कायदे और कारगुजारी का अंतर
वीरेंद्र पैन्यूली
जिस दिन से देश आजाद हुआ, हर नेता तो यही कहता आता है कि अधिकारियों को फाइलों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि जमीनी हकीकत जानने के लिए जनता के बीच जाना चाहिए। किस जिला अधिकारी की यह जिम्मेदारी नहीं थी कि वह अपने जिला में स्वास्थ्य, शिक्षा व सफाई की समस्याओं को न होने दे। सरकारी संपत्ति पर कब्जा व अतिक्रमण न होने दे। कई राज्यों में तो प्रावधान है कि राज्य में विभिन्न स्तर के अधिकारी कितने दिन गांवों में रात्रि प्रवास करेंगे, परंतु इस पर शायद ही अमल होता हैज्
केंद्र सरकार 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए नौकरशाही से अपना काम करवाने की तोड़ ढूंढने पर लगी हुई है। राजनीतिक विपक्ष से पार पाने का काम तो दल-बदल करवा ही रहा है। इसी क्रम में एक राज्य की मुखर महिला मुख्यमंत्री, केंद्र सरकार के इन फरमानों को मानने के लिए तैयार नहीं है। इसी तरह कतिपय अन्य राज्यों से जवाब आए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि वहां विभिन्न स्तरों पर भविष्य के विकास की दिशा के लिए योजना दृष्टिकोण पत्र जिस तरह से बनते थे, उसी तरह से बनेंगे। जनता से उनकी प्राथमिकताओं को जानने के लिए जो प्रक्रियाएं अपनाई जाती थीं, वही अपनाई जाएंगी। यहां केंद्र सरकार को इस कटु सत्य को भी आत्मसात कर लेना चाहिए कि हर राज्य केंद्र शासित राज्य नहीं है व विपक्षी दलों की राज्य सरकारों के रहते हुए राज्य में तैनात अधिकारियों को सीधे अपने जिलों में ‘क्या करो व कैसे करो’ के निर्देश नहीं दिए जा सकते।
ब्रिटिश सरकार ने अपने निरंकुश शासन को सरकारी अधिकारियों के माध्यम से ही चलाया। मनमाने ‘कर’ थोपना और ‘राजस्व’ वसूल करना सरकार चलाने के पर्याय थे। इसलिए जिलों में कलेक्टर होते थे। आजाद भारत में यह दायित्व व व्यवस्था कायम है, परंतु जिला कलेक्टर की जगह आमजन की जुबान पर ‘डीएम’ ज्यादा प्रचलित पद लगता है। ऐसे में जब मीडिया में यह आया कि प्रधानमंत्री ने वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए पूरे देश के जिला कलेक्टरों को संबोधित किया, तो जिला अधिकारियों के लिए यह सुविचारित संबोधन लगा। शायद ब्रिटिशकालीन कलेक्टर शब्द को इस तरह तवज्जो देकर यह स्मरण करवाने की कोशिश की गई है कि राज्य हित में राजस्व वसूल करने के लिए कलेक्टर अपने व्यवहार में किस हद तक जा सकते थे।
संदेश यह भी जा रहा है कि चाहे आप जिस भी राज्य के जिला कलेक्टर हों, अपने राज्य के बजाय केंद्र सरकार के नारों और मिशनों को प्राथमिकता में रखना होगा। जिन राज्यों में केंद्र के दलों के गठबंधन वाले दलों की सरकार है, वहां तो समस्या नहीं आएगी। जिन राज्यों में विपक्ष की सरकारें हैं, वहां देर-सवेर समस्या जरूर आएगी। इसे कलेक्टरों के माध्यम से केंद्र का पोलिटिकल एजेंडा लागू करवाना माना जाएगा। जनता व राजनीतिक विश्लेषकों के पास इसे मानने के पर्याप्त कारण हैं। याद करें जब वेंकैया नायडू उपराष्ट्रपति चुन लिए गए थे, तो एक समारोह में कहा गया था कि चूंकि अब देश के सर्वोच्च तीन पदों पर एक ही विचारधारा के लोग हैं, इसलिए अपने विचारों के अनुरूप काम करने में आसानी होगी। उस समय से ही अगले पांच सालों के लक्ष्यों की बात शुरू कर दी गई थी। परोक्ष रूप से संकेत था कि कम से कम उसी विचारधारा के राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति पांच सालों तक अपने-अपने पदों पर रहेंगे। फिर इन्हीं पांच साल 2017 से 2022 तक की संकल्प विधि को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्त्वपूर्ण काल खंड 1942 से 1947 से जोड़ा गया। 