भारत अपना 68वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। अब से ठीक 68 वर्ष पूर्व भारत ने अपने गणतान्त्रिक स्वरूप की घोषणा की थी। 26 जनवरी 1950 से देश ने अपने राजपथ के गणतंत्रीय स्वरूप को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया। अब 68 वर्ष पश्चात देश के कई लोगों को चिन्ता होने लगी है कि भारत का संविधान ही दोषपूर्ण है और हमें इसे परिवर्तित कर नया संविधान लाना चाहिए। इन लोगों में से अधिकांश का चिंतन इस बात पर अटक जाता है कि नया संविधान कैसा हो और कैसे इस देश के सवा अरब लोगों की समस्याओं का निराकरण करने वाला संविधान हम ला सकते हैं? जो लोग संविधान के परिवर्तन की बात करते हैं उनमें से अधिकांश गम्भीर अध्येता नहीं है, वे केवल लोकैष्णा के वशीभूत होकर ऐसा कह रहे हैं।
कई लोगों की शिकायत है कि भारत आज भी ब्रिटिश शासकों का गुलाम है-इसके लिए उनके पास छोटे-मोटे और थोथले तर्क हैं। जिन्हें उलट पलटकर वह लोगों को दिखाते रहते हैं। हमारा मानना है कि वर्तमान संविधान में कुछ आपत्तिजनक अनुच्छेदों के होते हुए भी इसी संविधान के भी ऐसे कितने ही प्राविधान हैं जिन्हें यदि पूर्ण सत्यनिष्ठा से लागू कर दिया जाए तो इस देश में ‘रामराज्य’ आ जाएगा।
जिन लोगों को शिकायत है कि भारत 1947 में आजाद नहीं हुआ था-उन्हें भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 की धारा 7 (1) को पढऩा चाहिए। वह कहती है कि-”नियत दिन से (15 अगस्त 1947 से) (ख) हिज मैजेस्टी का देशी रियासतों पर अधिराज्य व्यपगत हो जाएगा और उसके साथ ही इस अधिनियम के पारित किये जाने की तारीख पर प्रवृत्त सभी संधियां और करार जो हिज मैजेस्टी और देशी रियासतों के शासकों के बीच किये गये थे-उस तारीख को हिज मैजेस्टी द्वारा देशी रियासतों की बाबत प्रयोग किये जाने वाले सभी कृत्य उस तारीख को विद्यमान हिज मैजेस्टी के देशी रियासतों के शासकों के प्रति सभी बाध्यताएं और उस तारीख को किसी देशी रियासत के सम्बन्ध में किसी संधि अनुदान, रूढि़, सहन की गयी या अन्यथा सभी शक्तियां, अधिकार, प्राधिकार या अधिकारिता व्यपगत हो जाएंगे।”
इस प्रकार 1947 के ‘भारतीय स्वाधीनता अधिनियम’ के इस प्राविधान से भारत के संबंध में ब्रिटिश राजा की परमोच्चता समाप्त हो गयी। अब कोई भी कानून जो भारत की संसद द्वारा बनाया जाना था वह ब्रिटिश संसद की स्वीकृति के लिए या उसके राजा की परमोच्चता को स्वीकृति प्रदान करने के लिए ब्रिटेन नहीं जा सकता था। भारत को पूर्ण स्वाधीनता मिली और यह भी निश्चित हो गया कि भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न देश होगा। इस वाक्यांश को हमारे प्रचलित संविधान ने भी अपनाकर यह स्पष्ट कर दिया कि भारत अब एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न देश है। इस अधिनियम के पारित होते ही सारी देशी रियासतों ने वही स्थिति पुन: प्राप्त कर ली जो सम्राट द्वारा अधिराजत्व ग्रहण के पूर्व उन्हें प्राप्त थी।
