गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-64
गीता का ग्यारह अध्याय और विश्व समाज
अर्जुन कह रहा है कि मैं जो कुछ देख रहा हूं उसकी शक्ति अनन्त है, भुजाएं अनन्त हैं, सूर्य चन्द्र उसके नेत्र हैं, मुंह जलती हुई आग के समान है। वह अपने तेज से सारे विश्व को तपा रहा है। वह सर्वत्र व्याप्त होता दीख रहा है-सर्वत्र विस्तार पाता दीख रहा है। आपके इस तेज स्वरूप को देखकर हे केशव तीनों लोक कांप उठे हैं।
तीन लोक कम्पित हुए देख तेरा विस्तार।
सर्वत्र तू ही भासता हे पावन जगदाधार।।
आप में देवताओं के समूह, महर्षियों के समूह ‘स्वस्ति-स्वस्ति’ कहते-कहते प्रवेश कर रहे हैं, आपकी स्तुति कर रहे हैं। गन्धर्व यज्ञादि तुम्हें विस्मित होकर निरख रहे हैं। मैं आपके इस रूप को देखकर मारे भय के कांप रहा हूं।
ऐसा अनेकों साधकों के साथ हुआ है और होता रहता है। जब कोई साधक अपनी साधना की गहराई में उतरता है और वह किसी विशेष स्तर पर पहुंचकर जब ऐसी स्थिति को पा लेता है कि उसके और भगवान के बीच कोई नहीं रहता है तो ईश्वर की परमज्योति को अर्थात ज्योतियों की ज्योति को देखकर साधक की मारे भय के चीख निकल जाती है। वह भय से कांपने लगता है। ऐसा तो नहीं है कि अर्जुन को आज उस परमज्योति के पहली बार दर्शन हो रहे होंगे, उसने पहले भी उससे ध्यान तो लगाया होगा-पर आज कुछ खास है। क्योंकि आज उसके साथ श्रीकृष्णजी खड़े हैं, आज वह अपने सारे अनुभवों को बताने लगा है। संसार के लोगों के लिए संदेश दे रहा है कि जब उस परम ज्योति के दर्शन होते हैं तो कौन-कौन सी अनुभूतियां होती हैं?
अर्जुन कह रहा है कि आपके इस विराट स्वरूप को देखकर मेरा अन्तरात्मा व्याकुल हो उठा है। मुझे न तो धीरज मिल रहा है और न शान्ति मिल रही है। न किसी प्रकार का चैन मिल रहा है।
अब प्रश्न है कि जहां व्याकुलता हो, भय हो, बेचैनी हो-वहां आनन्द तो नहीं रह सकता? जब आनंद नहीं तो भक्ति कैसी?-भगवान कैसा? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि कभी-कभी प्रसन्नता में हमारे आंसू भी झलक पड़ते हैं, पर फिर भी हम प्रसन्न होते हैं। प्रसन्नता में रोने में और दु:ख में रोने में आकाश-पाताल का अन्तर है। अर्जुन के साथ जो कुछ हो रहा है-वह दु:ख के कारण नहीं हो रहा है, वह तो प्रसन्नता में हो रहा है-मानो उसके जन्म-जन्मान्तरों के पुण्य उदय हो गये हैं और उसकी साधना सफल हो गयी है। इसलिए भय में भी प्रसन्नता है, उसकी व्याकुलता में भी प्रसन्नता है, और उसकी बेचैनी में भी प्रसन्नता है। आज का उसका अनुभव उसे यह अनुभव करा रहा है कि ऐसा बार-बार होना चाहिए, सदा होना चाहिए और नित्य होना चाहिए। ऐसा न हो कि यह होकर ना रहे। वह चाहता है कि यह ऐसे ही होता रहे और मेरा स्थायी मित्र बनकर मेरे साथ रहने लगे। इस होने पर अर्जुन को गर्व है।
अर्जुन कह रहा है कि यहां जो राजाओं का संघ खड़ा है-उसके सहित धृतराष्ट्र के पुत्र और उनके पक्ष के भीष्म पितामह, गुरू द्रोणाचार्य, कर्ण, हमारी ओर के मुख्य-मुख्य योद्घा तुम्हारे विकराल दाढ़ों वाले भयंकर मुख में धड़ाधड़ घुसे जा रहे हैं, कुछ तुम्हारे दांतों में फंसे दीख रहे हैं तो कुछ की खोपडिय़ां पिसकर चूर-चूर हो गयीं हैं। जैसे नदी समुद्र की ओर दौड़ती जाती है और उसमें जाकर विलीन हो जाती है-वैसे ही ये वीर योद्घा आपके आग उगलते मुंह की ओर भागे आ रहे हैं, इन्हें देखकर ऐसा लग रहा है जैसे पतंगे बड़े वेग से आग की ओर भाग रहे हों जहां उनका विनाश निश्चित है।
