गुजरी माता जोरावर सिंह और फतेह सिंह का अप्रतिम बलिदान
अपना कत्र्तव्य पथ कभी नही छोड़ा
महान कठिनाईयों के आक्रमणों से व्यक्ति का जीवन महान बनता है। गुरू गोबिन्दसिंह की महानता इस बात में छिपी है कि उन्होंने अपने जीवन में महान कठिनाईयों का सामना हंसते-हंसते किया और अपना कत्र्तव्य पथ कभी नही छोड़ा।
कृतघ्न गंगाराम को ‘पुरस्कार’
एक बार सिरसा नदी की बाढ़ के कारण गुरूदेव का परिवार आपस में एक दूसरे से बिछुड़ गया। गुरू गोबिन्दसिंह के दो पुत्र अपनी दादी माता गुजरी के साथ थे। इन्हीं के साथ गुरूजी का रसोइया गंगाराम ब्राह्मण था। यह व्यक्ति इन तीनों को अपने गांव सहेड़ी ले गया। उस समय गुरू गोबिन्दसिंह के परिवार पर बादशाह की ओर से ईनाम बोल दिया गया था, इसलिए गंगाराम ब्राह्मण के मन में पाप आ गया। उसने माता गुजरी के पास स्वर्ण मुद्राओं से भरे थैले को चुरा लिया और स्वयं ने ही छत पर जाकर शोर मचा दिया कि मेरे घर में चोर आ गये हैं। माताजी ने समय को पहचाना और गंगाराम से कहने लगीं कि थैला चोरी हो गया है, तो कोई बात नहीं पर तुम इस समय शांत रहो। उन्हें डर था कि कहीं कोई चोरी की सूचना थाने में दे आया तो क्या होगा? सरहिंद के नवाब वजीद खां ने उन दिनों गांव-गांव ढिंढोरा पिटवा दिया था कि गुरू गोबिन्दसिंह के परिवार का कोई व्यक्ति शरण ना दे, अन्यथा उसे कठोर दण्ड दिया जाएगा। गंगाराम को शोर मचाकर माताजी व उनके दो पोतों को पकड़वाने का यह अच्छा अवसर जंचा। उसने निकट के थाने में जाकर माताजी और उनके दो पोतों के विषय में सूचना दे दी। थानेदार ने माताजी के सामान की चोरी का सत्य जानकर उल्टे गंगाराम की ही पिटाई कर डाली। इस प्रकार उस कृतघ्न गंगाराम को पुरस्कार के स्थान पर दण्ड मिला। परंतु थानेदार ने माताजी और उनके दोनों पोतों को सरहिंद के नवाब वजीद खान के संरक्षण में भिजवा दिया।
सरहिंद का नवाब बादशाह की प्रशंसा पाने के लिए माताजी और उनके दो पोतों को अपने समक्ष पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने उन तीनों प्राणियों को निराहार रखकर ठण्डे बुर्ज में बंद कर दिया। उस समय वैसे भी ठण्ड का मौसम था।
आपत्ति पर आपत्ति
रात्रि में दिसंबर की कडक़ड़ाती ठण्ड पड़ रही थी। माताजी अपने दोनों पोतों को जैसे-तैसे सुलाने का प्रयास करती रहीं। पर ऐसी कठोर यातनाओं में नींद का तो दूर-दूर तक भी अता-पता नहीं था। माताजी दोनों बच्चों का मनोबल ऊंचा रखने के लिए तथा किसी भी प्रकार के शाही प्रलोभन में न फंसकर निजधर्म और निजदेश की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए प्रोत्साहित करती रहीं। माता ने सारी रात भर दोनों बच्चों को देशभक्ति की ऐसी कथायें सुनाईं कि उनके भीतर भी देशधर्म पर मर मिटने का भाव उत्पन्न हो गया।
दादी मां ने निभाया अपना ‘महान कत्र्तव्य’
हमारी आदर्श राष्ट्रभक्त नारियों की महिमा भी अवर्णनीय है। जिन्होंने विषय से विषम परिस्थितियों में देश धर्म का नेतृत्व किया है। एक रात्रि में ही दादी माता ने दोनों बच्चों को अपने परिवार की कुल परंपरा की रक्षार्थ मानसिक रूप से तैयार कर लिया। बच्चे जब सुबह का सूर्य का देख रहे थे तो आज के सूर्य का केसरिया रंग उन्हें सीधे-सीधे बलिदानी भाषा बोलता हुआ दिखायी दिया। बच्चों ने उगते सूर्य को नमस्कार किया और उसकी भाषा का मुस्कराकर प्रति उत्तर दिया।
