्थात् इस पीढी के लोगों के जीते जी ही यह सब होगा)। आकाश और पृथ्वी टल जायेंगे, परन्तु मेरी बातें कभी न टलेंगी।” [Mark 13:30-31]
उस पहली (जीसस की समकालीन) पीढी का अन्त हो गया; उसके बाद की पीढी भी चली गई, आगे भी और कई पीढियां आयी और चली गई, संसार यथावत् चलता रहा, परंतु जीसस के पुनरागमन के कोई संकेत दिखाई नहीं देते थे। इसलिए बाद में आने वाली पीढियों को विश्वास हो गया कि भविष्य में जीसस का पुनरागमन और संसार का अन्त कब होगा यह कोई नहीं जानता! ईसाईयों के विश्वास में आये इस बदलाव के कारण उनको अब परमेश्वर के उद्देश्य और योजना की भी पुनर्व्याख्या करनी पड़ी। अभी तक उन्होनें परमेश्वर के उद्देश्य के विषय में यहूदियों की इतिहास दृष्टि अपनायी थी: कि परमेश्वर का उद्देश्य ‘मसीहा’ के आगमन के साथ पूर्ण होगा और इतिहास का अंत हो जाएगा।
जीसस यदि वही ‘मसीहा’ था तो वह तो कब का आ चुका था, परंतु कई पीढ़ियां चले जाने के बाद भी न उसका दूसरा आगमन हुआ और न ही न्याय का दिन आया; संसार पूर्ववत् चालु रहा। (यदि वास्तव में स्वयं जीसस ने उपरोक्त भविष्यवाणी की थी, तो वह भी गलत सिद्ध हुई। ईसाईयों के पास अब और कोई विकल्प नहीं बचा था।) इसलिए अब संसार के सातत्य को भी परमेश्वर की “अगोचर योजना” का एक हिस्सा बना दिया गया!! इस नई व्याख्या के अनुसार, परमेश्वर की योजना में दो हिस्से या चरण माने जाने लगे: प्रथम चरण संसार की उत्पत्ति और मनुष्य के पतन से लेकर जीसस क्राईस्ट के जन्म पर्यंत चला। ईसाईयों की मान्यता के अनुसार, इस प्रथम चरण का वर्णन यहूदियों के पवित्र शास्त्र (हिब्रू बाईबल, ऑल्ड टेस्टामेन्ट) में किया गया है, जिसका मुख्य विषय इस्रायली प्रजा को जीसस के आगमन के लिए तैयार किया जाना बताया जाता है!
इस तरह, जीसस के जन्म को समय के प्रवाह को दो हिस्सों में विभाजित करने वाला बताया गया : परमेश्वर की योजना के प्रथम चरण का अन्त और दूसरे चरण का प्रारम्भ। इस दूसरे चरण में ईसाई चर्च को अब दो मुख्य कार्य मिशन के रूप में करने थे: पहला, पैगन (धर्मविहिन / गैरईसाई) लोगों को एकमात्र उद्धारक जीसस क्राईस्ट की शरण में ले आना, और दूसरा, ईसाई बनाए गए लोगों का जीसस में विश्वास दृढ़ करना।
चूंकि ईसाईयत का उद्भव रोमन साम्राज्य में हुआ था, इसलिए इसने सबसे पहले रोमन समाज को ही जीसस की शरण में लाने के प्रयास किए। लेकिन चर्च के सामने अब दो बड़ी समस्याएं उपस्थित हुई। उसे रोमन शासन के प्रति निष्ठावान रहना था, जिसका अर्थ यह हुआ कि एकमात्र परमेश्वर के अलावा रोमन सम्राट को भी एक देवता के रूप में देखना और रोमनों के राज्य देवताओं का स्वीकार करना। एकमात्र परमेश्वर में विश्वास करने वाले ईसाई इन दोनों में से एक भी शर्त पूरी करने के लिए तैयार नहीं थे, इसलिए रोमन साम्राज्य में वे और उसका नया मत संदिग्ध माने जाने लगे और शंका की दृष्टि से देखे जाने लगे। इसलिए साम्राज्य के कुछ हिस्सों में आधिकारिक तौर पर ईसाईयों के प्रति दमन की नीति अपनाई गई। कुछ स्थानों पर गैरईसाईयों की ओर से वे उत्पीड़न के भोग भी बने। परंतु ई.स. 312 में कॉन्स्टंटिन जब रोमन साम्राज्य का सम्राट बना तब उत्पीड़न की नीति का स्थान कृपादृष्टि और बाद में राज्याश्रय की नीति ने ले लिया, फिर भी साम्राज्य की अधिकांश प्रजा पैगन थी; ईसाई अभी अल्पसंख्यक थे। साम्राज्य की नीति में आए इस अचानक और आमूलचूल परिवर्तन ने ईसाईयों के विश्वास को और दृढ़ किया।
