वैदिक सम्पत्ति : मण्डल, अध्याय और सूक्त आदि
गतांक से आगे …
ऋषि, देवता आदि के आगे बढ़ते ही मन्त्रों पर दृष्टि पड़ती है और दिखलाई पड़ता है कि थोड़े – थोड़े मन्त्र एक -एक सूक्त अथवा अध्याय में और अनेक सूक्त अनेक मण्डलों में ग्रथित हैं । हम शाखाप्रकरण में लिख आये हैं कि यह काम आदिशाखा प्रचारकों ने ही किया है । इसी सम्पादित समूह को मूलसंहिता कहा गया है। इस सम्पादन में कुछ अपौरुषेयता है और कुछ पौरुषेयता सम्मिलित है । सम्पादनक्रम का ज्ञान परमेश्वर ने ही दिया है, इसलिए अनेक सूक्त ऐसे हैं जो बने बनाये आदि से ही चले आ रहे हैं। ऋग्वेद मण्डल एक के ‘वृजनं जीरदानुम्’ अन्तवाले, मण्डल दो के ‘विदथेषु सुवीराः’ अन्तवाले, मण्डल तीन के ‘सञ्जितं धनानाम्’ अन्तवाले और मण्डल चार के ‘रथ्यः सदासा’ अन्तवाले सूक्तों का क्रम किसी ऋषि का दिया हुआ नहीं है । इन सैंकड़ों सूक्तों के अन्त का मन्त्र एक ही एक वाक्य से समाप्त होता है, इससे ज्ञात होता है कि जिसने इन मन्त्रों की रचना की है, उसी ने उन सूक्तों की भी रचना की है, जिनके अन्त में एक ही समान वाक्य आते हैं। इसी प्रकार मण्डल दस का 58 वाँ सूक्त है। इस सूक्त के प्रत्येक मन्त्र में ‘मनो जगाम दूरकम्’ और ‘क्षयाय जीवसे’ पद आते हैं । इसी तरह ‘इंद्रस्येन्दो परिस्रव’ और ‘स जनास इन्द्रः’ वाले सूक्त भी आदि से ही बने हुए चले आ रहे हैं। समस्त सूक्तों को किसी शाखा बनानेवाले ने नहीं बनाया, प्रत्युत ये सूक्त आदि काल ही से एक में सुबद्ध चले आ रहे हैं। हाँ, शाखाप्रचारक ने इनको अपनी मरजी से अमुक मण्डल के अमुक स्थान में रक्खा है । परन्तु दूसरी प्रकार के सूक्तों को शाखाकार ने ही अपनी मरजी से मन्त्रों को सुक्त रूप में सूक्त में और सूक्तों को मण्डलरूप में ग्रथित किया है। इस बात का सुन्दर नमुना ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम’ दिखलाई पड़ता है । यह सूक्त ऋग्वेद 10।121 में है । इस सूक्त में 10 मन्त्र थे । परन्तु इस समय है ही पाये जाते हैं । अन्तावां ‘प्रजापते न त्वदेता.’ रख दिया गया है। यह मन्त्र इस सूक्त का नहीं है, क्योंकि जिसमें ‘हविषा इसके अन्त में हविषा विधेम नहीं है । इस सूक्त का 10 वाँ मन्त्र अथर्व 425 में चला गया विधेम’ मौजूद है * । जिस प्रकार ऋग्वेद के सूक्तों की रचना हुई है, उसी प्रकार यजु, साम और अथर्व की भी समझना चाहिए।
चारों वेदों का आये हुए सूक्तों , मंडलों अध्यायों और आर्चिकों में सब मंत्र इसी तरह ग्रथित हैं। इस ग्रंथन पौरूषेय और अपौरुषेय दोनों हाथ रूप से विद्यमान है। इसलिए संभव है कि पौरुषेय सम्पादन में त्रुटि हो – मंत्र और सूक्त उचित स्थान में न हो -परंतु शेष रचना सुसमृद्ध है । इसमें संदेह नहीं ।
- आपो वत्सं जनयंतर्गर्भमग्रे समैरयन् । तस्योत जायमानस्य उल्ब आसीद्विरण्ययः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।। ( अथर्व० 4/2/8)
क्रमशः