वीरेंद्र पैन्यूली
अब अधिकांश प्रथम स्तर के इंजीनियरिंग पासआउट छात्र-छात्राएं उच्च कोटी के प्रबंधन संस्थानों में स्पर्धा करके प्रबंधकीय सेवाओं में लगे होते हैं। तकनीकी छात्र ही सिविल सेवाओं में स्पर्धा करने में आगे आ रहे हैं। ये अव्वल छात्र शिक्षक भी कम ही बनना चाहते हैं। अत: उच्च गुणवत्ता वाले तकनीकी शिक्षकों की भी भारी कमी है। इस कारण लाखों की संख्या में कालेजों से ऐसे इंजीनियर बाहर निकल रहे हैं, जिन्हें काम चलाऊ शिक्षकों ने पढ़ाया है। इन छात्रों को अपने संस्थानों में स्तरीय लैबों और वर्कशॉपों का भी शायद ही अनुभव होता है।
कुछ समय पूर्व नीति आयोग की ओर से वक्तव्य आया कि बेरोजगारी नहीं, योग्यता के हिसाब से रोजगार न मिल पाना देश की समस्या है। परोक्ष रूप से इसका अर्थ हुआ कि जिस तरह की पढ़ाई करके लोग निकल रहे हैं और जिस संख्या में निकल रहे हैं, उनके लिए उस तरह का रोजगार उपलब्ध नहीं है। वैसे भी लगता यही है कि रोजगार सृजन का, खासकर तकनीकी से जुड़ा काम सरकारों ने निजी क्षेत्र को दे दिया है। सरकारी क्षेत्र में तो सेवानिवृत्तियों या इस्तीफों के बाद भी जो रिक्तताएं उपज रही हैं, उनको भी नहीं भरा जा रहा है। निजी क्षेत्र तो ठोंक बजाकर अपने पैसों का पूरा फायदा उठाने के लिए अभ्यर्थियों की नियुक्ति करना चाहता है। इस क्रम में उसका रोना यह रहता है कि तकनीकी संस्थानों से डिग्री या डिप्लोमा लेकर जो छात्र-छात्राएं निकल रहे हैं, वे रोजगार में रखे जाने लायक नहीं होते हैं।
यदि आंकड़ों की बात करें तो देश में जितने इंजीनियरिंग व टेक्नोलॉजी के पासआउट निकल रहे हैं, उनमें आईटी क्षेत्र के कुल 19 प्रतिशत से भी कम छात्र व मेकेनिकल, इलेक्ट्रिकल, इलेक्टॉनिक्स, सिविल इंजीनियरिंग से आठ प्रतिशत से भी कम छात्र नौकरी पाते हैं, तो आप खुद ही समझ सकते हैं कि बाकी पासआउट यदि नौकरी कर भी रहे हैं, तो वे निश्चय ही अपनी डिग्री के अनुरूप नौकरी पर शायद ही होंगे। एक और तथ्य पर भी ध्यान देना होगा कि अब अधिकांश प्रथम स्तर के इंजीनियरिंग पासआउट छात्र-छात्राएं उच्च कोटी के प्रबंधन संस्थानों में स्पर्धा करके प्रबंधकीय सेवाओं में लगे होते हैं। तकनीकी छात्र ही सिविल सेवाओं में स्पर्धा करने में आगे आ रहे हैं। ये अव्वल छात्र शिक्षक भी कम ही बनना चाहते हैं। अत: उच्च गुणवत्ता वाले तकनीकी शिक्षकों की भी भारी कमी है। इस कारण लाखों की संख्या में कालेजों से ऐसे इंजीनियर बाहर निकल रहे हैं, जिन्हें काम चलाऊ शिक्षकों ने पढ़ाया है। इन छात्रों को अपने संस्थानों में स्तरीय लैबों और वर्कशॉपों का भी शायद ही अनुभव होता है।
दूसरी तरफ टेक्नोलॉजी व ज्ञान इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि जल्दी-जल्दी नए पाठ्यक्रमों, लैबों व मशीनों के टेक्निकल अध्ययनों में जरूरत पड़ती है, जिनको पूरा करने का अत्यंत महंगा काम हर संस्थान के बूते में भी नहीं रहता है। नतीजतन नदी की धारा उल्टी बहने लगी है। पहले जहां व्यावसायिक तकनीकी संस्थानों को खोलने के लिए होड़ लगी रहती थी, वहां अब खोले गए तकनीकी कालेजों को बंद करने की सरकार से अनुमति मांगने वालों की कतार लगी हुई है। इनके आवेदनों को आसानी से अनुमति नहीं मिल रही है। उन्हें कई शर्तों से गुजरना पड़ता है, किंतु प्रमुख शर्त यह तो होती ही है कि उन्हें अपने विद्यार्थियों को एक वैधानिक अनुबंध के अंतर्गत प्रवेश दिलवाना होता है और फीस आदि का भी सेटलमेंट करना होता है। अब तो केंद्रीय सरकारी नीति के अंतर्गत भी ऐसे इंजीनियरिंग कालेजों को भी बंद किया जाएगा, जिनमें पिछले निश्चित तय सालों में उनकी क्षमता के तीस प्रतिशत छात्रों ने भी प्रवेश नहीं लिया। हर राज्य में ऐसे इंजीनियरिंग कालेज हैं, किंतु यहां भी छात्र-छात्राओं का भविष्य खराब न हो, इसके प्रावधान तो होंगे ही, साथ ही साथ इस पर भी निगरानी रखी जाएगी कि ऐसी बंदी में जमीन माफिया से साठगांठ न हो। आंकड़ों के मुताबिक जो एक प्रतिष्ठित अंगे्रजी समाचार पत्र में प्रकाशित हुए थे, उत्तर प्रदेश में ही 236 ऐसे तकनीकी कालेज थे, जहां 2017-18 के सत्र में एक भी विद्यार्थी ने प्रवेश नहीं लिया था। 