सोच है कि एक कर दर से विवाद कम होंगे, अर्थव्यवस्था सरल और गतिमान होगी। परंतु यह भूला जा रहा है कि यह गतिमानता रोजगार भक्षण की दिशा में होगी, न कि रोजगार सृजन की दिशा में। बजट की सामाजिक दायित्वों को पूरा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। टैक्स के सरलीकरण के नाम पर समाज को स्वाहा नहीं करना चाहिए। बजट को सामाजिक दायित्वों की पूर्ति करनी चाहिए, चाहे इसमें जटिलता क्यों न हो।
शीघ्र ही वित्त मंत्री आगामी वर्ष का बजट पेश करेंगे। इस समय प्रमुख चुनौती रोजगार बनाने की है। कृषि में रोजगार का हनन तेजी से हो रहा है। ट्यूबवेल, थ्रेशर तथा ट्रैक्टर ने खेती में श्रम की जरूरत कम कर दी है। सामान्य फसलों जैसे धान, गेहूं एवं गन्ने के उत्पादन में रोजगार कम ही बनेंगे, लेकिन दूसरे उत्पादों में रोजगार बन सकते हैं। नीदरलैंड एक छोटा सा यूरोपीय देश है। वहां ट्यूलिप की खेती बड़े पैमाने पर होती है। पूरे विश्व को वहां से ट्यूलिप की सप्लाई होती है। अपने देश में हर तरह की जलवायु उपलब्ध है। हम पूरी दुनिया को गुलाब, ग्लेडियोलस, गुलदाउदी एवं ट्यूलिप जैसे फूलों की सप्लाई बारह महीने कर सकते हैं। इन उच्च कीमत वाले माल के उत्पादन में रोजगार बन सकते हैं। इसी प्रकार विशेष आकार के फलों, आर्गेनिक शहद एवं जैतून के तेल के निर्यात की अपार संभावना अपने देश में मौजूद है। यदि नीदरलैंड के किसान अपने कर्मचारियों को ट्यूलिप के उत्पादन के लिए 8,000 रुपए की दिहाड़ी दे सकते हैं, तो हमारे किसान क्यों नहीं दे सकते। वित्त मंत्री को चाहिए कि सामान्य कृषि उत्पादों जैसे गेहूं एवं चीनी के निर्यात पर निर्यात कर वसूल करके उपरोक्त उच्च कीमत वाले उत्पादों को सबसिडी दें। इसके साथ ही इन निर्यातों के लिए आवश्यक बुनियादी संरचना जैसे एयरपोर्ट पर फसल निर्यात के अलग स्थान बनाने पर निवेश बढ़ाएं। इन फसलों के उत्पादन में रोजगार बनेंगे। कुल मिलाकर अब कृषि क्षेत्र की सूरत बदलने का समय आ गया है।
मैन्यूफेक्चरिंग में ऑटोमेटिक मशीनों एवं रोबोट का उपयोग बढ़ रहा है। किसी चीनी मिल में 50 वर्ष पूर्व 2,000 कर्मचारी कार्य करते थे और प्रतिदिन 2,000 टन गन्ना पेरा जाता था। आज उसी मिल में मात्र 500 कर्मचारी कार्य करते हैं और 8,000 टन गन्ना पेरा जाता है। तमाम कार्य जैसे गन्ने को ट्रक से उतारना, खोई को बॉयलर में झोंकना एवं संट्रीफूगल में चीनी को साफ करना इत्यादि ऑटोमेटिक मशीनों से किया जाने लगा है। पूंजी के सस्ते होते जाने के कारण ऑटोमेटिक मशीनों में निवेश करना सहज हो गया है। अत: वर्तमान में मैन्यूफेक्चरिंग में रोजगार घटने लगे हैं। भविष्य में यह निरंतर घटेगा और रोजगार की समस्या गहराएगी। ‘मेक इन इंडिया’ सफल हो भी जाए तो भी रोजगार की स्थिति दयनीय बनी रहेगी। मैन्यूफेक्चरिंग में उन उद्योगों को चिन्हित करना चाहिए, जहां ऑटोमेटिक मशीनों से उत्पादन करना संभव नहीं है जैसे खादी, हैंडलूम, हस्तकला, फर्नीचर इत्यादि। सरकार को चाहिए कि तमाम उत्पादित माल का सर्वेक्षण कराए और इन्हें ‘अधिक श्रम’ एवं ‘न्यून श्रम’ की श्रेणियों में विभाजित करे। जैसे फर्नीचर ‘अधिक श्रम’ और पेट्रोल न्यून श्रम की श्रेणी में वर्गीकृत हुआ। तब अधिक श्रम के उत्पादों पर जीएसटी घटाए और न्यून श्रम के उत्पादों पर जीएसटी बढ़ाए। ऐसा करने से उद्योगों पर कर का कुल भार पूर्ववत रहेगा, परंतु श्रम सघन उत्पादों को बढ़ावा मिलेगा। जीएसटी की दरों को उत्पादन प्रणाली के आधार पर भी घटाया जा सकता है। जैसे ऑटोमेटिक मशीन से बनाए गए बिस्कुट और डबलरोटी पर जीएसटी बढ़ाया जाए तथा हाथ से बने इन्हीं माल पर जीएसटी घटाया जाए। कम्प्यूटर आधारित इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी (आईटी) में भारत की महारत सर्वविदित है। यहां भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का खतरा मंडरा रहा है। मेरे जानकार सॉफ्टवेयर इंजीनियर ने बताया कि वर्तमान में यदि कोई कंपनी नया सॉफ्टवेयर खरीदती है, तो उसे लागू करने को इंजीनियरों की जरूरत होती है। अब यह कार्य क्लाउड प्लेटफार्म पर होने लगा है। खरीददार द्वारा क्लाउड से सॉफ्टवेयर के उन हिस्सों को डाउनलोड करके उपयोग किया जाता है, जिसकी उनको जरूरत है।