सब कुछ तुझसे हो रहा और तुझ में रहा समाय।
जन्म का कारण है तुही और तू ही रहा है खाय।।
अर्जुन अब समझ गया है कि यह संसार स्वयं ही मृत्यु के मुख की ओर दौड़ रहा है। मृत्यु स्वयं धरती पर आ-आकर लोगों को नहीं उठाती अपितु लोग ही मृत्यु के मुख में जा-जाकर समा रहे हैं। मृत्यु मुंह खोले बैठी है, और लोग उसमें जा-जाकर समा रहे हैं, अपनी आहूति दे रहे हैं। सर्वनाश हो रहा है और इस सर्वनाश की ओर लोग स्वेच्छा से भागे जा रहे हैं, पर यह ‘स्वेच्छा’ अनजाने में हो रही है। सब मृत्यु से तो बचने की युक्तियां खोजते हैं-पर उस विधाता की विभूति तो देखिये, विशेष व्यवस्था तो देखिये कि जिससे बचने का प्रयास किया जाता है-उससे बचा नहीं जाता और हर चतुर से चतुर व्यक्ति उसके मुंह का ग्रास स्वयं ही जा बनता है। अर्जुन जिन भीष्म द्रोणादि को अमृत्य समझ रहा था, वह भी मृत्यु का ग्रास बनते हुए उसे दीख रहे हैं। वह समझ गया है कि मृत्यु अटल है और इससे बचने की कोई सम्भावना नहीं है-यह सबको पटकेगी और इससे भीष्मादि भी बचने वाले नहीं हैं। बस, यही बात श्रीकृष्णजी अर्जुन को समझाना चाह रहे थे और अब यही बात उसकी समझ में आ गयी थी, अर्थात श्रीकृष्णजी का काम बन गया। अर्जुन ऐसे विराट स्वरूप को देख कर ईश्वर को नमन करता है और वह श्रीकृष्णजी से पूछ बैठता है कि आप कौन हैं? मैं आपको नमस्कार करता हूं। आप विश्व को किधर ले जा रहे हैं?-इसको कोई नहीं जानता।
जब व्यक्ति अपने ज्ञान की सीमाओं को जान लेता है तो उस समय उसके अन्तर्मन में यह प्रश्न आता है कि आप (ईश्वर) विश्व को किधर ले जा रहे हैं? इसे कोई नहीं जानता।-कहकर अर्जुन ने ‘नेति-नेति’ कहकर ऋषियों की भांति अपनी हार मान ली है। पर आज वह जान गया है कि इस हार से उसकेे कितने बड़े अहंकार का नाश हो गया है? इस हार में उसकी कितनी बड़ी जीत है? वह हारकर भी जीत गया है-इसलिए वह किसी प्रकार के ‘अपराध बोध’ से ग्रस्त न होकर ‘आनन्द बोध’ से प्रसन्न है।
श्रीकृष्ण जी द्वारा काल का वर्णन
अर्जुन की बात सुनकर श्रीकृष्णजी कहने लगे कि जो कुछ तू देख रहा है, वह मैं काल हूं। मैं विशाल रूप धारणा कर संसार का संहार करने में लगा हूं। मैं इसी में प्रवृत्त रहता हूं। वास्तव में निर्माण के लिए विध्वंस का होना आवश्यक है। श्रीकृष्णजी काल के रूप में अर्जुन को यही बता रहे हैं कि मैं काल रूप में विध्वंस मचा रहा हूं। पर ये वैसे ही है जैसे जब पुष्प सूख जाते हैं और पौधे भी अपनी पत्तियों को छोडक़र क्यारियों में खड़े रह जाते हैं तो उन्हें हटाना ही पड़ता है जिससे कि नये फूलदार पौधे लगाकर उन क्यारियों में फिर से फूल खिलाये जा सकें।
इसलिए श्रीकृष्णजी कहने लगे कि अर्जुन तू उठ खड़ा हो और यश का लाभ ले शत्रुओं को जीतकर (सूखे पौधों को उखाडक़र नये पौधे लगाकर फूल खिलाने का पुरूषार्थ कर) समृद्घिपूर्ण राज्य का उपभोग कर। ये सब तो मरे ही पड़े हैं, तू निमित्त बन और यश कमा। ये जो योद्घा तेरे सामने खड़े हैं ये तो पहले ही मार दिये गये हैं। इन्हें देखकर तू किसी भी प्रकार से भयभीत ना हो। इन सबसे पूर्ण मनायोग से युद्घ कर और यह ध्यान रख कि तू युद्घ में शत्रुओं को जीतेगा। इस भाव से जबकि युद्घ क्षेत्र में उतरेगा तो विजयश्री तेरा साथ देगी और तू संसार में धर्म का साम्राज्य स्थापित करने में सफल होगा। क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत