लोकतंत्र आलोचना की अनुमति देता है, निन्दा की नहीं। यह शासन प्रणाली आलोचना की रचनात्मक और पैनी हुई धार से ऊर्जा पाती है और जनकल्याण में लगी रहती है। कुछ लोगों ने जनकल्याण का अर्थ केवल विकास कार्यों तक लगाया है कि यदि सरकार सडक़ बनवाने, अस्पताल खुलवाने और बिजली आदि की व्यवस्था कर रही है तो माना जाएगा कि वह विकास कर रही है। जबकि विकास यह नहीं है। वास्तविक विकास मानव निर्माण है जिसमें नेताओं को, समाज सुधारकों को और रचनात्मक कार्यों में लगे हुए लोगों को विशेष साधना करनी पड़ती है। मानव निर्माण के विकास में इन लोगों की भी अनिवार्य सहभागिता होती है। इस साधना में वाचिक तप अर्थात वाणी को सन्तुलित रखना सर्वप्रथम है। जिनका वाचिक तप भंग हो जाता है-उनके जीवन की साधना भंग हो जाती है और सारा खेल ही पाखण्ड लगने लगता है।
‘आप’ के विषय में यदि विचार किया जाए तो इस पार्टी की कोई साधना कभी नहीं रही। इसका वाचिक तप पहले दिन से ही भंग था। इसने आलोचना को इतना बढ़ाया कि वह निन्दा में परिवर्तित हो गयी। केजरीवाल को अहंकार ने आ घेरा। मान्यवर प्रधानमंत्री तक के लिए अनाप-शनाप बोलने लगे। संवैधानिक परम्पराओं और प्रतिष्ठानों का अपमान करने लगे। उन्हें भ्रम हो गया कि ‘सत्ता परिवर्तन’ की जिस ‘क्रांति’ में मोदी सफल हो गये हैं उसी को अब वह कर दिखाएंगे? ऐसी सोच के कारण केजरीवाल की ओर से अपने ‘गुरू’ अन्ना हजारे जैसे भद्र पुरूष का भी अपमान किया गया।
यद्यपि केजरीवाल का भारत की सांस्कृतिक परम्पराओं में और वैदिक संस्कृति में कोई विश्वास नहीं है क्योंकि वह ‘सैक्युलर कुनबे’ से हैं-इसलिए उनसे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि उन्होंने महाभारत पढ़ी होगी, अन्यथा वह ऐसी ओच्छी निन्दापरक राजनीति पर नहीं आते। क्योंकि महाभारत में भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं कि-‘भरतश्रेष्ठ! सत्पुरूषों, गुरूजनों, वृद्घों और विशेषत: कुलांगनाओं की, दूसरे लोगों की और अपनी भी निंदा न करें, क्योंकि निन्दा करना अधर्म का हेतु है।’
अन्यत्र भीष्म यह भी कहते हैं कि-‘भरतभूषण! जो अध्यापकों, सेवकों तथा अपने भक्तों को बिना किसी अपराध के ही त्याग देते हैं, उन्हें संसार में रहकर भारी दु:ख उठाने पड़ते हैं।’
भारत ने और भारत की राष्ट्रनीति (राजनीति) ने कृतज्ञता को अपना आभूषण माना है। केजरीवाल के यहां तो अपने अन्ना हजारे अध्यापक की भूमिका में हो सकते थे-पर उन्हें केजरीवाल ने बिना कारण के ही त्याग दिया। उनके लिए अपेक्षित था-
मैं लोगों से मुलाकातों के लम्हे याद रखता हूं।
कुछ बातें भूल भी जाऊं तो वो लहजे याद रखता हूं।।
जरा सा हटके चलता हूं जमाने की रिवाज से
जो सहारा देते हैं मुझे वो कन्धे हमेशा याद रखता हूं।।
केजरीवाल उन कन्धों को भूल गये-जिन पर सवार होकर वह उड़ान भर रहे थे। आज वे कंधे उनसे पीछे छूट चुके हैं और जो लोग सहारा देने वाले ‘कंधों’ को गंवा देते हैं-उनका सब कुछ छूट जाता है।
केजरीवाल के साथ यदि ये कंधे होते तो वह अपने 20 विधायकों को रेवडिय़ां नहीं बांटते, क्योंकि इन कंधों के पास दिमाग था और यह दिमाग केजरीवाल को सही दिशा दिखाता, बताता कि तुम सत्ता परिवर्तन का नहीं व्यवस्था परिवर्तन का प्रतीक हो। इसलिए ऐसी किसी असंवैधानिक परम्परा का न तो पालन करो और ना ही उसका पोषण करो जो वर्तमान व्यवस्था को दुर्गन्धित कर रही है। माना कि 20 विधायकों कोजिस प्रकार केजरीवाल ने रेवडिय़ां बांटी हैं उसका श्रीगणेश शीला दीक्षित की सरकार में हो गया था-पर केजरीवाल सरकार शीला सरकार की छाया सरकार नहीं है-वह तो शीला सरकार के भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था को समाप्त करने के लिए सत्ता में आयी है। उसी के लिए लोगों ने आम आदमी पार्टी को प्रचण्ड बहुमत दिया। केजरीवाल को लोगों की भावनाएं समझनी चाहिए थीं और उन सभी दुर्बलताओं को जनता के सामने नंगा करना चाहिए था जिनके बल पर पूर्ववर्ती शीला दीक्षित की सरकार भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती रही। केजरीवाल महोदय ने ऐसा ना करके ‘शीला सरकार’ की दुर्बलताओं को अपना लिया और आज उसी का परिणाम भुगत रहे हैं।
वास्तव में केजरीवाल हों या कोई अन्य राजनीतिज्ञ हो-कभी भी उसे प्रचण्ड बहुमत नहीं मिलना चाहिए। यह घातक होता है। हमने 1984 में राजीव गांधी को प्रचण्ड बहुमत देकर केन्द्र की सत्ता उनको सौंपी थी तो उन्हें फटाफट यह डर लगने लगा था कि ऐसे में यदि कोई विभाजन पार्टी में हो गया तो क्या होगा?
