भाग्यश्री बोयवाद
महाराष्ट्र
नांदेड़, महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र के ऐतिहासिक स्थानों में से एक है. यह क्षेत्र गोदावरी नदी के उत्तरी तट पर स्थित है और अपने सिख गुरुद्वारों के लिए प्रसिद्ध है. यह मराठवाड़ा मंडल के तहत महाराष्ट्र के 36 जिलों में से एक है और इसे पिछड़े जिलों की श्रेणी में रखा जाता है. भौगोलिक रूप से, यह क्षेत्र ज्यादातर सूखाग्रस्त है. नांदेड़ में कृषि मुख्य व्यवसाय है और यहां के आम लोग ज्यादातर मज़दूरी करके अपना जीवनयापन करते हैं. कम वर्षा के कारण अधिकांश मजदूर काम की तलाश में बड़े शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं और कई दैनिक वेतन भोगी के रूप में काम करते हैं. यहां की 86 प्रतिशत महिलाएं गैर-कृषि व्यवसायों से जुड़ी हैं. ईंट भट्ठों में काम करने के अलावा लोग अपने परिवारों के साथ गन्ने के खेतों में भी मज़दूरी करते हैं. कुछ लोग मुंबई और पुणे की कंपनियों में काम करने जाते हैं. यहां के लोग अक्सर काम के सिलसिले में दूसरे शहरों में पलायन करते रहते हैं. कुछ महिलाएं गृहिणी के रूप में काम करती हैं, जबकि कुछ पुरुष कपड़ों की दुकानों में सहायक और विक्रेता के रूप में काम करते हैं.
नांदेड़ के अलग-अलग इलाकों में कपड़े का कारोबार अच्छा चल रहा है. शहर में अच्छी कपड़े की दुकानें होने के कारण जिले भर के गांवों और कस्बों से अच्छे ग्राहक यहां आते रहते हैं. नांदेड़ में वजीराबाद, श्रीनगर, जूना मोंढा और चौक अपनी कपड़े की दुकानों के लिए जाने जाते हैं. इन जगहों के आसपास दलित बस्ती है. इन दुकानों में काम करने वाले ज्यादातर लोग इन्हीं बस्तियों से आते हैं. शहरी आवास योजना के तहत कुछ लोगों को पक्के मकान मिल गए हैं, लेकिन यहां के ज्यादातर लोग पीढ़ियों से एक या दो कमरे के किराए के मकान में रह रहे हैं. यहां सरकारी नल से पानी की आपूर्ति की जाती है. शहर के लोग आमतौर पर स्वास्थ्य देखभाल के लिए जंगंबरी, शिवाजी चौक, श्याम नगर और शिवाजी नगर के सरकारी अस्पतालों में जाते हैं. यहां का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल विष्णुपुरी में है लेकिन स्कूल की बात करें तो इस क्षेत्र के आसपास बहुत कम सरकारी स्कूल हैं. ज्यादातर बच्चे मजदूर हैं. इसके पीछे गरीबी एक बड़ा कारण है. पिछड़े वर्ग के अधिकांश बच्चे परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए छोटी उम्र में ही काम करना शुरू कर देते हैं.
नतीजतन, बाल श्रम का आंकड़ा बढ़ा है क्योंकि बाल श्रम वयस्क श्रम से सस्ता है इसलिए, नियोक्ता बच्चों से काम करवाना पसंद करते हैं. दलित और आदिवासी बच्चों के साथ जाति-आधारित भेदभाव उनके सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार से जुड़ा है. इन बच्चों को कई स्तर पर शैक्षिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिनमें उच्च ड्रॉपआउट दर, निम्न पारिवारिक साक्षरता दर, सरकारी स्कूलों में खराब शैक्षिक मानक, स्कूलों में भेदभाव और बहिष्करण प्रथाएं आदि शामिल हैं. बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र भारत में सबसे अधिक बाल श्रम दर वाले राज्य हैं. इस क्षेत्र की निवासी सीमा ने अपना अनुभव साझा करते हुए बताया कि कैसे गरीबी शिक्षा में बाधाएं पैदा करती हैं. वह कहती है कि उसके माता-पिता उसे स्कूल यूनिफॉर्म, जूते और अच्छी स्टेशनरी जैसी अच्छी शैक्षिक सुविधाएं प्रदान करने में सक्षम नहीं थे, जिसके कारण उसे अक्सर उसके साथियों द्वारा चिढ़ाया जाता था. यह उसे अपमानजनक लगता था. दूसरी ओर उच्च फीस के कारण माता-पिता उसकी शिक्षा का खर्च वहन नहीं कर सकते थे और इसलिए वे अपनी बेटियों को शिक्षित करने में कम रुचि रखते थे. मजबूरन उसे स्कूल जाना बंद करना पड़ा.
