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गीता का कर्मयोग और आज का विश्व संपादकीय

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-71

गीता का तेरहवां अध्याय और विश्व समाज

जैसे एक खेत का स्वामी अपने खेत के कोने-कोने से परिचित होता है कि खेत में कहां कुंआ है? कहां उसमें ऊंचाई है? कहां नीचा है? उसकी मिट्टी कैसी है? उसमें कौन सी फसल बोयी जानी उचित होगी?-इत्यादि। वैसे ही हममें से अधिकांश लोग संसार में शरीर धारी होकर भी शरीर के विषय में सारी जानकारी नहीं रखते। हमें नहीं पता होता कि श्वसन तंत्र, पाचन तंत्र, जननांग, मस्तिष्क आदि की भीतरी बनावट और उनके कार्य करने की शैली क्या है? कौन सा पुर्जा कब सक्रिय होता है? और कब रूक जाता है? शरीर धारी होकर भी हम शरीर विज्ञान की सारी जानकारी नहीं रखते। अधिकांश लोगों तो काम चलाऊ जानकारी नहीं होती। कि वे पशुओं की तरह खा लेते हैं और खाने पीने में भी शरीर के साथ अत्याचार करते हैं।
हमारे भीतर बैठा आत्मा- जो कि इस क्षेत्र का स्वामी है, क्षेत्रज्ञ है-वह इसके विषय में सारी जानकारी वैसे ही रखता है जैसे एक खेत का स्वामी अपने खेत के विषय में सारी जानकारी रखता है। यह विज्ञान की रहस्यभरी बात है।
कैसा यह खेत है खेतदार है कौन?
बता रे मनवा बावरे क्यों साधे है मौन?
इस प्रकार शरीर के क्षेत्र और आत्मा को ‘क्षेत्रज्ञ’ बताकर कृष्णजी आगे बढ़ते हैं और कहने लगे कि हे भारत! सब क्षेत्रों में तू मुझे ‘क्षेत्रज्ञ’ जान। मेरा मानना है कि ‘ क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ के भेद का जो ज्ञान है वही सच्चा ज्ञान है।
श्री कृष्णजी की बात को ही दूसरे शब्दों में तुलसीदास जी कुछ इस प्रकार कह रहे हैं-
तुलसी यह तन खेत है मनसा भयो किसान।
पाप पुण्य दो बीज हैं जो बोये सो काटे नादान।।
हमारे उपनिषदों का मानना है कि जो ब्रह्माण्ड में है वहन्ी पिण्ड (शरीर) में है और जो इस पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है। यह शरीर पिण्ड है तो जो इसमें है वही ब्रह्माण्ड में है। यदि शरीर खेत है अर्थात क्षेत्र है तो यह संसार भी एक क्षेत्र है, जिस प्रकार इस शरीर रूपी क्षेत्र का ‘क्षेत्रज्ञ’ आत्मा है। वैसे ही इस संसार रूपी विशाल क्षेत्र का या खेत का स्वामी परमात्मा है। अब बात ये आती है कि जैसे हर व्यक्ति अपनी आत्मिक उन्नति के लिए अपने शरीर की साफ सफाई करता है और स्वस्थ रहने के लिए विभिन्न प्रकार के संयम, तप, साधना करता है वैसे ही इस संसार रूपी खेत को ठीक करने के लिए और वैश्विक उन्नति करने के लिए सारे संसार के निवासियों का यह सामूहिक कत्र्तव्य और संस्कार बन जाता है कि वे संसार की साफ सफाई, पर्यावरण संतुलन, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, आदि को ठीक रखने के लिए भी विशेष कार्य करें। गीता इस विषय में विशेष ध्यान देती है। भारत ने संसार की साफ सफाई, पर्यावरण संतुलन, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, आदि को ठीक रखने के लिए प्रारम्भ से ही विशेष कार्य योजना पर कार्य किया है। भारत का यज्ञ विज्ञान इस सारे तामझाम को ठीक रखने का पूरा एक तंत्र बनकर हमारे वांग्मय में उपलब्ध है।यह भारत की है जिसके पास इस सारे तामझाम को ठीक रखने की एक अपनी धार्मिक व्यवस्था है, तन्त्र है। हमारे धर्माधीश आज चाहे जितनी पतित अवस्था में हों-परन्तु उनका मूल कार्य इस व्यवस्था को चुस्त दुरूस्त रखना ही होता था। उनके इस पवित्र कार्य में पूरी राज्य व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था भी उनके साथ रहती थी।
