ओ३म्
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
वैदिक साधन आश्रम की स्थापना सन् 1949 में हुई थी। इसके संस्थापक बावा गुरुमुख सिंह जी और उनके श्रद्धास्पद आर्यसंन्यासी महात्मा आनन्द स्वामी थे। आश्रम में सभी प्रकार व श्रेणियों के साधक-साधिकायें आते रहे हैं। आश्रम में वर्ष में दो बार ग्रीष्मोत्सव एवं शरदुत्सव आयोजित किये जाते हैं। हम वर्ष 1970 से आश्रम के प्रायः सभी उत्सवों में उपस्थित होते रहे हैं। महात्मा दयानन्द जी रेलवे विभाग में सेवारत रहे। सन् 1912 में आपका जन्म हुआ था और सन् 1989 में आपकी मृत्यु हुई थी। रेलवे में 58 वर्ष की आयु में सेवा निवृत्ति होती थी। महात्मा दयानन्द जी रेलवे से सेवानिवृत्त होकर देहरादून आये और यहां के ‘जाखन’ स्थान में दो कमरों की कुटिया बनवाकर रहने लगे। इन दो कमरों की कुटियां में ही आपके पुत्र डा. सत्यानन्द जी का विवाह सन् 1976 में हुआ था। इस कुटिया में ही महात्मा जी समय-समय पर साधना, सत्संग एवं वृहद् यज्ञों का आयोजन कराते थे। अपने रेलवे विभाग के सेवाकाल के दिनों में ही आप महात्मा प्रभु आश्रित जी के सम्पर्क में आकर उनके शिष्य बन गये थे। आपकी महात्मा प्रभु आश्रित जी से अतिनिकटता थी। आपकी पुत्री श्रीमती सुरेन्द्र अरोड़ा जी का विवाह सम्बन्ध भी महात्मा प्रभु आश्रित जी ने दिल्ली के अपने एक शिष्य आर्य परिवार में कराया था। महात्मा प्रभु आश्रित जी ने सन् 1959 में यह विवाह सम्पन्न कराया था। यह प्रसंग आदरणीय श्रीमती सुरेन्द्र अरोड़ा जी ने हमें बताया था। देहरादून रहते हुए महात्मा दयानन्द जी का महात्मा प्रभु आश्रित जी की साधना स्थली ‘वैदिक साधन आश्रम तपोवन’ से निकट सम्बन्ध जुड़ना स्वाभाविक था। वहां साधकों को प्रशिक्षण के साथ साधना, यज्ञ एवं उपदेशादि कराने वाले एक समर्पित विद्वान की आवश्यकता थी। यज्ञों के प्रति महात्मा प्रभु आश्रित जी की शिष्य मण्डली में गहरी श्रद्धा पाई जाती है। यज्ञों के प्रति श्रद्धा महात्मा दयानन्द जी में बहुत पहले से थी। अतः सेवानिवृति के बाद आप देहरादून आकर वैदिक साधन आश्रम तपोवन से जुड़ गये और यहां धर्माचार्य एवं यज्ञ आदि कार्य सम्पन्न कराने वाले ब्रह्मा का दायित्व सम्भालने सहित साधको को ध्यान व उपासना का प्रशिक्षण देने का कार्य करने लगे।
महात्मा दयानन्द वर्तमान में पाकिस्तान स्थित मुलतान नगर के रहने वाले थे। सन् 1912 में आपका जन्म हुआ था। आपकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती पद्मावती था। आपकी चार सन्तानों में तीन पुत्रियां एवं 1 पुत्र हुए। तीन पुत्रियां श्रीमती विमला, श्रीमती सन्तोष एवं श्रीमती सुरेन्द्र तथा पुत्र डा. सत्यानन्द हैं। डा. सत्यानन्द जी के लखनऊ में भी एक दो चिकित्सालय हैं और अमेरिका में भी आप चिकित्सक हैं। श्रीमती सुरेन्द्र अरोड़ा जी 80 वर्ष की आयु की हैं और देहरादून में निवास करती हैं। आप आर्य विदुषी देवी हैं। आपने ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी से डा. प्रज्ञा देवी के साथ कुछ समय अष्टाध्यायी-महाभाष्य आदि की शिक्षा प्राप्त की है। वैदिक साधन आश्रम तपोवन में प्रत्येक उत्सव में आयोजित होने वाले महिला सम्मेलन का संयोजन आप ही करती हैं। महात्मा जी ने महात्मा प्रभु आश्रित जी के मार्ग पर चल कर यज्ञ के प्रचार व प्रसार का स्तुत्य कार्य किया है।