इस नये अनुकूल वातावरण में ईसाई नेता महसूस करने लगे कि साम्राज्य के पैगन – मूर्तिपूजक धर्मों से ईसाईयत की श्रेष्ठता सिद्ध करने का समय अब आ गया है। अभी तीन शताब्दी पूर्व जन्मी ईसाईयत की तुलना में पैगन – मूर्तिपूजक धर्म अति प्राचीन थे। ग्रीस और रोम के समाजों में अपने धर्मों की प्राचीनता को सम्मान और गर्व की दृष्टि से देखा जाता था, इसलिए ईसाई विचारकों को भी येनकेन प्रकारेण ईसाईयत की प्राचीनता सिद्ध करनी थी। ईसाईयत को प्राचीन सिद्ध करने के लिए वे यह दलील प्रस्तुत करने लगे कि ईसाईयत का मूल आधार यहूदियों की पवित्र पुस्तकें है, जो पैगन संसार के किसी भी धर्मग्रंथ या धर्म से अधिक प्राचीन है! (यह दावा करते समय तक प्रारम्भिक ईसाई चिंतकों ने भारत, वेद, उपनिषद्, मनुस्मृति, रामायण या महाभारत का नाम तक नहीं सुना होगा।) यह दावा करते समय ईसाई चिंतकों को यहूदियों की पवित्र (हिब्रू बाईबल) को मान्यता भी देनी पड़ी और यहूदी मत और ईसाईयत के बीच सातत्य को भी स्वीकार करना पड़ा।
सम्राट कॉन्स्टंटिन (ई.स. 312-337) के शासन काल में ईसाईयत का सर्व प्रथम इतिहास लिखने वाले कैसरीया के बिशप युसेबिअस (Eusebius) ने भी ईसाईयत की प्राचीनता सिद्ध करने का प्रयास किया। अपनी पुस्तक में असिरिया, मिस्र, ग्रीस और रोम के इतिहास का वर्णन करने के पश्चात वह ईसाईयत का इतिहास ई.पू. 2017 में अब्राहम के जन्म से प्रारम्भ करता है। वह लिखता है कि मसीहा (क्राईस्ट) के रूप में जीसस के अवतरण से पूर्व संसार को तैयार करना परमेश्वर के लिए आवश्यक था! वह आगे लिखता है कि रोम में गृह-युद्ध के पश्चात रोमन रिपब्लिक (गणतंत्र) का अंत कर जब सम्राट अगस्तस (Augustus) ने रोमन साम्राज्य की स्थापना कर ली और जब धर्मविहिन लोग (heathens) भी परमेश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए तैयार थे तब संसार के इतिहास में क्राईस्ट के जन्म लेने का उचित समय आया!! इस तरह बिशप युसेबिअस ने ईसाईयत को ऐतिहासिक, प्राचीन और अलौकिक सिद्ध करने का भरसक प्रयास किया। स्पष्ट देखा जा सकता है कि इस प्रयास में उसने यहूदियों के धर्मग्रंथ का सहारा लिया। यहूदियों के धर्मग्रंथ का विषय केवल इस्रायल और इस्रायली प्रजा तक सीमित है, लेकिन बिशप युसेबिअस ने ईसाईयत को प्राचीनतम और वैश्विक साबित करने के लिए यहूदी शास्त्रों की परम्परागत व्याख्या के विरुद्ध जा कर हिब्रू बाईबल को वैश्विक महत्व प्रदान किया।
जब हम ग्रेको-रोमन संसार के संदर्भ में ईसाईयत के इतिहास दर्शन का मूल्यांकन करने का प्रयास करते है तब हमें इसाई चिंतन में ‘उद्देश्यवाद’ (teleologism) दृष्टिगोचर होता है। इस चिंतन के अनुसार समय अनंत संसार-चक्रों या युगों में गति न करते हुए एक सीधी रेखा में गति करता है; यह समयरेखा परमेश्वर यहोवा द्वारा संसार की रचना से समय से प्रारम्भ होती है और उसका उद्देश्य (या उसकी योजना) पूरा हो जाने के बाद यह रेखा रुक जाएगी और समय की गती बंद हो जाएगी। ईसाईयत ने इस समयरेखा को दो युगों में विभाजित किया है: जीसस क्राईस्ट के जन्म से पूर्व का युग और पश्चात का युग। इस चिंतन में जीसस क्राईस्ट का जन्म इतिहास का केंन्द्र बिंदु माना जाता है। परमेश्वर का एक उद्देश्य संसार की रचना के समय से संसार को इस केंन्द्र बिंदु तक ले जाना था। जीसस क्राईस्ट के जन्म के बाद अब परमेश्वर का दूसरा उद्देश्य जीसस के जीवन और उसके बलिदान के माध्यम से पूरी मानवता का उद्धार करना है।