134 इंजीनियरिंग कालेज ऐसे थे, जहां एक से नौ तक विद्यार्थियों ने ही एडमिशन ली थी। इंजीनियरिंग व तकनीकी संस्थानों में माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा के विपरीत ही स्थिति होती है, जहां पहले की प्राथमिक कक्षाओं में तथाकथित निजी स्कूल सरकारी स्कूलों से पहले भर्ती की प्राथमिकता रहती है, वही इंजीनियरिंग व तकनीकी शिक्षाओं में पहली प्राथमिकता सरकारी संस्थान होते हैं। चूंकि जहां एक तरफ ऐसे दाखिलों के लिए प्रतिस्पर्धा बहुत ज्यादा रहती है, दूसरी तरफ हर मां-बाप जिसके पास पैसा है, डोनेशन या भारी फीस देकर भी अपने बच्चों पर इंजीनियर होने का ठप्पा लगवाना चाहते थे। उसका फायदा पूंजीपतियों ने तथाकथित इंजीनियरिंग मैनेजमेंट कालेजों को खोल कर उठाना चाहा।
वे काफी वर्षों तक उसमें सफल भी हुए, किंतु जब ऐसे संस्थानों का खोखलापन नजर आया तथा उनके प्लेसमेंट आदि के खोखले दावों की पोल खुली तो आज उनको विद्यार्थियों के भी लाले पड़ गए हैं। अभिभावकों की इस नाक की लड़ाई का (हर हालत में बच्चों को इंजीनियर बनाना ही है) फायदा कोचिंग संस्थानों ने भी उठाया। अपनी सफलता के भी ये विज्ञापनों के जरिए झूठे-सच्चे दावे करते हैं। जैसे देहरादून का नाम तथाकथित अंगे्रजी स्कूलों को खोलने में शातिर लोग सुनाते हैं, लगभग वही स्थिति कोचिंग में कोटा शहर के नाम को सुनाने के संदर्भ में भी होती है, परंतु असल में कोटा में भी कोचिंग संस्थानों में गलाकाट होड़ मची है। वहां कोचिंग संस्थानों में भी पढऩे वालों पर इतना दबाव रहता है कि पिछले कुछ वर्षों से सुसाइड नोट में अपने माता-पिता से उनकी अपेक्षाओं पर खरा न उतरने के लिए माफी मांगते हुए कई होनहारों ने आत्महत्याएं की हैं। प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग संस्थानों से निकलने के बाद भी वहां की पढ़ाई के दबावों को न झेल सकने के कारण भी कई छात्रों ने आत्महत्याएं की हैं। इन सारी स्थितियों से बच्चों को बचाने के लिए माता-पिता व समाज को आत्ममंथन से समाधान ढूंढने होंगे और उस राह पर बढऩा होगा।
तथ्य यह भी है कि स्तरहीन तकनीकी संस्थानों ने सीटों को बेचकर चांदी कूटी है। तथाकथित इंजीनियरों की ऐसी अनुपयोगी फौज खड़ी हो गई है कि नए को तो छोडि़ए, इन्हीं को स्किल देने की जरूरत है, जिसके लिए अरबों-खरबों रुपए की दरकरार होगी। वैसे तकनीकी डिग्री प्राप्त बेरोजगारों की भीड़ कम करने के भी प्रयास जारी हैं। 2015 में अधिकारिक प्रक्रियाओं से सीटों को भी कम किया गया, जो आगे भी जारी रहेगा। 2015 में जहां तकनीकी संस्थानों में लगभग पौने सत्तरह लाख सीटें थीं, उसको घटा कर दस से 11 लाख के बीच लाया गया था। देश आज गांव-गांव में फैली जुगाड़ टेक्नोलॉजी का भी शुक्रगुजार है। शायद आपको भी यह अनुभव रहा है, जब वाहनों की समस्या, मशीनों, इलेक्ट्रिकल, घरेलू या व्यावसायिक ब्रांडेड सामानों की समस्या से दो-चार होते हैं, तो हमें वे पुर्जे नहीं मिलते, जिनकी दरकार होती है। ऐसे में कस्बाई या गांव की जुगाड़ टेक्नोलॉजी ने मदद की है। ये समर्थ जन नि:संदेह स्किल इंडिया के ध्वजवाहक हैं। ऊंची दुकान फीके पकवान की इस बहस में उनको नवभारत का सलाम!