बलिदान की घड़ी आती जा रही थी निकट
प्रात:काल का सूर्य कुछ ही चढ़ा था कि नवाब वजीद खान ने उन तीनों दादी-पोतों को अपने दरबार में बुला लिया। उसने उन तीनों को भांति-भांति से विचलित करने का प्रयत्न किया। पर संसार का बड़े से बड़ा आकर्षण और पुरस्कार भी उन बच्चों को अपने धर्म से डिगाने के लिए छोटा पड़ गया। अंत मेंं उसने मौत या इस्लाम में से कोई सा एक चुनने का विकल्प भी दोंनों गुरू पुत्रों के समक्ष रख दिया।
गुरूजी का पुत्र जोरावर सिंह क्रोध से तमतमा रहा था। उसने नवाब वजीद खान को कठोर शब्दों में कह दिया कि मेरे पिता को मारने वाला कोई नहीं जन्मा। उन पर ईश्वर की असीम अनुकंपा है और यह भी कि हमें अपने धर्म से कोई नहीं डिगा सकता। हम जिस बलिदानी महापुरूषों के परिवार से हैं, उसकी प्रतिष्ठा का ध्यान रखना हमारा दायित्व है। अत: हम ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे-जिससे हमारे परिवार के अब तक के बलिदानों की गरिमा पर प्रश्नचिन्ह लगे, या परिवार को अपमान झेलना पड़े।
गुरूपुत्रों की साहसी वाणी को सुनकर नवाब वजीद खान को अच्छा नहीं लगा। वहां पर उपस्थित लोगों ने भी गुरूपुत्रों की स्पष्टवादिता को उचित नही माना। परंतु फिर भी उसने (नवाब वजीद खां ने) बच्चों को पहले दिन छोड़ दिया और वह स्वयं भी दरबार से उठ गया।
दादी ने पोतों का फिर बढ़ाया मनोबल
दादी मां को अपने पोतों की वीरता को देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने बच्चों का पुन: उत्साह वर्धन किया। दादी मां ने बच्चों को पुन: बताया कि उनके पूर्वज कितने आत्मसम्मानी थे और आत्मसम्मान के लिए जीना मरना व्यक्ति के जीवन का पावन उद्देश्य है। जो लोग इस आत्मसम्मान के भाव से शून्य होते हैं ऐसे लोग या ऐसी जातियां और ऐसे राष्ट्र संसार से मिट जाया करते हैं। बड़े लोगों के पदचिन्हों से देश और समाज का जनसाधारण प्रेरणा और ऊर्जा प्राप्त करता है। इसलिए बड़े लोगों को अपनी भूमिका का निर्वाह बड़ी सावधानी से करना चाहिए। तुम्हारे जीवन में चाहे जितने कष्ट आयें-अपने परिवार की मर्यादा का और देश के सम्मान का ध्यान रखना। दादी मां ने ऐसे मार्गदर्शन के साथ बच्चों को पवित्र विचार परोसे और तीनों दादी-पोते उस दिन सो गये।
दोनों वीर बालकों ने झुकने से कर दिया इनकार
अगले दिन नवाब ने पुन: अपने दरबार में इन बालकों को बुलावा भेजा। उसने इन दोनों को पुन: समझा-बुझाकर इस्लाम स्वीकार करने के लिए प्रेरित और बाध्य किया। परंतु उसके सारे प्रयास व्यर्थ ही रहे। बालकों पर दादी मां की प्रेरणा इस प्रकार चढ़ चुकी थी कि अब उसका रंग उतरना असंभव था। वीरागंना दादी ने अब तो उसका परिणाम आना शेष था। बालकों ने जब किसी भी प्रकार से नवाब के बहलाने-फुसलाने में आने से इंकार कर दिया तो यह स्पष्ट हो गया कि अब दादी मां की प्रेरणा का सुखद परिणाम आना निश्चित है। नवाब का दृष्टिकोण की परिवर्तित होने लगा, और वह भी अब बालकों के प्रति कठोरता के प्रदर्शन पर आने लगा। उसने बच्चों से स्पष्ट कह दिया कि वे इस्लाम या मौत में से किसी एक को चुन लें। यदि इस्लाम स्वीकार न किया तो फांसी दे दी जाएगी या जिंदा दीवार में चिनवा दूंगा। बोलो क्या कहते हो-मौत या इस्लाम?
