गीता का नौवां अध्याय और विश्व समाज
इस प्रकार ईश्वर को एक देशीय न मानना स्वयं अपने बौद्घिक विकास के लिए भी आवश्यक है। आज का मनुष्य धर्म में भी व्यापार करता है। इसलिए हम उसे व्यापार में मुनाफे का एक सौदा बता रहे हैं कि वह ईश्वर को सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी माने और परिणाम में अपने बौद्घिक विकास की पराकाष्ठा को पा ले। जिसके लिए लोग तरसते हैं-कि मैं बौद्घिक रूप से सम्पन्न होऊं वह सौदा इतना सस्ता है? किसी ने सोचा भी नहीं होगा। वास्तव में यह ‘सस्ता सौदा’ ही ‘सच्चा सौदा’ है। जिन लोगों ने ‘सच्चा सौदा’ की दुकान लगाकर धर्म के नाम पर मुनाफा कमाने का धन्धा किया है-उन्हें योगेश्वर श्रीकृष्णजी के इस ‘सच्चे सौदा’ के रहस्य को अवश्य समझना चाहिए। साथ ही जिन लोगों ने ‘सच्चा सौदा’ के मुनाफे के फेर में पडक़र धर्म के नाम पर धन्धा कर रहे इन लोगों के सामने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया और अंधी श्रद्घा का प्रदर्शन किया-उन्हें भी समझना चाहिए कि ‘सच्चा सौदा’ क्या है?
इसी ‘सस्ते सौदा’ की ओर संकेत करते हुए श्रीकृष्णजी कहने लगे-मैं तो विश्वतोन्मुख अर्थात सर्वत्र रहने वाला हूं। कुछ लोग मेरी एकत्व रूप में तो कुछ नाना रूप में उपासना करते हैं। मैं ही क्रतु यज्ञ हूं, मैं ही पितरों को दिया जाने वाला पिण्डदान (स्वधा) हूं, मैं ही अग्नि को दी जाने वाली औषधि हूं, मैं ही मंत्र हूं, मैं ही घृत हूं, मंै ही अग्नि हूं, मैं ही आहुति हूं।
कहने का अभिप्राय है किईश्वर इस जग के कण-कण में है। उसके रूप को समझने की आवश्यकता है। उसके लिए यह नहीं कहा जा सकता कि वह केवल घृत में ही है-सामग्री या अग्नि में नहीं है। यदि ऐसा कहा गया तो यह विज्ञान और तर्क के विरूद्घ बात होगी। उसे सर्वत्र विद्यमान मानना और सब में उसकी सत्ता का विस्तार स्वीकार करना ही उचित और तर्कसंगत है। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए श्रीकृष्णजी कहने लगे कि-जगत का पिता मैं हूं, माता मैं हूं, धारण करने वाला मैं हूं, सुहृद मैं हूं, अनश्वर बीज मैं हूं आदि। मैं ही तपता हूं, वर्ष कराना न कराना यह मेरा काम है, मैं अमृत भी हूं और मृत्यु भी मैं ही हूं, मैं ही सत हूं और असत भी मैं हूं।
ऐसी स्थिति भक्त की बन जाए कि उसे सर्वत्र भगवान ही भगवान दिखायी देने लगे तो उसका आत्म कल्याण हो जाएगा। जब उसकी धारणा यह बन जाएगी कि भगवान सर्वत्र है तो वह पापपंक से मुक्त होने लगेगा। वह ज्योतियों की ज्योति परमज्योति परमात्मा जब उसे सर्वत्र भासने लगेगी तो हृदय गुफा में छाया घोर अज्ञानान्धकार स्वयं ही मिट जाएगा। हृदय गुहा का अंधकार मिट जाना ही तो मोक्ष का द्वार है। ऐसी स्थिति में भक्त का आनन्द के अजस्र स्रोत से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, और उसका जगत के प्रति दृष्टिकोण भी अत्यन्त पवित्र हो उठता है। जिसके लिए लोग जीवन खपा देते हैं कि मुझे ईश्वर का साक्षात्कार हो जाए-उसके लिए भक्त की आत्म कह उठती है-
‘जिधर देखता हूं उधर तू ही तू है’
हर इक शै में आता नजर तू ही तू है।”
जब हर शै में वह प्यारा नजर आने लगता है तो व्यक्ति के व्यक्तित्व का परम विकास हो जाता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व अपने चरम को पा लेता है और उसे पाने के लिए फिर कुछ शेष नहीं रह जाता।
कर्मकाण्डी और भक्तिमार्गी