1942 अंग्रेजो भारत छोड़ो का आह्वान वर्ष था और 1947 भारत की आजादी का साल। इन दो कालखंडों में उद्देश्यों में साम्य दिखाने व जनता को एक गैर राजनीतिक लगने वाला नारा देने के लिए 2022 तक नवभारत निर्माण के लिए ‘संकल्प से सिद्धि’ का मिशन भी दिया गया। जिस दिन से देश आजाद हुआ, हर नेता तो यही कहता आता है, हर प्रधानमंत्री यही कहते आए हैं कि अधिकारियों को फील्ड या फाइलों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि जमीनी हकीकत जानने के लिए क्षेत्र में जनता के बीच जाना चाहिए। किस जिला अधिकारी की यह जिम्मेदारी नहीं थी कि वह अपने जिला में स्वास्थ्य, शिक्षा व सफाई की समस्याओं को न होने दे। खाद्य आपूर्ति व्यवस्थित बनाए रखे। सरकारी संपत्ति पर कब्जा व अतिक्रमण न होने दे। कई राज्यों में तो पहले से ही प्रावधान है कि राज्य में विभिन्न स्तर के अधिकारी कितने दिन गांवों में रात्रि प्रवास करेंगे, परंतु इस पर शायद ही अमल होता है। जिन अधिकारियों की तैनाती क्षेत्रों में होती है, वे भी जुगाड़ करके सुविधाजनक स्थानों पर अपने कैंप कार्यालय बना लेते हैं या अपनी पोस्टिंग डेपुटेशन में मुख्यालयों में करवा लेते हैं। राज्यों में तो कई बार नेताओं, मंत्रियों के दबावों से पीडि़त अधिकारी राज्य से बाहर अपनी तैनाती की जुगत में लगे रहते हैं।
विडंबना यह भी है कि अफसरों का रखना, हटाना राजधानियों से तय होता है और जिनका कई बार दो साल तक जिला में रहना भी मुश्किल होता है, उनसे जिला का दृष्टिकोण पत्र अगले पांच सालों के लिए बनाने की अपेक्षा की जाती है। हर अधिकारी यह भी जानता है कि चाहे केंद्र की सरकार हो या राज्य की सरकार, प्राथमिकता में कार्य वहीं होंगे, योजनाएं वहीं आएंगी, जहां सत्तारूढ़ दलों के विधायक हों, सांसद हों या सरकार हो या जहां चुनाव या उपचुनाव हों। यही नहीं, विरोधियों के क्षेत्र में चलती योजनाओं के लिए संसाधनों का अकाल हो जाता है। ऐसे में जिला कलेक्टर वही करेंगे, जो एक चतुर अधिकारी करेगा। आश्चर्यजनक तो यह है कि किसी विधायक सांसद या जिला पंचायत अध्यक्ष द्वारा यह सवाल नहीं उठाया जा रहा है, जो दायित्व जनप्रतिनिधियों, जिला पंचायतों, नगर व महानगर निकायों का है, वह नौकरशाही के जिम्मे क्यों डाला जाता है? वैसे तो सदैव ही सांसदों या विधायकों की ये शिकायतें रहती थीं कि सांसद या विधायक निधियों से प्रस्तावित उनके कार्यों को जिला प्रशासन जिला योजनाओं में शामिल नहीं करता है। जिला पंचायतों के अध्यक्ष या पदाधिकारी भी इस तरह की शिकायतें विगत में करते रहे हैं कि जो कुछ जिला योजनाएं वे प्रस्तावित करते हैं, उन पर प्रभारी मंत्री अपने ढंग से काट-छांट कर देते हैं। जो भी हो, इस निर्णय के राजनीतिक निहितार्थ होने जा रहे हैं। जिला में केंद्र का हस्तक्षेप कम से कम आगामी लोकसभा तथा केंद्रीय प्रशासनिक सेवाओं के माध्यम से बढऩे जा रहा है।
मजबूत बाबू खासकर राष्ट्रीय व राज्य प्रशासनिक सेवा के आला अधिकारी यदि अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभाएं, गलत आदेशों का पालन न करें तो आमजन के कष्ट काफी हद तक कम हो सकते हैं। नि:संदेह ऐसे सीधी रीढ़ के अधिकारियों को हर समय अपना बिस्तर-सूटकेस तैयार रखना पड़ सकता है। ऐसे अधिकारी माफिया व आपराधिक तत्त्वों के निशाने पर भी रहते हैं। हालांकि सार्वजनिक रूप से आजादी के प्रारंभिक दिनों से ही जब-जब कोई नेता प्रशासकीय प्रशिक्षुओं या पदासीन अधिकारियों को संबोधित करता है, तो उपदेशात्मक लहजे से यह जरूर कहता है कि आप किसी नेता के दबाव में काम न करें।