ऋषिराज नागर (एडवोकेट)
भारत के ऋषियों के दृष्टिकोण से देखा जाए तो परिवार शब्द की बड़ी व्यापक परिभाषा है। मैं, मेरी पत्नी और मेरे बच्चे तक सीमित रहना परिवार को बहुत छोटे दायरे में ले आना होता है उस दायरे से ऊपर उठकर परिवार बसाना और अंत में सारी वसुधा को ही परिवार मानना व्यापक दृष्टिकोण की निशानी होती है। हमारे ऋषि महात्माओं ने हमें इसी प्रकार की व्यापक दृष्टि प्रदान की और संपूर्ण वसुधा को ही अपना परिवार मानने की प्रेरणा दी।
सन्त-महात्मा कहते हैं कि सत्संगी लोगों को साध संगत, सत्संग व सेवा से लगाव रखना चाहिए और हमें नियम पूर्वक अपना घर का काम काज भी संम्भाल कर, सोच कर करना चाहिए। इस प्रकार की साधना से मनुष्य परिवार की संकीर्ण सीमाओं से बाहर निकलने की सोचने लगता है और धीरे-धीरे उसका अपने इस लघु से परिवार से मोहभंग होकर सारे संसार के प्रति ध्यान लग जाता है।
दुनियादारी में रहकर, हमें दुनियादार नहीं बनना है। हम अच्छे पिता-माता बनें,अच्छे पति बनें, अच्छे देशवासी बनें, अच्छे परिवार वाले बनें। समाज में रहकर भी आडम्बर जाति-पांति के भेदभाव, कर्म-काण्ड, मूर्ति पूजा, वाचक ज्ञानी लोगों से और समाज की कुरितियों जाप से अपने को बचाकर रखें। सत्संगियों की मृत्यु पर जाप गायत्री कराना, और पंडितों को राशन पूर्ति कराना, सत्संगियों और वाचक उसके परिवार के द्वारा मूर्ति पूजा, कथा कराना भी वाचक उचित नही माना गया है। हमें सत्संग के नियम के आधार पर सतगुरू के भाणे या हुकम में रहकार भजन सुमिरन के लिए रोजाना वक्त निकालना है, नहीं तो हम भजन के चोर माने जावेंगे।
सत्संगी की मृत्यु के बाद अपने घर पर जैसा उचित बने एक सप्ताह के अन्दर सत्संग करा सकते हैं । इसमें संगत तथा जिज्ञासू एवं परिवार के सदस्य उपस्थित रह सकते हैं, और किसी भी कर्म – काण्ड हवन पंडित जी से आदि की जरूरत नही बनती है। सत्संगी के घर में सूतर्क के निर्धारण की आवश्यकता नही होती । इसलिए पंडित आदि की जरूरत नहीं होती है। कर्म काण्ड के, ना कराने से जो भी रूपया धन की बचत होती है, उस धन या रूपयों को हम लोग सेवा में डाल सकते हैं इससे वह सेवा का रूपया, संगत व सत्संग के सदुपयोग में काम आता है।
कहने का अभिप्राय है कि किसी भी प्रकार के पाखंड ढोंग में ना फंस कर साफ-सुथरे जीवन को अपनाने में लाभ है।