नवाब की धमकी से दोनों भाईयों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। दोनों के चेहरे पूर्ववत प्रसन्नता बिखेरते रहें। इतना ही नहीं अब तो उनके चेहरे पर बलिदान की उमंग भी भीतर से बाहर आने लगी थी। उनकी महान आत्मा उन्हें बलिदान की परंपरा पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए भीतर से प्रेरित कर रही थी। इसलिए दोनों भाईयों (जोरावर सिंह और फतेहसिंह) ने नवाब को स्पष्ट कर दिया कि वह भी अपने दादा गुरू तेगबहादुर के पदचिन्हों पर चलकर बलिदान देने को तैयार हैं। पर इस्लाम स्वीकार नहीं करेंगे। जिस धर्म के लिए दादाजी ने अपना शीश दे दिया उस धर्म की रक्षा के लिए हम भी अपना शीश तो दे सकते हैं पर अपना धर्म नहीं छोड़ सकते। दोनों भाईयों ने परस्पर भी एक दूसरे से बातें कीं और दोनों ने ही ऐसा कोई संकेत नहीं दिया जिससे उनके विषय में यह अनुमान लगाया जा सके कि उन्हें मृत्यु से किसी प्रकार का भय है। उनके पराक्रमी स्वभाव को देखकर लोगों को आश्चर्य हो रहा था कि इतनी अल्पायु में इतनी वीरता-सचमुच ईश्वरीय कृपा का ही परिणाम हो सकती है।
कुल के नाम पर बट्टा नही लगने देंगे
जोरावरसिंह ने कहा-”हम गुरू गोबिन्दसिंह जैसी महान हस्ती के पुत्र हैं। हमारे बाबा गुरू तेगबहादुर जैसे शहीद हो चुके हैं। हम अपने कुल के नाम पर बट्टा नही लगने देंगे। हमारे खानदान की रीति है-सिर जावे तो जावे पर सिक्खी सिदक न जाये। हम धर्म परिवर्तन की बात ठुकराकर फांसी के फंदे को चूमेंगे।”
जोश में आकर फतेहसिंह ने कहा-”सुन रे सूबेदार! हम तेरे दीन को ठुकराते हैं। अपना धर्म नही छोड़ेंगे। अरे मूर्ख! तू हमें दुनिया का लालच क्या देता है? हम तेरे जाल में फंसने वाले नहीं। हमारे दादाजी को मारकर तुर्कों ने एक अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी है, जिसमें वे स्वयं भस्म होकर रहेंगे। हमारी मृत्यु इस अग्नि को हवा देकर दावाग्नि बना देगी। धर्म तो हमें क्या छोडऩा है, पर हम तुर्कों की जड़ें ही उखाड़ फेंकेगे।”
(संदर्भ : ‘श्री गुरू प्रताप ग्रंथ’ पृष्ठ-698)
नवाब के मुंह से अचानक निकल गया-”सांप के बच्चे सांप ही होते हैं।”
काजी ने निर्णय दिया-”इन दोनों बच्चों को जीवितावस्था में ही किले की दीवार में चिनवा दिया जाए।”
काजी का निर्णय नवाब ने स्वीकार किया और दोनों वीर पुत्रों को जीवित ही दीवार में चिनवाने की तैयारी की जाने लगी।
दोनों भाईयों पर काजी के इस निर्दयी निर्णय को सुनकर कोई भय का प्रकोप नहीं हुआ। वह शांतभाव से बड़ी प्रसन्न मुद्रा में यूं ही बैठे रहे मानो कुछ भी नहीं हुआ।
दादी मां को हुई प्रसन्नता
हां दादी मां ने अपने पोतों को उनकी वीरता पर थपथपाते हुए उन्हें अंतिम वीर प्रेम और ममतामयी दृष्टि से देखा। वह दादी मां एक शेरनी थी जो अब अंतिम क्षणों में भी अपने पोतों के लिए किसी प्रकार का विलाप न करके उनके निर्णय पर प्रसन्नता व्यक्त कर रही थी और उन्हें इस बात के लिए साधुवाद दे रही थी कि उन्होंने अंतिम क्षणों में अपनी वीरता का प्रदर्शन करते हुए परिवार की मर्यादा का पालन किया है। धर्म नहीं दिया चाहे शीश देना पड़ रहा है।
तभी एक मुगल सैनिक माता गुजरी और दोनों वीर भाईयों के निकट आता है। इससे पूर्व कि दादी माता कुछ समझ पाती या उस सैनिक के आने का प्रयोजन पूछ पाती उसने दोनों बच्चों को माता के हाथों से छीना और अपने साथ चलने का संकेत दिया। दोनों भाई उस सैनिक के साथ यूं चल दिये मानो किसी दावत में जा रहे हैं। दादी माता उन्हें तब तक देखती रही जब तक वे दोनों उसकी दृष्टि से ओझल नहीं हो गये।
दादी मां ने दे दी दो ‘चंदनों’ की भेंट
दादी माता ने हाथ जोडक़र अपने इष्ट से प्रार्थना की कि हे दयानिधे! मेरे इन दोनों लालों को हर कष्ट को प्रसन्नता से झेलने की शक्ति देना। इतिहास ने माता का अभिनंदन किया और उसकी आंखों में आंसू न देखकर स्वयं उसे झुककर नमन किया। मां का आशीर्वाद लेकर इतिहास का झोंका उसी प्रकार वहां से निकल गया जिस प्रकार हवा का झोंका पसीने से नहाये हुए किसी व्यक्ति के शरीर में सुखानुभूति कराते हुए वहां से निकल जाता है। गुजरी माता के सामने आज ‘पन्ना गूजरी’ का आदर्श आ गया था। माता ने इतिहास के इन गंभीर क्षणों का बड़े साहस से सामना किया और धर्म-पथ से विचलित न होने के लिए अपने हृदय को पाषाण बना लिया। माता ने समय आने पर अपने हजारों नहीं लाखों ‘चंदनों’ को बलिदान करने में तनिक भी देरी न करने की भारत की वीरांगनाओं की परंपरा का निर्वाह किया। जिसके लिए इतिहास भी गद्गद हो गया और वह क्षण इतिहास की अमूल्य धरोहर बन गये जिन क्षणों में उस देवी ने अपने एक नहीं दो चंदनों को ‘भारत माता’ के माथे का चंदन बनाकर ‘क्रांतिपथ’ पर आगे बढ़ा दिया।
इतिहास को गर्व है ऐसी दादी मां पर
इस क्रांतिपथ पर अपने ‘सिंहों’ को आगे बढ़ता देखना माता का लक्ष्य था, जीवनोद्देश्य था। इसी दिन के लिए वह अपने दो शेरों को पाल रही थी। भारतीय इतिहास की यह रोमांचकारी परंपरा है-जहां माताऐं अपने पुत्रों को स्वयं बलिदान के लिए सजाकर भेजती हैं। कितनी महान और शिक्षाप्रद परंपरा है-हमारे इतिहास की कि जिस बालपन को खेल में और जिस यौवन को सांसारिक सुखों में व्यतीत होना चाहिए-उस बालपन को या यौवन को हमारी माताएं ही देश धर्म पर बलिदान करने में अपना सौभाग्य समझती रहीं, अपनी कोख को धन्य करती रहीं और अपने आप को सौभाग्यवती मां या दादी कहती रहीं।
सचमुच इन जैसी माताओं के कारण ही हम 1235 वर्ष तक निरंतर अपनी बलिदानी परंपरा का निर्वाह करते रहे। गुजरी माता का साहस और अपने दोनों पोतों को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित करने की उसकी भावना हमारे इतिहास में माताओं के बलिदानी योगदान की अमूल्य धरोहर है। जिसका सम्मान किया जाना हर भारतीय का पावन कत्र्तव्य है।
दीवार खड़ी की जाने लगी
उधर जोरावरसिंह और फतेहसिंह को दीवार में जीवित चिनवाकर समाप्त करने की तैयारियां की जाने लगीं। परंतु इन दोनों बच्चों को इस प्रकार समाप्त करने के लिए कोई वधिक तैयार नहीं होता था। अंत में दिल्ली के शाही जल्लाद साशल बेग और बाशल बेग जो कि अपने एक मुकदमे की पैरोकारी के संबंध में सरहिंद आये थे, उन्होंने इस शर्त पर इन दोनों वीरों को समाप्त करना मान लिया कि उन्हें उनके मुकदमे से बरी कर दिया जाएगा। उनकी इस शर्त को स्वीकार कर लिया गया और दोनों बच्चे उन्हें सौंप दिये गये।
दीवार खड़ी की जाने लगी। दोनों भाईयों को जीवितावस्था में दीवार में खड़ा कर दिया गया। खड़ी होती जा रही दीवार को देखकर दिशाएं भी करूणालाप करने लगीं, दशों दिशाओं में ताप था, संताप था, विलाप था, आलाप था, शोक था, परिशोक था। पर दोनों भाईयों के चेहरे पर तेज था, ओज था, दिव्यता का आलोक था और बलिदान की दुर्लभ क्रांति थी। उनका यश आज एक साथ उनके ऊपर छत्रछाया कर रहा था और पुष्प वर्षा कर रहा था-मानो युग-युगों में एक ऐसी घटना होती है-और फिर पता नही उसे इस प्रकार के क्षण देखने को मिलेंगे या नहीं- यह कौन जानता है? दोनों फिर मिलेंगे या नहीं-यह भी कौन जानता है? दोनों शेर पुत्र अमृत पुत्र बनकर अपने असीम धैर्य और साहस का परिचय देते रहे और दीवार को ऊंची होते देखकर भी जीवन के प्रति उनका कोई मोह जागृत नहीं हुआ।
जब बड़े भाई की आंखें सजल हो उठीं
संयोग की बात थी कि दीवार पहले छोटे भाई फतेहसिंह की ओर से ऊपर उठी और उसकी ग्रीवा तक आ गयी। इस दृश्य को देखकर बड़े भाई की आंखें सजल हो उठीं। काजियों को भी लगा कि संभवत: जोरावरसिंह मृत्यु को साक्षात सामने खड़े देखकर भयभीत हो गया है-इसलिए उन्हें आशा की एक किरण दिखाई दी कि दोनों गुरू-पुत्र अब इस्लाम ग्रहण कर सकते हैं।
पर उनकी प्रसन्नता पानी में उठने वाले बुलबुले की भांति क्षणिक ही सिद्घ हुई। उनके कुछ कहने से पूर्व छोटे भाई ने बड़े भाई की आंखों में आंसू होने का कारण पूछ लिया-जिस पर बड़े भाई ने जो कुछ कहा-उसे सुनकर शत्रु भी दंग रह गया। जोरावर सिंह ने कहा-‘फतेह मुझे मृत्यु का भय तो किंचित भी नहीं है, हम जिस पिता और पितामह के वंशज हैं, उसमें मृत्यु से भय करने का तो प्रश्न ही नही-मुझे दु:ख इस बात का है कि संसार में तुमसे पहले मैं आया था। इसलिए संसार से पहले जाने का सौभाग्य भी मुझे मिलना चाहिए था। पर मैं देख रहा हूं कि मुझसे पहले तुम जा रहे हो, छोटे भाई के पहले जाने का दु:ख मुझसे देखा नहीं गया, जिसे मैं अपना दुर्भाग्य समझता हूं। बस इसी बात पर यूं ही आंखें सजल हो गयी हैं। बलिदान होने के जिन क्षणों पर पहला अधिकार मेरा होना चाहिए था, विधि के विधान ने वे क्षण मुझसे छीन लिये हैं।’
छोटे भाई ने बड़े भाई की वेदना को शांत करने का प्रयास किया और उन्हें अंतिम क्षणों में शांत और अविचलित रहने को कहा। काजी ने दोनों बच्चों को अंतिम बार पुन: धर्मपथ से विचलित करने का असफल प्रयास किया। परंतु बच्चों ने उसकी बातों का पुन: वीरतापूर्ण प्रति उत्तर दे दिया।
जब दोनों बच्चों की ग्रीवा तक दीवार आ गयी तो जल्लादों ने अपनी तलवार के एक-एकवार से उन दोनों वीर पुत्रों का शीश शरीर से अलग कर दिया।
बलिदान से क्रांतिपथ और चमक उठा