शरीर की सफाई करना और स्वस्थ रहना एक व्यक्ति की जिम्मेदारी हो सकती है परन्तु सारे संसार को स्वस्थ रखना तो इस विशाल खेत के स्वामी मानव समाज, विश्व समाज की जिम्मेदारी है। आज मनुष्य इसलिए दु:खी है कि उसके पास पैसा कमाने के लिए तो समय है पर अपनी शरीर साधना के लिए समय नहीं है, वह सबको समय दे सकता है पर अपने आपको समय नहीं दे सकता। सारे मानव समाज की यही स्थिति है और जब यह स्थिति है तो संसार को स्वस्थ रखने के लिए समय किसके पास रखा है?
श्रीकृष्णजी ने संसार को ‘क्षेत्र’ और परमात्मा को ‘क्षेत्रज्ञ’ बताकर स्पष्ट किया है कि इस क्षेत्र को भी जानो और इसके स्वामी को भी जानो। इस क्षेत्र को जानने के लिए आवश्यक है कि इसके प्रति अपने कत्र्तव्यों को जानो और फिर इसके स्वामी को जानना अपना धर्म समझो। यहां आकर कत्र्तव्य और धर्म दोनों की सन्धि हो जाती है। दोनों समरूप हो जाते हैं। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू स्पष्ट रूप से दिखायी पडऩे लगते हैं।
संसार के लोगों ने भूल ही ये की है कि जैसे उन्होंने आत्मा और शरीर को अलग मान लिया है-वैसे ही संसार और संसार के रचयिता को भी अलग-अलग मान लिया है। इस प्रकार श्रीकृष्णजी ने व्यक्ति के शरीर को ‘क्षेत्र’ मानकर व्यक्ति को और संसार को ‘क्षेत्र’ मानकर समष्टि को एक साथ तोल दिया है। बातों-बातों में बड़ी बात कह गये श्रीकृष्णजी। व्यष्टि और समष्टि का इतना सुन्दर समन्वय अन्यत्र मिलना असम्भव है। संसार के विद्वान आज तक भी व्यष्टिवाद और समष्टिवाद की दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाने में लगे हैं। कुछ उसे सुलझाने के निकट खड़े हैं तो कुछ स्वयं ही उनमें उलझकर रह गये हैं। वह चले तो थे सुलझाने के लिए पर बेचारे स्वयं ही उलझकर रह गये-
हम फूल चुनने आये थे बागे हयात में।
दामन को खार जार में उलझा के रह गये।।
ये वही लोग हैं जो विषय वासनाओं की आग में झुलसे पड़े हैं। उन्हें स्वाद वहां मिल रहा था जहां से विवेकशील लोग भागते हैं। अब जो स्वयं ही पंख जलाये पड़े हों उनसे ऊंची उड़ान उडऩे की अपेक्षा भला कैसे की जा सकती है?
क्या है यह क्षेत्र?
श्रीकृष्णजी कहते हैं कि ऋषियों द्वारा विविध मंत्रों से, अनेक प्रकार गान किया गया है कि ‘क्षेत्र’ क्या है? वास्तव में यह ‘क्षेत्रज्ञ’ से पृथक है। इस क्षेत्र का वर्णन निश्चययुक्त ब्रह्म सूत्रों तथा तर्क द्वारा किया गया है।
व्यष्टि समष्टि दोनों ही समझो खेत समान।
एक में आत्मा विराजता दूजे में भगवान।।
विद्वानों ने तर्क और उनके प्रमाण उनके निष्कर्ष हमें बताए हैं कि क्षेत्र क्या है, और क्या उसकी विशेषताएं हैं? हमारे प्राचीन ऋषियों ने शरीर शास्त्र पर व्यापक प्रकाश डाला है। इस शरीर की बनावट पर और भीतरी अंग-प्रत्यंग पर उनकी गहनदृष्टि गयी है। इसके बनाने में अव्यक्त प्रकृति, महत-तत्व, अहंकार बुद्घि आदि का क्या योगदान रहता है? इस पर हमारे शास्त्रकारों ने और विद्वान ऋषियों ने बड़ा सदुपयोगी चिन्तन प्रस्तुत किया है। उन्हीं के इस पावन पवित्र चिन्तन की ओर श्रीकृष्ण जी का संकेत है। वह कह रहे हैं कि पांच महाभूत अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, अहंकार, बुद्घि, अव्यक्त मूल प्रकृति, दस इंद्रियां जिनमें पांच ज्ञानेन्द्रियां आंख, नाक, कान, जीभ और त्वचा तथा पांच कर्मेन्द्रिया हाथ, पैर, मुंह और मल व मूत्रेन्द्रियां सम्मिलित हैं-इनके अतिरिक्त मन और पांच विषय-देखना, सूंघना, सुनना, चखना और स्पर्श करना। ये सभी तो क्षेत्र में सम्मिलित हैं ही साथ ही इच्छा, द्वेष, सुख, शरीर का यह संघात पिण्ड चेतना शक्ति, धृति शक्ति यह संक्षेप में अपने विकारों सहित क्षेत्र का वर्णन है।

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