स्पष्ट था कि वह उस अवस्था में प्रधानमंत्री नहीं रहते। तब वह अपनी सम्भावित फजीहत को रोकने के लिए दलबदल विरोधी कानून लाये थे। इसके उपरान्त भी उनके घर में ‘वी.पी.सिंह’ पैदा हो गया। यदि वह दलबदल कानून न लाते तो क्या होता? शायद देश का इतिहास ही बदल जाता। वह बीच में भी सत्ता से हटाये जा सकते थे।
यही स्थिति केजरीवाल की रही। उन्हें प्रचण्ड बहुमत तो मिल गया, अब इतने सारे विधायकों को संतुष्ट व प्रसन्न करके अपने नेतृत्व के प्रति निष्ठावान बनाकर चलना भी उनके लिए अनिवार्य था। इसी सोच का परिणाम था कि उन्होंने अपने विधायकों को लाभ के पदों के रूप में संसदीय सचिव बनाकर उन्हें रेवडिय़ां बांट डालीं। केजरीवाल भूल गये कि राजनीति में हर व्यक्ति की गतिविधि पर उसका विरोधी पैनी नजर रखता है, हर राजनीतिज्ञ का विरोधी उसकी गलती को पकडक़र उसे ‘आउट’ करने की ताक में रहता है। यह राजनीति का अवगुण नहीं है-इससे लोकतंत्र को पौष्टिक भोजन मिलता है। केजरीवाल स्वयं भी दूसरों की गलतियों को पकड़-पकडक़र ही यहां तक पहुंचे हैं। केजरीवाल की गलती यह रही है कि उन्होंने पहले दिन से अपने आपको मोदी की टक्कर का नेता होने के रूप में प्रस्तुत करने का बेतुका प्रयास किया। जिससे वह दिल्ली को भूल गये और फिर अपनी जिम्मेदारी को भूल गये। वह गला फाड़-फाडक़र और शोर मचाकर मुख्यमंत्री बने थे और फिर इस भ्रम में पड़ गये कि ऐसे ही वह देश के पी.एम. बन जाएंगे। उन्होंने स्वयं को पंजाब के लिए तैयार किया और दिल्ली को किसी अन्य के लिए छोडऩे की तैयारी की, पर इससे पहले कि वह कुछ कर पाते पंजाब ने ही उन्हें छोड़ दिया।
अब केजरीवाल अज्ञातवास में हैं। वह बोलना भूल गये हैं और हमें याद रखना चाहिए कि आवाज यदि जाती रहे तो मृत्यु तय है। लगता है ‘आप’ की भी मृत्यु निकट है।
केजरीवाल दिल्ली की तैयारी करते -करते ‘दिल्ली’ से ही विदा होते नजर आ रहे हैं। उन्हें सूझ नहीं रहा कि दिल्ली के तख्त पर रहकर भी उनसे दिल्ली दूर क्यों होती जा रही है? वह भूल रहे हैं कि जब कर्मों का फल मिलने का समय आता है तो यह दिल्ली अपने ‘बहादुरशाहों’ को स्वयं ही गद्दी से उठाकर पटक देती है। समय रहते चेतने वाले लोग ही दिल्ली को अपनी बनाकर रख पाते हैं। ‘दिल्ली’ की इस प्रकृति को समझने वाले ही ‘दिल्ली’ की राजनीति में सफल हो पाते हैं। केजरीवाल जी! संभलो, नहीं तो ‘दिल्ली हाथ से खिसक रही है।’

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