ज्ञान, कर्म उपासना की त्रयी विद्या के आधार पर वेद तीन माने गये हैं। क्योंकि वेदों में यही त्रयी विद्या ही मिलती है। यह त्रयी विद्या ईश्वर के ज्ञान का विस्तार है। इसी में संसार की समस्त विद्याएं निहित हैं। संसार का सारा ज्ञान-विज्ञान इसी त्रयी विद्या से ही निकला है। हमने प्रयाग में जिस त्रिवेणी की कल्पना की है-वास्तव में यह त्रिवेणी हमारी वेद की त्रयी विद्या की ही द्योतक है। इस प्रकार विचारने से पता चलता है कि संसार के बड़े-बड़े पुस्तकालय और उनमें छिपे या रखे हुए बड़े-बड़े ग्रन्थ जो कि अनेकों प्रकार के ज्ञान-विज्ञान का दावा करते हैं-ईश्वर के द्वारा प्रदत्त वेद ज्ञान से ही निकले हैं, या कहिए कि वेद के ज्ञान-विज्ञान का ही विस्तार हैं। एक-एक विषय पर बड़े भारी-भारी ग्रंथ (सीरीज) लोगों ने लिख डाले हैं और उसके उपरान्त भी उनका ज्ञान-विज्ञान अभी अधूरा है। उनके आविष्कार एवं खोज अभी भी पूर्ण नहीं हुए हैं।
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसी त्रयी विद्या से युक्त वेदों को जानने वाले और ईश्वर के नाम का सोमरस पीने वाले अनहद के आनन्द में निमग्न रहने वाले, पाप रहित लोग यज्ञों द्वारा मेरी उपासना करते हुए स्वर्ग प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं। अपने पुण्य कर्मों को लेकर वे इन्द्रलोक में पहुंचते हैं, वहां द्युलोक में दिव्य देव दुर्लभ भोगों को भोगते हैं। जब उनके पुण्य कर्म क्षीण हो जाते हैं तो उन्हें उस स्वर्गलोक से अर्थात द्युलोक से पुन: इस संसार में अर्थात मत्र्यलोक में आना पड़ता है। ऐसे कर्मकाण्डी जीवन और मरण के इसी चक्र में पड़े रहते हैं।
संसार में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कि अनन्य भाव से मेरा (ईश्वर का) ध्यान करते हैं, उपासना करते हैं, उन भक्त जनों के योग-क्षेम का भार मैं स्वयं उठाता हूं।
योगक्षेम का अर्थ-सत्यव्रत सिद्घान्तालंकार जी करते हैं-‘योग का अर्थ है-जो प्राप्त न हो-उसे प्राप्त कर लेना, क्षेम का अर्थ है प्राप्त हो जाने पर उसे संभाल रखना।’
भक्त हृदय से यह कह दे या यह जीवन व्रत बना ले कि-
‘अब सौंप दिया इस जीवन का
सब भार तुम्हारे हाथों में।
है जीत तुम्हारे हाथों में
और हार तुम्हारे हाथों में।।’
तब उसके योगक्षेम का भार ईश्वर स्वयं उठा लेते हैं। बस आवश्यकता इतनी सी है कि ऐसा समर्पण भाव शुद्घ अंत:करण से कर दिया जाए। अंत:करण में पूर्णत: पवित्रता और शुद्घता का भाव छा जाए, तब व्यक्ति अपने आपको स्वयं ही हल्का सा अनुभव करने लगता है। क्योंकि उस स्थिति में उसका भार स्वयं भगवान उठा लेते हैं।
जब तक हम इस प्रकार के समर्पण की पराकाष्ठा को नहीं जान पाते तब तक अपने सफर के सारे बोझ को हम स्वयं ही उठाते और रखते घूमते रहते हैं। पर जैसे ही हमें पता चलता है कि हमारा जन्म-जन्म का साथी परमात्मा हमारे साथ है तो हम उस पर अपने सामान को छोडक़र वैसे ही निश्चिन्त हो जाते हैं जैसे संसार के लौकिक माता-पिता, सखा, मित्रादि पर छोडक़र निश्चिन्त हो जाते हैं। याद रहे ईश्वर हमारा कुली नहीं हो सकता। क्योंकि कुली पर तो नजर रखनी पड़ती है। वह हमारा नौकर भी नहीं हो सकता, क्योंकि नौकर पर भी सदा चौकस नजर रखनी पड़ती है। उसके लिए यही विशेषण उपयुक्त है कि वह हमारी माता है, हमारा पिता है आदि। यही कारण है कि श्रीकृष्ण जी अपने आपको कुली या नौकर नहीं कह रहे, सारे योग-क्षेम को उठाने के लिए कुली या नौकर का भाव काम नहीं करने वाला। उसके लिए तो माता-पिता आदि का भाव ही काम आएगा। यही कारण है कि योगेश्वर स्वयं को इन्हीं गुणों से युक्त कह रहे हैं। जो लोग अनन्य भाव से रत होकर प्रभु की उपासना करते हैं उनके लिए परमात्मा इसी रूप में सदा उसकी रक्षा करते हैं। क्रमश: