शेफाली मार्टिन
राजस्थान
रंगों और रूपांकनों की भूमि, राजस्थान, चमकीले रंग के घाघरा और ओढ़नी पहने महिलाओं की छवि की कल्पना कराता है, जो अपने सिर पर बर्तनों को संतुलित कर पानी लाने के लिए रेगिस्तान में मीलों पैदल चलती हैं. इस काम का एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण हिस्सा इंडोनी का है. एक गोलाकार आधार जिसे सिर पर रखकर महिलाएं बर्तनों को संतुलित करती हैं. यह इंडोणी ऐतिहासिक काल से लेकर आज तक राजस्थान के लिए अस्तित्व का एक आदर्श रहा है, जो जीवन देने वाले पानी के कई बर्तनों को जोड़ता है, जिसे इस रेगिस्तानी राज्य की महिलाएं हर दिन सिर पर रखकर लाती हैं. चूंकि इंडोणी उनके जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा है, इसलिए इसे बनाने वाली महिलाओं ने गोटा के साथ इसे सुंदर और आकर्षक रूप देना शुरू कर दिया है, जो उनकी परंपरागत पोशाक को सुशोभित करता है. पुष्कर की महिला इंडोणी निर्माताओं ने इसे आकर्षक रंग और रूप देकर न केवल इसे आधुनिक बना लिया है बल्कि अब वह उनकी आजीविका का साधन भी बन गया है.
ऐसी ही एक इंडोणी निर्माता मंजू देवी हैं. जो अपने क्षेत्र की कई महिलाओं की तरह एक उद्यमी हैं और पुष्कर के बाहर गणहेरा गांव में एक छोटी सी दुकान चलाती हैं. 22 साल पहले भेरुंडा गांव से पुष्कर आने के बाद ही उन्होंने इंडोणी बनाना शुरू कर दिया था. मंजू बताती है कि “पुष्कर में अपने शुरुआती वर्षों में, मैं बाजार में चूड़ियों की टोकरी लेकर बैठा करती थी. मैंने देखा कि मेरी तरह चूड़ी बेचने वाली अन्य महिलाएं इंडोणी बना रही थीं. मैंने उन्हें देखकर सीखा और इसे बनाना शुरू किया, क्योंकि बहुत सारे लोग इन्हें पुष्कर से खरीदना पसंद करते हैं. अब मैं गणहेरा में एक छोटी सी दुकान चलाती हूं और यहां मैं अपनी इंडोनियों के लिए जानी जाती हूं,” मंजू अपनी दुकान पर इंडोणी के अतिरिक्त चूड़ियां, छोटे छोटे घरेलू सामान, गोटा, पिन, बिंदी, सैनिटरी पैड, रैपिंग पेपर और यहां तक कि झाड़ू भी बेचती हैं. उसने अपनी दुकान का नाम मंजू फैंसी स्टोर रखा है और उसे इस बात पर गर्व है कि वह कुछ ऐसा बेच रही है जो वह खुद बनाती है.
पुष्कर के बाजारों में यदि आप घूमने आएंगे तो आपको चूड़ी और आभूषण की ठेली या इन इंडोनियों की बिक्री करने वाली दुकानें अवश्य मिल जाएगी। इसके अलावा महिलाओं द्वारा ही बड़े और मोटे आकार की चूड़ियां बेचने वाली दुकाने भी देखने को अवश्य मिल जाएंगी। पुष्कर की बड़ी बस्ती में चूड़ी बेचने वाली इंद्रा देवी कहती हैं कि “हम सभी चूड़ियों के साथ-साथ इंडोनी बनाते और बेचते हैं, क्योंकि यह पुष्कर का एक विशिष्ट शिल्प है”. दरअसल इंडोणी अपने आप में किसी भारी वस्तु को सिर पर उठाकर बैलेंस के साथ चलने का एक प्रतीक है. गोल घेरे के आधार वाला यह सामान पुष्कर के परिधान निर्माताओं द्वारा कपड़े की बची हुई पट्टियों से बनाया जाता है.
हालांकि देश के अन्य राज्यों की तरह घर घर तक पीने के पानी को पहुंचाने की योजना के कारण माना जाता था कि राजस्थान की इस इंडोणी का महत्व समाप्त हो जाएगा और इसकी बिक्री कम हो जाएगी. लेकिन यह सच नहीं है, इसे बनाने वाली महिलाओं ने बताया कि “शादियों के दौरान की जाने वाली कलश रस्म में इंडोणी का बहुत महत्व है. इसलिए शादी के सीजन में इनकी काफी मांग रहती है. श्रावण के महीने में हरिद्वार से पानी लाने वाले कांवड़ यात्री भी हमारी इन्डोनियों का उपयोग करते हैं. इसके अलावा नवरात्रि में गरबा के दौरान भी इसका खूब उपयोग किया जाता है. इंद्रा देवी कहती हैं कि “किसी भी कार्य के लिए पुष्कर के इंडोनियों का उपयोग करना शुभ माना जाता है”. यही कारण है कि आधुनिक युग में भी इसकी महत्ता किसी प्रकार से कम नहीं हुई है. न केवल अनुष्ठान, बल्कि स्थानीय लोक गीतों में भी राजस्थानी महिला के जीवन के आर्थिक पहलू में इंडोणी के महत्व को दर्शाया जाता है.
बुनियादी रूप से एक इंडोणी की कीमत 10 रु से शुरू होती है. एक प्रसिद्ध राजस्थानी गीत है जो सवा लाख की इंडोणी खो जाने के बारे में है और एक इंडोनी के बारे में पूरा अनुक्रम बनाता है जो पारंपरिक रूप से माता-पिता द्वारा दी गई राजस्थानी दुल्हन के दहेज का हिस्सा रहा है. महिलाएं थोक में इंडोणी बनाती हैं और उन्हें जयपुर, उदयपुर, निंबाड़ा और अन्य जगहों पर भेजती हैं. उन्हें एक बार में 100 से 500 पीस बनाने का ऑर्डर मिलता है. थोक के ऑर्डर में एक साधारण गोटा वाली इंडोणी 4 रुपये में और अधिक अलंकरण के साथ 15 रुपये में बिकती है. अधिक अलंकृत वालों का दुकान मूल्य लगभग 25 रुपये है. सबसे महंगी इंडोणी की कीमत लगभग 60 रुपये है. मंजू ऐसे इंडोनी भी बनाती है जिनका उपयोग छोटे-छोटे बर्तन लटकाने और अन्य सजावट के लिए किया जाता है.
40 वर्षीय मंजू कहती है कि “हर 15 दिन या एक महीने में, मैं 500 का पार्सल तैयार करती हूं. इसका भुगतान मेरे बैंक खाते में होता है. यह पार्सल का काम 15 साल पहले शुरू हुआ था. इसी थोक कारोबार ने मुझे आर्थिक रूप से सशक्त बनाया है. मैं कभी स्कूल नहीं गई, लेकिन मैं अपना व्यवसाय स्वतंत्र रूप से चलाती हूं. मैं अजमेर से उत्पाद और कच्चा माल मंगवाती हूं,” वह अपने दूकान की बाकी चीज़ों की बिक्री के ऊपर केवल इंडोणी बेचकर प्रतिमाह 3000 से 5000 रूपए तक कमा लेती है. वह एक दिन में 50 इंडोनियां बनाती हैं और उनके पति भी सुबह सिलाई के काम पर जाने से पहले उन के साथ इसे बनाने का काम करते हैं. मंजू की बेटियों की शादी हो चुकी है लेकिन जब भी वे उनसे मिलने आती हैं तो इंडोणी बनाने में उनकी मदद करती हैं.
