दिल्ली भारत की राजधानी है। इसी शहर को कभी राजा इन्द्र की राजधानी या इन्द्रनगरी या इन्द्रप्रस्थ कहा जाता था। राजा इन्द्र की राजधानी या इन्द्रनगरी की कथा-कहानियां भारतवर्ष में आज भी बहुत प्रचलित हैं। राजा इन्द्र के दरबार का वैभव भी कथा-कहानियों और पुराणों में हमें बहुत कुछ सुनने और पढऩे को मिलता है। विदेशी विद्वानों द्वारा लिखे गये भारत के इतिहास में भारत के पुराने वैभव को मिटाने का हरसंभव प्रयास किया गया-अब यह तथ्य किसी से छिपा हुआ नहीं है। फलस्वरूप ‘इन्द्रप्रस्थ’ को भी भुलाने और मिटाने का प्रयास किया गया। जबकि हमारे पास महाभारत का प्रमाण है कि ‘इन्द्रप्रस्थ’ आज की दिल्ली का ही पुराना नाम है। ‘इन्द्रप्रस्थ’ में बना पुराना किला महाभारतकाल से भी पुराना है। अत: नई शोधों व खोजों से स्पष्ट हो रहा है कि राजा इन्द्र की राजधानी भी ‘इन्द्रप्रस्थ’ ही रही थी। इस प्रकार दिल्ली का भारत के इतिहास में प्राचीनकाल से विशेष महत्व है।
अब आते हैं भारत में दुर्ग निर्माण की कला पर। कौटिल्य अर्थशास्त्र में जल दुर्ग, गिरि दुर्ग, धन्व दुर्ग और वृक्ष दुर्ग-ये चार प्रकार के दुर्ग बताये गये हैं। पर्वत दुर्ग में वे दुर्ग थे जो पर्वतों पर ऊंचाई पर बनाये जाते थे। इन्हें सर्वोत्तम दुर्ग माना गया है। दूसरे नगर के चारों ओर परकोटा बनाकर उसमें प्रजा की शत्रु से रक्षा करने के लिए भी राजा विशेष उपाय करते थे। इस परकोटा को प्राकार कहा जाता था, दुर्ग में शस्त्रास्त्र रखने धन-धान्य वाहन, पढ़ाने के लिए ब्राह्मण आदि को रखने, कारीगरी के लिए शिल्पियों को रखने और चाराघास या जलादि से किले को सम्पन्न रखने की व्यवस्था भी की जाती थी, जिससे कि राजा के घोड़े आदि की घास व चारे की व्यवस्था होती रहे। किले के बीच में जल, वृक्ष, पुष्प आदि युक्त, सब प्रकार से रक्षित, सब ऋतुओं में सुखकारक होने की व्यवस्था की जाती थी।
नदी के किनारे के किले को दूसरे स्थान पर अच्छा माना जाता था। इसे जलदुर्ग कहा जाता था। इसके एक ओर नदी प्रवाहित होती थीऔर बाकी तीनों ओर नदी की धारा को किले की मुख्य दीवार के साथ एक खाई में लाकर बहाया जाता था। जिससे महल के लिए पानी की आपूत्र्ति होती थी, और संकट के समय यह खाई शत्रु से रक्षा कराने में सहायक होती थी।
भारत में दुर्ग विज्ञान की लाखों करोड़ों साल पुरानी परम्परा है। जिसके प्रमाण भारत के प्राचीन साहित्य में आपको खूब पढऩे को मिलेंगे। दुर्ग को संस्कृत में ‘कोट’ भी कहा जाता है। इस ‘कोट’ की रक्षा के लिए जिस अधिकारी को नियुक्त किया जाता था उसे ‘कोटपाल’ या दुर्गपाल कहा जाता था। इसके प्रमाण ‘मनुस्मृति’ आदि ग्रन्थों में मिल जाएंगे।
यह ‘कोटपाल’ किले और किले के बाहर जनता के लिए बने परकोटे का रक्षक होता था। इसलिए इसे जनता भी अपने लिए ‘कोटपाल’ ही कहती थी। यह ‘कोटपाल’ ही कालांतर में तुर्कों और मुगलों ने ‘कोतवाल’ बना दिया। हमने अपनी भाषा संस्कृत को भुलाया और गंगा-जमुनी संस्कृति केे मोह में बहकर ‘कोतवाल’ शब्द को अपना लिया-जिसका परिणाम यह हुआ कि हमें ‘कोतवाल’ का इतिहास मुगलों से पीछे दिखायी नहीं पड़ता। जबकि भारत में ‘कोतवाल’ का इतिहास उतना ही पुराना है जितना पुराना हमारा ‘राजधर्म’ और हमारी राज्य व्यवस्था है।
पिछले दिनों एक दैनिक समाचार पत्र में समाचार छपा कि दिल्ली का पहला कोतवाल अमुक मुस्लिम था। इस समाचार को पढक़र निश्चय ही हमारे छात्र-छात्राएं भ्रमित हो जाएंगे और वे नहीं समझ पाएंगे कि दिल्ली का पहला ‘कोतवाल’ ‘कोटपाल’ कौन था? वास्तव में दिल्ली के पहले ‘कोतवाल’ के बारे में कोई नहीं बता सकता कि यह कौन था? पर यह निश्चित है कि जब दिल्ली इन्द्रप्रस्थ थी तब भी इसमें ‘कोतवाल’ अर्थात ‘कोटपाल’ नियुक्त था। अच्छा हो हम अपने उस ‘कोटपाल’ के बारे में भी कुछ जानें और अपनी ‘कोटपाल’ की संस्कृति और अपनी संस्कृत भाषा को बचाये रखने का संकल्प लें।
आज के तथाकथित बुद्घिजीवी पत्रकार अनाप-शनाप कुछ भी लिख देते हैं। इन्हें न भाषा का ज्ञान है और न ही भारत की संस्कृति का ज्ञान है। भारत के राजधर्म और भारत की राज्य व्यवस्था के विषय में तो इन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं होता। फिर भी ये लिखते हैं और अपने लिखे को बच्चों के लिए सामान्य ज्ञान बनाकर परोसते हैं।
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