शैक्षिक सुविधाओं की कमी, वंचित छात्रों के लिए शिक्षा प्रणाली की प्रासंगिकता की कमी (चाहे वह पाठ्यक्रम, शिक्षण पद्धति या स्कूल का माहौल हो), कम पारिवारिक साक्षरता और शिक्षा नीति के अधिकार के कार्यान्वयन की कमी आदि मुख्य कारण हैं जो गरीब बस्ती के बच्चों के स्कूल छोड़ने का मुख्य कारण हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2021 के अनुसार 79 प्रतिशत बच्चे 15 से 17 वर्ष की आयु के बीच स्कूल छोड़ देते हैं. जबकि शिक्षा का अधिकार नीति में जाति या वर्ग के बावजूद सभी बच्चों को मुफ्त प्राथमिक शिक्षा प्रदान करना है. लेकिन सरकारी स्कूलों में पठन-पाठन के लचर तरीका और शिक्षकों द्वारा छात्रों पर पर्याप्त ध्यान नहीं देना इसका एक मुख्य कारण है. वहीं छात्रों और शिक्षकों का अनुचित अनुपात भी प्रमुख भूमिका निभाता है. शिक्षा के लिए महाराष्ट्र की एकीकृत जिला सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई प्लस) 2018-19 के अनुसार, 4928 सरकारी स्कूल ऐसे हैं जो आदर्श छात्र शिक्षक अनुपात का उल्लंघन कर रहे हैं. यह कुल संख्या का 16.30 प्रतिशत है. इसी तरह 3177 सरकारी स्कूल ऐसे हैं जिनमें सिर्फ एक शिक्षक हैं.
कोमल पंद्रह साल की लड़की है. वह दुकानों में हेल्पर का काम करती है. कोमल और उसके दो भाई-बहनों को अकेले मां ने ही पाला है. गरीबी ने जल्द ही उसे यह अहसास करा दिया था कि उसकी मां अकेले ही घर की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकती है. इसलिए उसने अपने परिवार के लिए कुछ आर्थिक सहायता अर्जित करने के लिए एक कपड़े की दुकान में सहायक के रूप में काम करना शुरू किया. आम तौर पर असंगठित क्षेत्रों में लोगों को जल्द नौकरी छूटने का डर होता है, जिसका फायदा दुकान मालिक कमजोर श्रमिकों पर अपनी शक्ति का उपयोग करने के लिए उठाते हैं. महिलाएं और लड़कियां इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं. अधिकांश युवा लड़कियां बाधाओं को देखते हुए केवल अपने परिवार को आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए काम करती हैं, इसलिए वे अपनी नौकरी आसानी से नहीं छोड़ सकतीं. वह इसी परिस्थिति में स्वयं को ढ़ालने का प्रयास करती हैं. उन्हें अपनी नौकरी खोने की चिंता होती है क्योंकि वह यह भी जानती हैं कि पूरा बाजार ऐसा ही है और हर जगह शोषण आम है. हालांकि जब शोषण अत्यधिक हो जाता है, तो कई लड़कियों को काम छोड़कर घर पर रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है. कोमल के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ और आखिरकार उसने भी नौकरी छोड़ दी.
भारत सरकार ने मार्च 2020 में अचानक लॉकडाउन की घोषणा की. जिससे असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों को भारी नुकसान हुआ और उन्हें कई तरह की मुश्किलों से गुजरना पड़ा. लोग मीलों पैदल चलने को मजबूर हुए. उन्हें अपने मूल राज्य और गांव तक पहुंचने के लिए एक राज्य से दूसरे राज्य की पैदल यात्रा करनी पड़ी थी. कपड़ा बाजार भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुआ था और दुकानों तथा मॉल के कर्मचारियों को विस्थापित होना पड़ा था. लॉकडाउन के दौरान कपड़ा बाजार में काम करने वाले बाल मजदूरों को अपने मालिकों से कोई मदद नहीं मिली थी. पूजा, जो एक नाबालिग लड़की है और अपना घर चलाने के लिए काम करती है, लॉकडाउन के दौरान अपना घर चलाने के लिए वह अपने मालिक से राशन और कुछ पैसे पाने की उम्मीद कर रही थी लेकिन उसे इस स्थिति में भी कोई मदद नहीं मिली थी. इसके विपरीत उसे नियोक्ताओं द्वारा बुलाया गया और आधे दिन में ही बहुत काम लिया गया, लेकिन जब भुगतान करने का समय आया, तो उसे बताया गया कि उसे केवल आधा वेतन ही मिलेगा क्योंकि वह आधा दिन काम करती है. बहुआयामी परिस्थिति में बाल श्रम को मजबूर बच्चों को विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है. जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. लेखिका डब्ल्यूएनसीबी की फेलो हैं. (चरखा फीचर)