ब्रिटिश राजा ने भारत के संबंध में अपनी परमोच्चता को किस प्रकार समाप्त कर लिया था? उसका एक प्रमाण यह भी है कि उस समय देश की 563 रियासतों में से अधिकांश ने नियत दिन अर्थात 15 अगस्त 1947 से पूर्व ही भारत के साथ अपना अधिमिलन कर लिया था। उस अधिमिलन पत्र पर ब्रिटिश राजा के न तो हस्ताक्षर आवश्यक माने गये थे और ना ही उसकी पूर्व स्वीकृति ही अनिवार्य मानी गयी थी। माना कि कश्मीर, हैदराबाद, बहावलपुर और जूनागढ़ जैसी रियासतों ने ब्रिटिश सत्ताधीशों के षडय़ंत्रों के कारण भारत के साथ मिलने में देरी की। परन्तु जब समय आया तो इन सबने भी भारत के साथ अपने अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। सरदार पटेल को जब इन रियासतों में से किसी के विरूद्घ बल प्रयोग की आवश्यता पड़ी तो उन्होंने भी उस बल प्रयोग के लिए ब्रिटिश शासकों से या राजा से कोई स्वीकृति प्राप्त नहीं की। उन्होंने जो कुछ किया स्वविवेक से किया और एक संपूर्ण प्रभुसत्ता प्राप्त देश के शासकों के रूप में किया।
1 जनवरी 1948 को सरदार पटेल ने ऐतिहासिक निर्णय लिया और एक महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न कर लिया, जब उन्होंने 216 रियासतों को उन प्रांतों में सम्मिलित कर दिया था जो भौगोलिक रूप से उनके निकट थी। इन विलीन रियासतों को संविधान की पहली अनुसूची में भाग (ख) में स्थान दिया गया। विलय की यह प्रक्रिया उड़ीसा और छत्तीसगढ़ की रियासतों के तत्कालीन उड़ीसा प्रान्त में अपनायी गयी थी। इसी प्रकार 1950 की जनवरी में यही प्रक्रिया बंगाल राज्य के कूच बिहार में अपनायी गयी थी। 61 रियासतों को सरदार पटेल ने केन्द्र शासित प्रदेशों के रूप में परिवर्तित कर दिया था। जिन्हें संविधान की पहली अनुसूची के भाग (ग) में सम्मिलित किया गया था। यह प्रक्रिया वहां अपनायी गयी थी जहां प्रशासनिक, सामरिक या अन्य विशेष कारणों से केन्द्र का नियंत्रण आवश्यक माना गया था।
एकीकरण का तीसरा तरीका था-देशी रियासतों के समूहों को जीवनक्षय इकाईयों में समेकित करना। इन्हें राज्य संघ का नाम दिया गया था। 275 रियासतें इस प्रकार सम्मिलित करके 5 संघ बनाये गये। मध्य भारत, पटियाला और पूर्वी पंजाब संघ, राजस्थान, सौराष्ट्र तथा ट्रावनकोर कोचीन।
कहने का अभिप्राय है कि भारत को कैसे राष्ट्रीय एकता के सूत्र में आबद्घ किया जाए और उसकी प्रशासनिक व्यवस्था को कैसे सुचारू रूप से नियंत्रित किया जाए-इस पर सरदार पटेल सक्रिय हो गये थे और उन्होंने यह कार्य बिना किसी बाहरी राजा की अनुमति के या पूर्व स्वीकृति के पूर्ण किया था। उन्होंने भारत की संसद की परमोच्चता को स्थापित किया।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि ब्रिटिश काल में जिसे केन्द्रीय विधान मंडल कहा जाता था, वह 14 अगस्त 1947 को ही भंग कर दिया गया था। 15 अगस्त 1947 से दोनों देशों की संविधान सभाओं ने दोनों देशों के लिए अलग-अलग केन्द्रीय विधानमण्डल के रूप में कार्य करना आरंभ किया। इस प्रकार देश की संविधान सभा को सांविधानिक और विधायी दोनों प्रकार का कार्य करने का अधिकार प्राप्त हो गया था। डोमिनियन विधानमंडल की प्रभुता पूर्ण थी और किसी भी मामले में विधान बनाने के लिए अब गवर्ननर जनरल की मंजूरी की आवश्यकता नहीं थी साथ ही यह भी कि ब्रिटिश साम्राज्य की किसी विधि के उल्लंघन के कारण कोई विरोध भी नहीं हो सकता था।