इस उपयोग के लिए सॉफ्टवेयर इंजीनियर को रोजगार देना जरूरी नहीं रह गया है। फलस्वरूप सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में रोजगार के संकुचन की संभावना है। लेकिन तमाम ऐसे कम्प्यूटर आधारित गेम्स आदि हैं, जिनका बाजार तेजी से बढ़ेगा। मेट्रो अथवा रेल स्टेशन पर आप देख सकते हैं कि दर्जनों लोग मोबाइल से चिपके रहते हैं। मोबाइल आधारित प्रोग्राम की मांग बढ़ेगी। सरकार को इनके उत्पादन को बढ़ावा देना चाहिए।
इस दिशा में बजट में छोटे डाटा पैक्स पर कर की दर कम और वॉयस फोन पर कर की दर में वृद्धि की जा सकती है। छोटा डेटा पैक सस्ता होने से युवाओं के लिए इस क्षेत्र में प्रवेश आसान हो जाएगा। साथ-साथ विदेशी भाषाओं को प्रोत्साहन देना चाहिए। आईआईटी तथा आईआईएम की तर्ज पर हर राज्य में इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ फॉरेन लैंग्वेज स्थापित करना चाहिए, जहां जापानी से लेकर स्पेनिश जैसी भाषाओं में अनुवाद करने का प्रशिक्षण दिया जाए। सरकार को ‘स्किल’ बढ़ाने के पचड़े में सीधे नहीं पडऩा चाहिए। स्किल के नाम पर तमाम एनजीओ द्वारा फर्जीबाड़ा चल रहा है। कम्प्यूटर तथा विदेशी भाषाओं में रोजगार बढ़ेंगे तो युवा उपयुक्त स्किल को स्वयं हासिल कर लेंगे। विकास के साथ-साथ सेवाओं का अर्थव्यवस्था में हिस्सा बढ़ता है। सेवाओं में स्वास्थ्य और शिक्षा प्रमुख हैं। इन सेवाओं की खूबी है कि इन्हें रोबोट द्वारा कम ही उपलब्ध कराया जा सकता है। जैसे बालक को गणित का ट्यूटोरियल देना हो, तो सॉफ्टवेयर की सीमा है। ट्यूशन प्रक्रिया में हर स्तर पर बालक के जहन में सवाल और जिज्ञासाएं उठती हैं। उन्हें मशीन के बजाय एक शिक्षक ही अच्छे से शांत कर सकता है।
मेरे जानकार एक मित्र विदेशी छात्रों को कम्प्यूटर के माध्यम से ट्यूटोरियल देती हैं और उनकी आमदनी भी अच्छी-खासी है। विदेशों में स्वास्थ्य सेवाएं एवं शिक्षा बहुत महंगी हैं। दांत के रूट कनाल ट्रीटमेंट के अमरीका में 70,000 रुपए लगते हैं, जबकि भारत में 3,500 रुपए। तीन दांत का रूट कनाल करना हो, तो अमरीकी ग्राहक के लिए यह सस्ता पड़ता है कि वह दिल्ली आए और करा ले। हमारे तमाम युवा आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड तथा अमरीका शिक्षा प्राप्त करने को जाते हैं। हमारे लिए संभव है कि एशिया, अफ्रीका एवं दक्षिणी अमरीका के छात्रों को यहां लाकर शिक्षा दें, परंतु अपने देश में विदेशियों के प्रति नफरत का वातावरण है विशेषत: मंगोलयाड एवं निग्राएड नस्ल के लोगों के प्रति। सरकार को चाहिए कि स्वास्थ्य एवं शिक्षा सेवाओं के निर्यात के लिए जीएसटी में छूट दे। इन्हें बढ़ाने के लिए एक सार्वजनिक इकाई बनाए जो विभिन्न देशों में शाखाएं खोलकर वहां के युवाओं को भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं खरीदने को प्रेरित करे। सरकार को सरकारी अस्पतालों एवं विद्यालयों के विस्तार पर पूर्ण विराम लगा देना चाहिए और इस रकम को निर्यात में लगाना चाहिए।
इन सुझावों को लागू करने में मूल समस्या जीएसटी के अंतर्गत एकल कर दर की तरफ बढऩे की है। सोच है कि एक कर दर से विवाद कम होंगे, अर्थव्यवस्था सरल और गतिमान होगी। परंतु यह भूला जा रहा है कि यह गतिमानता रोजगार भक्षण की दिशा में होगी, न कि रोजगार सृजन की दिशा में। बजट की सामाजिक दायित्वों को पूरा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। टैक्स के सरलीकरण के नाम पर समाज को स्वाहा नहीं करना चाहिए। बजट को सामाजिक दायित्वों की पूर्ति करनी चाहिए, चाहे इसमें जटिलता क्यों न हो।