वेद और वैदिक संस्कृति की विशिष्टता, भाग – 3
गतांक से आगे क्रमशः
केवल वही साथी पढ़ें जो अपनी बुद्धि कौशल, ज्ञान बल , चातुर्य एवं तर्कशक्ति को समृद्ध करना चाहते हैं।
वेद विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ हैं।
वेद अपौरुषेय हैं।
वेदों में नदियों पहाड़ों राजाओं के नाम नहीं हैं।
वेदों में राजाओं का कोई इतिहास नहीं है।
वेदों में किसी भी राजा की कोई वंशावली नहीं है।
वेदों की भाषा अलंकारिक है। जिसको पुराणकारों ने वास्तविक संदर्भ और उचित अर्थ में न लेकर अनर्थ किया है और इतिहास वेदों में होने का भ्रम पैदा कर दिया है। पुराण वेदों की अपेक्षा अर्वाचीन हैं।
पुराणकार ऋषि नहीं थे ।
पुराणों में कुछ ऐतिहासिक तथ्य अवश्य है परंतु व पूर्णतया सत्य नहीं है।
शांतनु और गंगा कौन है?
अश्विनी किसको कहते हैं?
इंद्र,वृत्र, आयु,त्रिशंकु, विश्वामित्र, पुरुरवा, उर्वशी , ययाति, शुक्र,
पौर ,देवयानी, शम्बर ,नाग, अंबा, अंबिका, अंबालिका, नभ, अग्नि, बलि, यदु, द्रुहृयु ,अनु, अर्जुन और कृष्ण कौन है?
क्या पुराणों में जो असंभव कथाएं लिखी हैं वह वेद के आकाशीय वर्णन है?
क्या पुराणों में ततनाम वाले राजाओं के साथ इन घटनाओं को मिलाकर गड़बड़ पैदा कर दी है?
संक्षिप्त में अंत के दोनों प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक होगा।
लेकिन उदाहरण के लिए विस्तार पूर्वक निम्न आलेख पढ़ें।
पूर्व के लेख में यह उल्लेख किया गया था कि वेदों में इतिहास नहीं है बल्कि अलंकारिक भाषा है। जिनको पृथ्वी पर उत्पन्न हुए पुरुषों के साथ जोड़कर पुराण- कारों ने अर्थ का अनर्थ किया है।
उदाहरण के लिए पुराणों में आयु का पुत्र नहुष लिखा हुआ है। नहुष को इंद्र की पदवी मिली थी ।यह इंद्र और इसकी अप्सराओं का ऊपर वर्णन हो चुका है ।यह इंद्र भी सूर्य ही है। नहुष एक बार सूर्य सिद्ध एवं स्थापित हो चुका है ।यहां हम नहुष से संबंध रखने वाले कुछ वेद मंत्रों को उद्धत करते हैं,और दिखलाते हैं कि उक्त मंत्रों में किस प्रकार के पदार्थ सिद्ध होते हैं।
आ यातं नहुषस्यरयान्तरिक्षात सुवृक्तिभि।
पिबाथो अश्विना मधु।
(ऋग्वेद 8 / 8 / 3 )
नहुष के ऊपर अंतरिक्ष से कोई आते हैं। इसी में अश्विन शब्द भी आया है। यह अश्विन शब्द आकाशीय पदार्थ के लिए प्रयोग किया गया है।
अध ग्मन्ता नहुषो हवं सूरे —-नभो जुवो यत्रिरवस्य राध:
(ऋग्वेद 1/122 / 11)
इसमें नहुष को सूर्य से नीचे बताया जा रहा है। इससे आगे शब्द नभ भी है जो आकाश वाची है।
स निरुध्या नहुषो यह्वो अग्निरविशश्चक्रे बलिहत:सुहोभि।
(ऋग्वेद 7 / 6 / 5)
नहुष अग्नि के सहित रुका हुआ है। इसी में बलि शब्द भी आया है अर्थात बलि की चर्चा भी आई है।
सूर्यामासा विचरन्ता दिविक्षता धिया शमीनहुषी अस्य बोधतम।
(ऋग्वेद 10 / 92 ,/ 12)
चौथे मंत्र में कहा गया है कि सूर्य के मास दिवि में विचरते हैं ।जिन्हें नाहुषी जानना चाहिए।
