ऋषि दयानंद कृत कुछ शब्दों की परिभाषा
आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने आर्योद्देश्यरत्नमाला नामक एक छोटी सी पुस्तक लिखी है। इस लघु ग्रंथ में महत्वपूर्ण व्यावहारिक शब्दों (आर्यों के मंतव्यों) की परिभाषाएं प्रस्तुत की गई है जो वेदादि शास्त्रों पर आधारित हैं। इसमें 100 मंतव्यों (नियमों) का संग्रह है अर्थात सौ नियमों रूपी रत्नों की माला गूंथी गई है। धर्म और व्यवहार में आने वाले इन शब्दों एवं नियमों का सच्चा तथा वास्तविक अर्थ समझ कर व्यक्ति भटकने से बच सकता है तथा आर्य समाज के सिद्धांतों की संक्षिप्त जानकारी प्राप्त कर सकता है। उनमें से कुछ महत्वपूर्ण शब्दों की परिभाषाओं को इस लेख में प्रस्तुत किया जा रहा है :
ईश्वर : जिसके गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरूप सत्य ही हैं, जो केवल चेतन मात्र वस्तु है तथा जो अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनंत आदि सत्य गुण वाला है और जिसका स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनंदी, शुद्ध, न्यायकारी, दयालु और विनाश करना तथा सर्व जीवों को पाप पुण्य के फल ठीक-ठाक पहुंचाना है, उसको ईश्वर कहते हैं।
धर्म : जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन और पक्षपात रहित न्याय, सर्वहित करना है जोकि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए यही एक धर्म मानना योग्य है, उसको धर्म कहते हैं।
अधर्म : जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा को छोड़कर और पक्षपात सहित अन्यायी होके बिना परीक्षा करके अपना ही हित करना है, जो अविद्या, हठ, अभिमान, क्रूरतादि दोषयुक्त होने के कारण वेद विद्या के विरुद्ध है और सब मनुष्यों को छोडऩे के योग्य है, इससे वह अधर्म कहलाता है।
पुण्य : जिसका स्वरूप विद्यादि शुभगुणों का दान और सत्यभाषणादि सत्याचार का करना है, उसको पुण्य कहते हैं।
पाप : जो पुण्य से उलटा और मिथ्याभाषणादि करना है उसको पाप कहते हैं।
सत्यभाषण : जैसा कुछ अपने आत्मा में हो और असंभवादि दोषों से रहित करके सदा सत्य ही बोले, उसको सत्यभाषण कहते हैं।
मिथ्याभाषण : जोकि सत्यभाषण अर्थात सत्य बोलने के विरुद्ध है, उसको असत्यभाषण कहते हैं।
विश्वास : जिसका मूल अर्थ और फल निश्चय करके सत्य ही हो, उसका नाम विश्वास है।
जन्म : जिसमें किसी शरीर के साथ संयुक्त होके जीव कर्म करने में समर्थ होता है उसको जन्म कहते हैं।
मरण : जिस शरीर को प्राप्त होकर जीव क्रिया करता है, उस शरीर और जीव का किसी काल में जो वियोग हो जाना है उसको मरण कहते हैं।
स्वर्ग : जो विशेष सुख और सुख की सामग्री को जीव प्राप्त होता है वह स्वर्ग कहलाता है।
नरक : विशेष दुख और दुख की सामग्री जो जीव को प्राप्त होती है उसको नरक कहते हैं।
विद्या : जिससे ईश्वर से लेके पृथ्वीपर्यत पदार्थों का सत्य विज्ञान होकर उनसे यथायोग्य उपकार लेना होता है उसका नाम विद्या है।
अविद्या : जो विद्या से विपरीत है, भ्रम, अंधकार और अज्ञान रूप है उसको अविद्या कहते हैं।
सतपुरुष : जो सत्यप्रिय, धर्मात्मा, विद्वान ,सबके हितकारी और महाशय होते हैं वे सतपुरुष कहलाते हैं।
सत्संग-कुसंग : जिस करके झूठ से छूट के सत्य की ही प्राप्ति होती है, उसकी सत्संग और जिस करके पापों में जीव फंसे, उसको कुसंग कहते हैं।
स्तुति : जो ईश्वर व किसी दूसरे पदार्थ के गुण- ज्ञान- कथन-श्रवण और सत्य भाषण करना है वह स्तुति कहलाता है।
प्रार्थना : अपने पूर्ण सामर्थ्य के उपरांत उत्तम कर्मों की सिद्धि के लिए परमेश्वर व किसी सामर्थ्य वाले मनुष्य के सहायता लेने को प्रार्थना कहते हैं।
प्रार्थना का फल : अभिमान नाश, आत्मा में आद्र्रता, गुणग्रहण में पुरुषार्थ और अत्यंत प्रीति का होना प्रार्थना का फल है।
उपासना : जिस करके ईश्वर ही के आनंदस्वरूप में अपनी आत्मा को मग्न करना होता है, उसको उपासना कहते हैं।
मुक्ति : अर्थात जिससे सब बुरे कामों और जन्म-मरणादि दुखसागर से छूट कर सुखस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होके सुख ही में रहना, मुक्ति कहलाती है।
मुक्ति के साधन : अर्थात जो पूर्वोक्त ईश्वर की कृपा, स्तुति, प्रार्थना और उपासना का करना तथा धर्म का आचरण, पुण्य का करना, सत्संग, विश्वास, तीर्थ सेवन, सत्पुरुषों का संग, परोपकारादि सब अच्छे कामों का करना और सब दुष्ट कर्मों से अलग रहना है, ये सब मुक्ति के साधन कहाते हैं।
कार्य : जो किसी पदार्थ के संयोग विशेष से स्थूल होके काम में आता है अर्थात जो करने के योग्य है, वह उस कारण का कार्य कहाता है।
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