मंजू का मानना है कि ऐसी जगह में होने के कारण जहां इन उत्पादों को बेचने वाली वह अकेली हैं, उन्हें इसका लाभ मिलता है. वह बताती हैं कि “जो महिलाएं पुष्कर के मुख्य बाजार में मुझसे खरीदारी करती थीं, वे भी यहां मेरे पास आती हैं. मैं इस दुकान के लिए रु 3,000 किराया देती हूं. इंडोणी की बिक्री से मैं किराए और अन्य बुनियादी खर्च पूरा कर पाती हूं. लेकिन कोविड के दौरान यह कठिन था. हालांकि, लॉकडाउन के दौरान दुकान के मालिक ने मुझसे किराया नहीं लिया,” वह बताती हैं और आगे कहती हैं कि इंडोणी बनाने और दुकान, दो अलग व्यवसाय होने से उन्हें काफी मदद मिलती है. वह बताती हैं कि “त्योहार के महीनो में, मैं इंडोणी की अपेक्षा चूड़ियाँ और अन्य सामानों को बेचकर अधिक कमाती हूँ. इसे बेचने वाली महिलाओं से मैं 1.50 रु. एक के भाव खरीदती हूँ. गोटा 500 रु किलो का मिलता है. आईना और अन्य सजावटों का भी अलग दाम है. इसलिए मुझको बुनियादी काम के लिए भी पैसे खर्च करने पड़ते हैं.”
सड़क के दोनों ओर पाँच-छह दुकानों वाले इस क्षेत्र में मंजू केवल तीन महिला दुकानदारों में से एक हैं. उसने तीन साल पहले गणहेरा गांव में दुकान शुरू की थी और वह पुष्कर की अंबेडकर कॉलोनी स्थित अपने घर से आती-जाती है. अंबेडकर कॉलोनी वह जगह है जहां सभी इंडोनी निर्माता महिलाएं रहती हैं. वे अपने दिन की शुरुआत सुबह 5-5.30 बजे करती हैं और घर का काम करने के बाद बाजार आकर पूरे दिन इंडोणी और चूड़ियां बेचती हैं. वे अपने खाली समय का उपयोग अपने स्टॉल पर और अधिक इंडोणी बनाने के लिए करती हैं. इनमें से ज्यादातर महिलाएं कभी स्कूल नहीं गई हैं.
इनमें 70 साल की कंचन देवी भी हैं, जो अपनी इंडोनियाँ लेकर सड़क किनारे बैठती हैं. वह जीवन भर यही करती रही हैं और अभी भी एक दिन में 20-30 रुपए कमा लेती हैं. वह बताती हैं कि “मेरे पास सादे इंडोणी भी हैं और नकली मोती, चांदी के रंग का गोटा और आईने वाले सभी प्रकार की विविधता वाले भी उपलब्ध हैं. “मैंने अपने जीवन में बहुत उतार चढाव देखा है. मैं रोज 8 से 10 किमी पैदल सिर पर टोकरी रखकर गोटा और इंडोणी बेचने बाज़ार जाती थी. अब बाजार में ज्यादा लोग आते हैं तो मैं यहां बैठ कर सामान बेचती हूं. मैंने अपना पूरा जीवन ऐसा ही करके बिताया है” वह अपना अनुभव साझा करती हैं और फिर राहगीरों को बुलाती हैं और उनसे अपनी इंडोनियाँ खरीदने के लिए कहती हैं.
आगे कुछ दूर सड़क पर कंचन की बहू शारदा भी है, जो सड़क किनारे स्टॉल लगाती हैं. वह एक दिन में 50 से 60 इंडोनियां बनाती हैं. उनकी 18 साल की बेटी खाली समय में उनकी मदद करती हैं. शारदा बताती है कि “इंडोणी पुष्कर का एक प्रमुख शिल्प है. यहां आस पास के ज्यादातर इंडोणी विक्रेता मुझसे संबंधित हैं. हालांकि मुझे नहीं पता कि मेरी बेटी भविष्य में यह काम करेगी या नहीं? हो सकता है वह कुछ और काम करना चाहे क्योंकि वह आगे पढ़ रही है. लेकिन मुझे यह काम पसंद है क्योंकि इससे मुझे अपने छोटे-छोटे खर्चे निकालने में मदद मिलती है”. वास्तव में पुष्कर के इंडोणी निर्माता कोई दौलत नहीं कमाते हैं लेकिन उनका शिल्प उन्हें अपना सर ऊँचा रखने में मदद करता है और उन्हें खुशी और आजादी देता है. उन्हें गर्व है कि उनके हाथों का काम दूर-दूर तक जाता है और लोगों के जीवन में उत्सवों को एक आधार देता है, ठीक उसी तरह जैसे एक इंडोणी अपने ऊपर टिके हुए कई बर्तनों को सहारा देती है. यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2022 के अंतर्गत लिखा गया है. (चरखा फीचर)
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