यदिन्द्र नाहुषीव्या।
अग्ने विक्षु प्रदीदयत।
(ऋग्वेद 8 / 6 / 24)
पांचवें और अंतिम मंत्र में कहा गया है कि इंद्र नहुषों में प्रकाशित होता है।
उपरोक्त मंत्र पूरे नहीं लिखे गए हैं बल्कि हमने केवल आधे अधूरे लिखें हैं। परंतु उनके अर्थ संदर्भ के अनुसार बहुत महत्वपूर्ण है। जिनसे हम अपना मंतव्य सिद्ध करना चाहते हैं।
क्योंकि इन मंत्रों में नहुष का संबंध अंतरिक्ष, अश्विन ,सूर्य ,नभ, अग्नि, बलि, इंद्र और मास के साथ हुआ है ।उधर पुराणों में उसके इंद्र पद पाने का वर्णन है। ऐसी दशा में कैसे कहा जा सकता है कि वेद का यह नहुष मनुष्य है, अथवा राजा है।
ऐसे ही जहां पर नाग शब्द आया है उस नाग के भी कई अर्थ है। परंतु यहां यह नहुष बादलों के अर्थ में नाग कहा गया है। वेदों में अहि बादल को कहते हैं। इसलिए महाभारत में भी बादलों को नाग कहा गया है। महाभारत वन पर्व में लिखा है कि अगस्त नक्षत्र के उदय होते ही सर्परूपी पानी का— बादलों का ध्वंस हो जाता है।
यदु ,तुर्वश, पूरू, द्रुहृयु और अनु।
यह पांचो ययाति के लड़के हैं।
राजा ययाति की एक रानी शुक्र की लड़की थी और यह वही शुक्र है जो आकाश में ग्रह है ।दूसरी रानी वृषपर्वा की लड़की थी। यह वृषपर्वा बादलों के सिवा और कुछ भी नहीं है।
ययाति को अंगार की भांति बतलाया गया है और शुक्र ग्रह की लड़की के साथ उसका विवाह बतलाया गया. इससे तो स्पष्ट हो गया कि यह ययाति भी कोई तारा है। परंतु वेदों में इस बात का कोई वर्णन नहीं है कि अमुक अमुक का पुत्र था या पिता। वहां तो केवल यह शब्द आते हैं और इन शब्दों के जो वाच्य हैं उनका वर्णन आता है।
उदाहरण के लिए देखिए।
1 अन्नासत्या परावति यद्धा स्थो अधि रथेन सुवृता न आ गतं साकं सूर्यस्य रश्मिभि।
ऋग्वेद में जो विद्युत तुर्वश में है वह सूर्य की रश्मियों से आ गई।
2 अग्निना तुर्वशं यदुं परावत उग्रदेवं हवामहे।
( ऋग्वेद 1 / 36 /18 )
अग्नि से तुर्वश यदु को दूर करते हैं
3 समुद्रमति शूर पर्षि पारया तुर्वशं यदुम
( ऋग्वेद 1 / 174 / 9 )
प्रकाश से तुर्वश यदु को पार करो।
4. अंतरिक्षे पतथ: पुरुभुजा (ऋग्वेद 8 / 10 / 6 )
अंतरिक्ष का रास्ता पूरू है।
5. यदुषो यासि भानुनां सं सूर्येण रोचसे।
( अथर्ववेद 20 /142 / 3)
यदु सूर्य के द्वारा जाते हैं।
6 – हव्यवाहंपुरूर्प्रियम (अथर्व0 20 /101/ 2)
हुत पदार्थों को ले जाने वाला पुरु।
7 . अनुपुत्रोस्यौकस: (अथर्व0 20 / 26 /3 )
अनु का घर द्युलोक में है।
8 . पूरुरेतो दधिरे सूर्यश्चित: (अथर्व0 6 /49 / 3 )
पुरु सूर्य के आश्रित है।
9 . इंद्रो मायाभि पूरुरूप ईयते। (ऋ0 6 / 47 /18)
इंद्र माया करके पुरु बन जाता है।
10 . प्रातरग्नि पूरुप्रिय । ( ऋग्05 /18/ 01 )
प्रातः काल का हवन पूरु को प्रिय है।
11. यदिन्दिराग्नि यदुषु तुर्वशेषु यद् द्रुहृयुष्वनुषु पुरुषु स्थ:
( ऋग्01/ 108 / 8)