15 अगस्त 1947 को ही ब्रिटिश सरकार और संसद का भारत के प्रशासन के लिए उत्तरदायित्व समाप्त हो गया। जिसके कारण भारत के लिए सेक्रेटरी ऑफ स्टेट का पद भी समाप्त कर दिया गया।
अब बात आती है कि हमारे कोहेनूर को ब्रिटिश सरकार ने हमें क्यों नहीं दिया? या नेताजी सुभाषचंद्र बोस को जीवित मिल जाने पर ब्रिटेन को लौटाने की शर्त ब्रिटिश सरकार ने क्यों लगायी? या कॉमनवेल्थ में भारत को क्यों रखा गया और क्यों ब्रिटिश राजा को फिर भी प्रतीकात्मक सम्मान देना क्यों जारी रहा? इन प्रश्नों के चलते हमारी प्रभुता सत्ता समाप्त नही हो जाती। यदि ऐसी दुर्बलताएं कहीं रही थीं तो ये हमारे तत्कालीन नेतृत्व की कमियां थी। ये वही नेता थे जिनकी कांग्रेस पार्टी का जन्म ब्रिटिश हितों को भारत में सुरक्षित रखने के लिए किया गया था। उस ब्रिटिश हितों की संरक्षक कांग्रेस से भारी गलतियों की अपेक्षा की जा सकती थी। उसने वे गलतियां कीं और भारत के सम्मान को ठेस पहुंचाने की स्थिति तक जाकर की। परन्तु इसके उपरान्त भी भारत के संविधान को पूर्णत: निरर्थक दस्तावेज नहीं कहा जा सकता। इस संविधान ने देश के सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया है-यदि समान नागरिक संहिता हम नहीं बना पाये हैं तो यह संविधान की विफलता नहीं है-यह तो हमारे शासकों की विफलता है। इस संविधान ने अंग्रेजी को 15 वर्ष के लिए तथा आरक्षण को भी एक समयावधि के लिए स्थापित किया-उसे हम बार-बार आगे बढ़ायें तो यह भी संविधान की असफलता नहीं है-यह भी हमारे नेतृत्व की तुष्टिकरण की और वोटों की राजनीति करने की एक बानगी है, इसमें संविधान का क्या दोष? धारा 370 को भी संविधान सभा ने एक अस्थायी प्राविधान के रूप में स्थापित किया था और देश के नेतृत्व से यह अपेक्षा की थी कि वह शीघ्र ही इस प्राविधान को हटा देगा। पर देश का नेतृत्व निठल्ला, निष्क्रिय और निकम्मा और नपुंसक हो गया और उसने इस अस्थायी धारा को स्थायी से भी अधिक कठोर बना दिया तो इसमें देश के संविधान का क्या दोष? देश के संविधान ने तो देश में धर्म, जाति, लिंग के आधार पर नागरिकों में कोई भेदभाव न करने का संकल्प लिया है, पर राजनीति है कि सारे समय इसी प्रकार के भेदभाव में लगी रही है। अत: जो लोग देश का संविधान बदलना चाहते हैं उन्हें सोचना चाहिए कि संविधान में दोष है या देश की राजनीति में दोष है। वास्तव में संविधान को लागू करने वालों की नीयत ही दोषपूर्ण रही है। अत: संविधान परिवर्तन से पूर्व राजनीति में परिवर्तन की आवश्यकता है।
मुख्य संपादक, उगता भारत