हमने आर्यसमाज से सन् 1970 में सम्पर्क व प्रवेश के समय से ही महात्मा दयानन्द वानप्रस्थी जी को यज्ञ कराते व प्रवचन करते देखा व सुना था तथा उनमें भाग लिया है। उनका दिव्य चित्र हमारी आंखों में विद्यमान है। उनके स्वर भी हमारी स्मृति में हैं। वह कैसे बोलते थे व अपनी बात को कहते थे, यह हमें स्मरण है। तपोवन आश्रम की यज्ञशाला में यज्ञ कराते हुए वह सूक्त पूरा होने पर कुछ मन्त्रों की प्रमुख बातों पर प्रकाश डालते थे। उनकी टिप्पणियां बहुत महत्वपूर्ण होती थीं। हमें एक घटना याद है। एक बार हम यज्ञशाला के बाहर तम्बू के नीचे श्रोताओं के रूप में बैठे थे। यज्ञ चल रहा था। उसी बीच हमने अपने मित्र स्वर्गीय श्री धर्मपाल जी से कुछ बातचीत बहुत धीमी आवाज में की थी। महात्मा जी सामने थे और हम दोनों एक दूसरे को देख रहे थे। हमें पता नहीं चला परन्तु जब सूक्त समाप्त हुआ और वह मन्त्रों पर टिप्पणी करने लगे तो बाद में उन्होंने कहा कि यज्ञ में उपस्थित श्रोताओं को परस्पर बातें नहीं करनी चाहिये। वेदों का ज्ञान नित्य है। हमारी आत्मा भी अनादि व नित्य तथा अमर है। हमने पूर्वजन्मों में अनेक बार यज्ञ किये होंगे। वेदों को पढ़ा और पढ़ाया भी होगा। वेदमन्त्रों का श्रवण भी किया होगा। हो सकता है कि यज्ञ में मन्त्रों का एकाग्रता से श्रवण करते समय हमें पूर्वजन्मों की कोई बात स्मरण हो आये या परमात्मा ही हमें कोई विशेष प्रेरणा कर दें। यदि हम बात कर रहे होंगे तो हम उससे वंचित हो जायेंगे। उनकी इन पंक्तियों को बोलने से पूर्व आहुतियों के समय हमने बात की थी अतः हमें लगा था कि महात्मा जी ने हमें ही यह प्रेरणा की है। यही कारण है कि महात्मा जी की वह बात हमें जीवन में बार-बार याद आती रहती है।
महात्मा दयानन्द जी आश्रम के सभी छोटे व बड़े यज्ञों को तो कराते ही थे, ग्रीष्मोत्सव तथा शरदुत्सव में वृहद वेद पारायण यज्ञों के ब्रह्मा भी आप ही होते थे। समापन समारोह में भी आप सबसे अन्त में बोलते थे। ईश्वर की कृपा व मेहरबानियों को याद करते व कराते थे और ऐसा करते हुए सहसा उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकलती थी। उनका कण्ठ भर आता था। आवाज निकलती नहीं थी। ऐसी अवस्था में वह अनेक बार रुमाल से अपनी आंखे पोछते थे। उनके हृदय की सरलता व उदारता ऐसी थी जिससे वह उत्तम कोटि के महात्मा व सन्त अनुभव होते थे। एक बार के उत्सव में उन्होंने एक संस्मरण सुनाया। उन्होंने कहा कि वह आश्रम के उत्सव के लिये दान संग्रह करने निकटवर्ती रायपुर स्थान पर अपनी टोली के साथ गये। वहां वह एक प्रसिद्ध चिकित्सक जो विदेशों में विद्यार्थियों को चिकित्सा विज्ञान पढ़ाते थे, उनसे उसके निवास पर मिले और उससे दान