जो इंद्र और अग्नि यदु, तुर्वश द्रहृयु ,अनु और पुरु में है।
उपरोक्त वर्णन से ऐसा आभास पड़ता है कि जैसे मनुष्यों के नाम हैं लेकिन इसका तात्पर्य है कि हम बुद्धि से धोखा खा रहे हैं।
जिन पदार्थों का संबंध विद्युत, सूर्य, रश्मि, अग्नि , अंतरिक्ष ,इंद्र ,शचीऔर अनेक आकाशास्थ पदार्थों से है ।जो सूर्य की रश्मियां के द्वारा आते और हव्य ले जाते हैं। तथा जिनमें विद्युत रहती है। ऐसे पदार्थ मनुष्य नहीं हो सकते ।हमारी समझ में तो मनुष्य नहीं है ।ज्योतिष के ग्रंथों में लिखा है कि बुध, गुरु और शनि यह सदा पौर हैं। पूरु से ही पौर होता है जिस से ज्ञात होता है कि एक ही नक्षत्र मिलकर यदु तुर्वश आदि कहलाते हैं। वेदों में इनका जो युद्ध वर्णित है वह युद्ध भी आकाशीय है ।सूर्य सिद्धांत अध्याय 7 में यह ग्रह युद्ध वर्णित है ।तारा और ग्रहों के परस्पर योग का नाम युद्ध है।
पुराणकारों ने इस नक्षत्र वंश के वर्णन को घसीट कर राजाओं के वर्णन के साथ मिला दिया। जिससे यह भ्रम उत्पन्न हो गया।
ऋग्वेद 10 / 98 सूक्त के अतिरिक्त वेदों में शंतनु शब्द अन्यत्र कहीं नहीं आया। इसलिए इस शब्द का स्पष्टीकरण नहीं हो सकता। परंतु प्राचीन काल के ऋषियों ने इस शब्द का अर्थ वैद्यक के ग्रंथों में लिख रखा है ।सुश्रुत में शंतनु शब्द आया है। जहां शंतनु का अर्थ धान्य है। इस शंतनु नामी धान्य का जीवन वर्षा है। अश्विन के महीने में इस धान्य को वर्षा की आवश्यकता होती है। आश्विन की वर्षा ही गंगा है। वह गंगा जब शांतनु से अपना परिणय करती है तभी उसका तप्त हृदय प्रफुल्लित होता है। उस गंगा को शांतनु के लिए ऊपर कही हुई विद्युत और जल शक्तियों प्रेरित करके नीचे लाती है। इसी को पौराणिकों ने लिख दिया कि आर्षष्टिषेणदेवापि ने यज्ञ करके शंतनु के राज में पानी बरसाया और गंगा से शंतनु की शादी हुई।
पुराण की यह कथा वेदों में आए हुए शांतनु आर्ष्टिषेणदेवापि आदि शब्द और उनसे संबंध रखने वाला वर्षा का विज्ञान हमें तुरंत वेदों में इतिहास की ओर बड़े प्रबलता से खींचने लगता है ।परंतु जब उन शब्दों को उन मंत्रों को ध्यानपूर्वक देखा जाता है तब ज्ञात होता है कि वहां बात ही कुछ और है।
इसी प्रकार का एक दूसरा अलंकार ऋग्वेद 4 /15 में आए हुए सोमक: सहादेव्य: के विषय का है।
महाभारत मीमांसा प्रष्ठ 107 पर वैद्य महोदय जिन सहदेव सोमक की चर्चा करते हैं वे चंद्रवंशी ही है। किंतु ऋग्वेद चार बटे 15 में आए हुए सोमक सहदेव दूसरे ही हैं ।इन मंत्रों के साथ उस घटना का मेल मिलाना उचित नहीं है। यह घटना दूसरी ही है। इन मंत्रों में तो किरणों का और आश्विन देवताओं का संबंध सोमक सहदेव के साथ लगाया गया है ।किरण और अश्विन आकाशीय पदार्थ हैं। इसलिए यह हरिवंश अध्याय 32 के सहदेव सोमक नहीं है।
बोधद्यन्मा हरिभ्या कुमारं साहदेव्य:। अच्छा न हूत उदरम।।
—————-++—–तं युवं देवावश्विना कुमारं साहदेव्यं दीर्घायुषं कृणोतन।