शत्रु ने समझा कि उसने दो वीर पुत्रों को समाप्त कर भारत की क्रांति की ज्वाला को बुझा दिया है, पर उन्हें पता नहीं था कि इस प्रकार के घृणास्पद कार्यों को सहन करते-करते तो भारतवासियों को सदियों व्यतीत हो चुकी थीं। इसलिए वह इन घटनाओं के अभ्यस्त हो चुके थे। उन्हें ऐसी घटनाएं विचलित न करके आंदोलित कर डालती थीं। किसी भी बलिदानी का बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाता था, जैसे ही उसका शीश मां भारती के श्री चरणों में एक पुष्प की भांति जाकर चढ़ता वैसे ही क्रांति ज्वाला और भड़ उठती थी। क्रांति को ‘पुष्प’ गति दे रहे थे। ज्वाला को शीश बलवती कर रहे थे, और क्रांति पथ को बलिदान सजा और संवार रहे थे, इसलिए जोरावरसिंह और फतेहसिंह के बलिदान से क्रांतिपथ और चमक उठा, ज्वाला और धधक उठी और भारत की स्वतंत्रता का सूर्य और भी प्रचण्डता से दमक उठा। किसी भी बलिदान के लिए इससे बड़ी कोई श्रद्घांजलि नहीं हो सकती।
माता गूजरी का देह त्याग
उधर माता गुजरी ने जब अपने दोनों पोतों के बलिदान की कहानी सुनी तो उस शेरनी ने भी वही किया जो ऐसे क्षणों में हर भारतीय माता सदियों से करती आ रही थी। गुजरी माता ने अपना नाशवान चोला प्रभु चरणों में यूं रख दिया जैसे कोई पुजारी मंदिर में बड़ी श्रद्घा से अपने इष्ट के श्रीचरणों में अपना कोई पुष्प चढ़ा देता है।
देशभक्त टोडरमल का सराहनीय प्रयास
कहा जाता है कि सरहिंद में उस समय एक टोडरमल नाम का व्यक्ति था, जिसकी गुरू गोबिन्दसिंह के प्रति असीम श्रद्घा थी। जब उस गुरूभक्त को यह ज्ञात हुआ कि गुरूदेव के वीर पुत्रों को यातनाएं देकर समाप्त किया जा रहा है, तो उससे रूका नहीं गया। वह एक धनी व्यक्ति था, इसलिए अपना समस्त धन लेकर वह उन बच्चों को छुड़ाने के लिए सरहिंद पहुंचा। परंतु वह यह जानकर बहुत दुखी हुआ कि उसके आने से पूर्व उन दोनों गुरूपुत्रों का बलिदान हो चुका था।
टोडरमल ने दुख के उन क्षणों में धैर्य का परिचय देते हुए नवाब से उन तीनों दादी-पोतों के शव मांग लिये। नवाब ने कहा कि तुम जितने क्षेत्र में स्वर्ण मुद्राएं बिछा सकते हो, उतनी भूमि तुम्हें इस कार्य के लिए दी जा सकती है। तब उस गुरूभक्त ने उन तीनों के दाह संस्कार को एक साथ पूर्ण करने के लिए अपेक्षित भूमि स्वर्ण मुद्राएं बिछाकर नवाब से खरीद ली। उसने पूर्ण श्रद्घा भावना के साथ मां भारती के लिए बलिदान हुए उन तीनों का दाह संस्कार कर दिया। यह घटना 27 दिसंबर 1704 ई. की है।
गुरू गोबिन्द सिंह की भविष्यवाणी
गुरू गोबिन्द सिंह को जब इन बलिदानों की जानकारी दी गयी तो उन्होंने एक पौधे को उखाड़ते हुए कहा कि जैसे यह पौधा जड़ से उखड़ आया है वैसे ही एक दिन हिन्दुस्थान से तुर्की शासन को जड़ से उखाड़ दिया जाएगा। मेरे सिख एक दिन सरहिंद की ईंट से ईंट बजा देंगे। ….और 1714 ई. में वीर बंदा बैरागी ने सरहिंद की ईंट से ईंट बजाकर गुरू वचनों को साकार कर दिया था।
(लेखक की पुस्तक प्राप्ति हेतु डायमण्ड पॉकेट बुक्स प्रा. लिमिटेड एक्स-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेस-द्वितीय नई दिल्ली-110020, फोन नं. 011-40712100 पर संपर्क किया जा सकता है।
(साहित्य सम्पादक)
मुख्य संपादक, उगता भारत