प्राप्त किया। वार्तालाप में उस चिकित्सक महोदय ने कहा कि मैं विज्ञान को मानता हूं परन्तु मैं आज तक इस रहस्य को नहीं जान सका कि एक बच्चा तीसरी मंजिल से नीचे गिरता है और सुरक्षित रहता है। दूसरी ओर एक पैदल यात्री ठोकर खाकर गिर जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। महात्मा जी ने इस वार्ता को सुना कर उस पर टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था कि इन घटनाओं में मनुष्य का प्रारब्ध व इस जन्म के सद्कर्म सहयोगी होते हैं।
महात्मा दयानन्द जी का तपोवन आश्रम का कार्यकाल जो सन् 1989 में उनकी मृत्यु से कुछ समय पूर्व तक का रहा, उसमें उन्होंने वैदिक साधन आश्रम की तन, मन व धन से सेवा की। उनके समय में आश्रम बुलन्दियों पर था। हमने देखा है कि उत्सवों के दिनों में आश्रम का परिसर श्रद्धालुओं से पूरा भर जाता था। वैदिक विद्वान भी उच्च कोटि के आते थे। किसी को यह पता नहीं होता था कि आश्रम का प्रधान और मंत्री कौन है। हम महात्मा जी को ही आश्रम व इसका सर्वेसर्वा अनुभव करते थे। हमने महात्मा जी का यह गुण भी अनुभव किया है कि वह आश्रम के किसी अधिकारी की चापलूसी या अनावश्यक प्रशंसा नहीं करते थे। वह सबकी वास्तविक स्थिति को जानते थे। फिर भी सुधार की दृष्टि से वह जो कहना होता था, कह देते थे। दिल्ली से ऋषि भक्त रामलाल मलिक जी उनके प्रति श्रद्धा व निष्ठा में भरकर तीन से पांच बसे लेकर आश्रम के उत्सवों पर आते थे। वह सभी दिल्लीवासियों को खूब दान देने की प्रेरणा करते थे। स्वयं भी देते थे और दिल्ली से धनसंग्रह करके लाते थे। श्री रामलाल मलिक जी जैसे ऋषि भक्त अब देखने को नहीं मिलते। आश्रम से जुड़े स्वामी चित्तेश्वरानन्द जी तथा आचार्य आशीष दर्शनाचार्य जी सहित आश्रम के प्रधान श्री विजय आर्य जी, मंत्री इंजी. प्रेमप्रकाश शर्मा जी आदि उच्च कोटि के ऋषिभक्त एवं वैदिक धर्म के प्रति निष्ठावान विभूतियां हैं जिस कारण आश्रम वर्तमान समय में भी प्रगति के पथ पर आरूढ़ है। यह भी बता दें महात्मा दयानन्द वानप्रस्थी जी देश के अनेक भागों में जाकर भी वृहद यज्ञ कराया करते थे। लगभग 1980 में चेन्नई के निकट के एक गांव मीनाक्षीपुरम का पूरा गांव धर्मान्तरित कर मुसलमान बना दिया गया था। आर्यसमाज ने इस चुनौती को स्वीकार किया था। महात्मा जी ने वहां जाकर यज्ञ का आयोजन किया था और सब ग्रामवासियों को शुद्ध कर पुनः ऋषियों के धर्म में लौटाया था। उन दिनों इस घटना से सम्बन्धित अनेक समाचार, लेख व चित्र सार्वदेशिक साप्ताहिक में छपे थे जिन्हें हमने देखा व पढ़ा था। महात्मा जी के इस योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