अर्थात जब सहदेव के पुत्र ने मुझे दो किरणों के साथ कर दिया, तब मैं बुलाए की भांति उपस्थित हो गया। मैंने उस सहदेव पुत्र से उन दोनों किरणों को शीघ्र ग्रहण कर लिया।
हे अश्विन देवताओं! सहदेव का यह सोमक आपके लिए दीर्घजीवी हो।
हे अश्विन देवताओं !उस युवा सहदेव के सोमक को दीर्घायु कीजिए।
अश्विनों के द्वारा अच्छे स्वस्थ भले चंगे होने वाले सदैव आकाशीय पदार्थ ही होते हैं। यह अश्विन देवताओं के वैद्य हैं जिस प्रकार त्वष्टा देवताओं के बढ़ई और इंद्र देवताओं के राजा हैं, उसी प्रकार अश्विन देवताओं के वैद्य हैं। न इंद्र आदि राजा ही मनुष्य हैं, न उनकी प्रजा —-देवता ही मनुष्य हैं ।ना उनके वैद्य ही मनुष्य हैं। और न उनके सोमक सहदेव रोगी ही मनुष्य हैं।वैद्यक में तो सहदेव सोमक दवा के नाम हैं।
जिस प्रकार अंबा, अंबिका और अंबालिका यजुर्वेद के 12 बटा 76 में आई हैं जिनको त्रयंबकम कहा गया है। तीनों अंबाओं का सुगंधित और पुष्टि बढ़ाने के लिए मैं हवन करता हूं। यह औषधियों का वर्णन है उसी प्रकार सोमक सहदेव का भी वर्णन औषधियों के लिए हुआ है।
इसी प्रकार हमने चंद्रवंश के कुछ राजाओं के नामों को जो वेदों में पदार्थों के नाम पाए जाते हैं उन्हीं मंत्रों के अन्य शब्दों से जांचा और पुराणों में कही गई चमत्कारी वर्णनों से मिलाया तो यह राजा नहीं ,मनुष्य नहीं,प्रत्युत सृष्टि के कुछ अन्य ही पदार्थ सिद्ध हुए ।हमें तो आश्चर्य है कि जो लोग इन शब्दों से राजाओं का अर्थ ग्रहण करते हैं ।वे उन्हीं मंत्रों में आए हुए अन्य शब्दों का क्या अर्थ करते होंगे? सहदेव और सोमक को पुरु, द्हृयु आदि पांचों भाइयों को तथा अंबा, अंबिका, अंबालिका को एक ही जगह देखकर शायद कोई इतिहास प्रेमी हट करें कि यह घटना अलौकिक नहीं है। परंतु वे तनिक संसार की शैली पर ध्यान दें। वेद में कृष्ण और अर्जुन एक ही स्थान पर आए, और दोनों का अर्थ दिन है। लेकिन यहां लोक में दोनों पुरुषों की अटूट मित्रता से ही कृष्ण अर्जुन नाम रख दिए गए हैं।
इस वर्णन से सरलता से यह ज्ञात होता है कि जिन को परिश्रम नहीं करना, बुद्धि का अनुप्रयोग नहीं करना और जिनको पाश्चात्य विद्वानों के कथन पर वेद से अधिक विश्वास है, वे उनसे प्रभावित होने के कारण ही वेदों से इतिहास निकालने का व्यर्थ श्रम करते हैं।
अभुत्स्यु प्र देव्या साकं वाचाहमश्विनों ।
व्यावर्देव्या मतिं वि रातिं मर्तेभ्य:। ( ऋग्वेद 8 / 9 / 16)
मैं अश्विन (अर्थात शिक्षकों और उपदेशकों )की दिव्य वाणी के द्वारा जागृत हो चुका हूं। हे दिव्य वाणी की ऊषा! आप अपने ज्ञान के प्रकाश से मेरी बुद्धि पर जो अज्ञानता के अंधकार का आवरण पड़ा हुआ है उसे नष्ट कर दें।
अर्थात अश्विन का अर्थ अलौकिक दिव्य बुद्धिवर्धक पदार्थ से है।
क्रमशः
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत समाचार पत्र