दो युगों की यह ईसाई अवधारणा छठी शताब्दी में अधिक प्रचलित हुई। ई.स. 525 में डियोनिसियस एक्सिगस नामक एक ईसाई मठाधीस ने जीसस के जन्म को प्रारम्भिक बिंदु मानकर Anno Domini (परमेश्वर के वर्ष) के रूप में समय गणना का प्रचलन प्रारम्भ किया, जबकि जीसस के जन्म से पूर्व के युग को B.C. (Before Christ) के रूप में 17वीं शताब्दी तक नामित नहीं किया गया था।
पश्चिम में रोमन साम्राज्य के विघटन के बाद भी चर्च बचा रहा और धीरे-धीरे उसने बर्बर हमलावरों को ईसाईयत में मतान्तरित किया और इन ईसाईयों ने कालक्रम में युरोप के राष्ट्रों का निर्माण किया। युरोप में ईसाईयत की इस भव्य सफलता के कारण युरोप के मध्ययुग में ईसाईयत का इतिहास दर्शन सर्वत्र प्रचलित हो गया। इसे साहित्य, कला और नाटकों में अभिव्यक्ति मिली। चर्च का पंचांग भी अपने विश्वासियों को मजहब के इतिहास और उसकी महत्वपूर्ण घटनाओं की स्मृति कराने लगा। एक व्यक्तिगत ईसाई के भाग्य और परमेश्वर के उद्देश्य के मध्य गहन सम्बन्ध स्थापित किए जाने लगे। उसे यह विश्वास दिलाया गया कि उसकी आत्मा के उद्धार के लिए शताब्दियों पहले परमेश्वर के एकमात्र पुत्र क्राईस्ट ने बलिदान दिया था। फिर एक दिन इस संसार में क्राईस्ट का पुनरागमन होगा, यह संसार समाप्त हो जाएगा, और अंतिम फैसले के दिन पूरी मानवता का न्याय किया जाएगा। उस दिन यदि उसे धार्मिक (जीसस में विश्वास करने वाला) पाया जाएगा तो उसे परमेश्वर के राज्य में अनंत जीवन प्राप्त होगा, और इस तरह संसार के सृजन के समय से प्रारम्भ हुए एक भव्य नाटक में वह अपनी भूमिका निभाएगा।
युरोप के नवजागरण के काल में युरोपवासियों ने ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में जो प्रगती की उससे ईसाईयत के परम्परागत इतिहास दर्शन को बड़ा धक्का लगा। सामुद्रिक खोजों के कारण संसार की अन्य प्राचीन और उन्नत प्रजाओं और सभ्यताओं से युरोपवासियों का परिचय हुआ। ससार भर में जीसस के सुसमाचार को फैलाने के लिए ईसाई चर्चों ने इस तक को भी पकड़ ली, परंतु इस नवीन घटनाक्रम ने विवेकशील ईसाईयों को यह स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया कि ईसाईयत का इतिहास दर्शन ईसाईयों के संसार विषयक सीमित ज्ञान पर आधारित था। विभिन्न क्षेत्रों में ज्ञान – विज्ञान की प्रगति के कारण युरोपवासी अब जानने लगे थे कि ई.पू. 4004 से पहले भी इस संसार का अस्तित्व था। (बाईबल की साक्षियों के आधार पर 17वीं शताब्दी में आर्चबिशप उस्शेर ने ई.पू. 4004 को संसार की रचना का वर्ष बताया था!) युरोप में विज्ञान के उदय ने ईसाईयत के परम्परागत इतिहास दर्शन पर प्रश्नार्थ चिन्ह लगाया उससे भी पहले साहित्यिक आधार पर बाईबल के वचनों पर गम्भीर प्रश्न उठने लगे थे। ई.स. 1670 में यहूदी दार्शनिक स्पिनोझा ने और ई.स. 1678 में एक फ्रेंच पादरी रिचर्ड सायमन ने बाईबल की साहित्यिक, ऐतिहासिक त्रुटियों की ओर संकेत कर यह सिद्ध कर दिया था कि मुसा हिब्रू बाईबल की प्रथम पांच पुस्तक (पंचग्रन्थी – तौरात) लिख ही नहीं सकता था। बाद में अपने अपने क्षेत्रों में कुशल विद्वानों द्वारा ईसाईयों के “नये करार” (New Testament) की भी साहित्यिक, ऐतिहासिक, पुरातात्विक, आदि विभिन्न दृष्टिकोणों से समीक्षा की जाने लगी और आज स्थिति इस स्तर तक पहूंच गई है कि बाईबल एक विश्वास की वस्तु भर रह गया है।
लेखक : राजेश आर्य, गुजरात
प्रस्तुति आर्य सागर खारी