महात्मा दयानन्द जी के अनुज श्री विश्वम्भर नाथ मलहोत्र जी के सुपुत्र श्री शशिमुनि आर्य जी ने महात्मा जी के कुछ लेखों का एक संग्रह वैदिक साधन आश्रम, आर्यनगर, रोहतक (मोबाइलः 9899364721) से उपदेश-माला के नाम से प्रकाशित कराया है। इसमें दिये सभी विषय आध्यात्मिक हैं। आरम्भ में प्राक्कथन के रूप में महात्मा जी की सुपुत्री श्रीमती सुरेन्द्र अरोड़ा जी के कुछ शब्द दिये गये हैं जिनसे महात्मा जी के कुछ गुणों पर प्रकाश पड़ता है। वह लिखती हैं ‘जब कभी हम पूज्य श्रद्धेय महात्मा दयानन्द जी के जीवन पर विचार करते हैं तो हमें लगता है कि उनका जीवन सरल, सादा, कोमल व गम्भीरता से युक्त था। विचारों में समुद्र-सी गहराइयां थीं, जिन्हें हम उनके जीवन काल में समझ ही नहीं पाये। जब हम उनके प्रवचन सुनते थे या वह वेदमन्त्रों के अर्थ करते थे तो जनता मन्त्रमुग्ध हो जाती थी। एक-एक शब्द के, व्यवहारिक व आध्यात्मिक, कई-कई अर्थ निकालते थे। भावुक हृदय की गहराइयों से निकले शब्द सुनते ही रहने का मन करता था। कठिन से कठिन मंत्र को जीवन के प्रति प्रेरणादायक बनाकर सरल भाषा में जनता को समझाने की अद्भुत कला उनमे थी। यह सब प्रसाद उन्हें अपने सच्चे गुरु व प्रभु से मिला था क्योंकि उन्होंने अपना जीवन उनके चरणों में अर्पण कर दिया था। भक्ति की पराकाष्ठा समर्पण में है और अन्तिम सीढ़ी भी ईश भक्ति ही है। वह पूर्णरूप से समर्पित थे। उन्होंने ऋषि ऋण उतारने का पूर्ण प्रयास अन्तिम श्वास तक किया। हमने उनके जीवन की कई घटनाओं में देखा कि वह अपने प्रति वज्र से भी कठोर थे परन्तु जनता जनार्दन के लिये अति कोमल हृदय थे।’ महात्मा दयानन्द जी के सम्बन्ध में उनकी श्रद्धांजलि पर पूज्य स्वामी विद्यानन्द विदेह जी ने कहा था कि महात्मा जी सच्चे ईश्वरभक्त व गुरुभक्त थे और गृहस्थ की मर्यादाओं से परिपूर्ण थे। सादा, सरल जीवन होने से हम कह सकते हैं कि वह ‘गुदरी के लाल’ थे। उर्दूभाषी होते हुए भी जब वह सेवानिवृत्त होकर आये तो आस्था व श्रद्धा के साथ वेदों में ऐसे घुसे कि न दिन देखा न रात, हर समय उनके हाथ में वेद-भगवान् और लेखनी रहती थी। उसी कठोर तप से ही वह जनता के सामने आये। तपोमय जीवन ने उन्हें पूर्ण महात्मा बना दिया। वैदिक धर्म में विद्वानों की कमी नहीं है। विद्वता के साथ-साथ भक्ति का होना बहुत आवश्यक है। यह बात महात्मा जी के जीवन में पाई जाती थी। वे सदैव कहते थे, माली बनो मालिक नहीं। सेवक बनने में जो आनन्द है वह स्वामी बनने में नहीं है। सेवक की हर प्रकार की चिन्ता स्वामी को होती है। जीवन डोर प्रभु को सौंपकर तो देखो फिर क्या आनन्द है।‘ महात्मा जी के भतीजे और उपदेश-माला पुस्तक के सम्पादक श्री शशिमुनि आर्य ने भी महात्मा जी पर अपने कुछ विचार लिखे हैं।
महात्मा दयानन्द जी का जीवन स्वाध्याय, ईश्वर भक्ति, साधना, यज्ञ तथा उपदेश तथा वेदप्रचार आदि कार्यों में ही व्यतीत हुआ। वह सत्यनिष्ठ व यज्ञनिष्ठ थे। सत्याचरण की वह मूर्ति थे। वैदिक साधन आश्रम तपोवन उनके लगभग 15-19 वर्षों के सेवाकाल में सफलता की बुलन्दियों पर था। ईश्वर करे सभी ऋषिभक्त महात्मा दयानन्द वानप्रस्थी जी जैसे सत्यनिष्ठ, ऋषिभक्त, ईश्वर, वेदभक्त और वेदप्रचारक हो जायें जिससे आर्यसमाज अपने लक्ष्य पर आगे बढ़ सके। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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