सिकंदर की पराजय
डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री
आजकल टी वी के एक चैनल पर पोरस शीर्षक से दिखाए जा रहे सीरियल के बहाने एक बार फिर वही कहानी याद आ गई जिसमें वीर योद्धा पुरु (पोरस) को पराजित और आक्रमणकारी सिकंदर को विजयी बताया गया है । इतना ही नहीं, पुरु को क्षमा करके और केवल उसका राज्य नहीं, बल्कि भारत के जीते हुए कुछ अन्य भाग को भी वापस करके सिकंदर को वीरता का सम्मान करने वाला उदार पराक्रमी बताया गया है, पर इस कहानी में कई झोल हैं। पहला तो यह कि इस युद्ध का कोई विवरण भारतीय इतिहासकारों ने लिखा ही नहीं, क्योंकि, नेहरू जी के अनुसार ‘उसके आक्रमण का भारत पर कोई असर नहीं पड़ा ‘ (इतिहास के महापुरुष, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली ; 1984 ; पृष्ठ 17 ) । अत: यह पूरी कहानी यूरोपीय इतिहासकारों के लेख पर आधारित है । यह तथ्य अब उजागर हो चुका है कि यूरोपीय लोगों ने इतिहास तटस्थ दृष्टि से नहीं, बल्कि अपने को विश्व का सर्वश्रेष्ठ योद्धा, सर्वश्रेष्ठ शासक और मानवता का रक्षक सिद्ध करने की दृष्टि से लिखा । इसके बावजूद यदि यूरोपीय लेखकों के लिखे विवरणों की समीक्षा की जाए और अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी से मिलान किया जाए तो सिकंदर की भारत विजय की कहानी झूठी प्रतीत होती है। आइए, कुछ विवरणों की परीक्षा करें।
इतिहासकारों का कहना है कि अब सिकंदर के बारे में प्रामाणिक जानकारी का सर्वथा अभाव है क्योंकि वियरकच, ओनिसीक्रीटस, केलिस्थनीज़, पुटालमी आदि उसके समकालीन लेखकों के लिखे ग्रन्थ तो कहीं मिले ही नहीं, आज जो कुछ भी जानकारी मिलती है वह एरियन, डायोडोरस, प्लूटार्क, जस्टिन (सभी यूनानी) और कर्टियस (रोमन) के लिखे ग्रंथों से मिलती है । संयोग यह है कि ये सभी लेखक सिकंदर के चार-पांच सौ साल बाद के हैं, पर इनमें से किसी को उस समय भी सिकंदर के समकालीन किसी लेखक की कोई रचना नहीं मिली । इन्होंने जो कुछ लिखा वह विभिन्न लेखकों के अस्त-व्यस्त उद्धरणों और जनश्रुतियों के आधार पर लिखा । इनके दिए विवरण इतने अधिक परस्पर-विरोधी और असंगत हैं कि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के यूनानी विद्वान स्ट्रेबो (जो विश्व यात्रा के आधार पर लिखे गए अपने भूगोल सम्बन्धी ग्रन्थ के लिए विशेष प्रसिद्ध है) का कहना है कि इन लोगों ने जो कुछ लिखा है, वह सिर्फ सुनी – सुनाई बातों के आधार पर लिखा है। भारत के सम्बन्ध में तो इन लेखकों ने जो कुछ भी लिखा है, उस पर स्ट्रेबो ने बड़ी सख्त टिप्पणी करते हुए कहा है कि ये सब झूठे हैं ।
सिकंदर को सभी इतिहास लेखकों ने निडर, बहादुर, साहसी और कुशल सेना-नायक बताया है, पर साथ ही उसके घमंडी एवं क्रोधी स्वभाव, क्रूरता और बर्बरता की भी बहुत चर्चा की है। शासक बनते ही सबसे पहले उसने अपने उन सभी विरोधियों की हत्या कर दी / करवा दी जिनसे उसे अपनी कुर्सी के लिए जऱा भी खतरा लगा, फिर वे चाहे उसके परिवार के हों या बाहर के। इस काम में उसकी माँ ओलम्पियास भी शामिल थी । क्लियोपेट्रा (सिकंदर की सौतेली माँ) और उसकी बेटी को जि़ंदा जलाया गया और अटालस की सपरिवार हत्या कर दी गई जिसमें उसकी बेटी एवं बेटी के बच्चे भी शामिल थे। साम्राज्य विस्तार के उसके अभियान में वे लोग तो उसके कोप का भाजन बनने से बच गए जिन्होंने बिना लड़े उसकी अधीनता स्वीकार कर ली, पर जिन्होंने उसका सामना करने की जुर्रत की, वे हार जाने पर उसके कहर से बच नहीं पाए।
युद्ध में जिस स्थान को भी उसने जीता, उसे सहेज कर रखने के बजाय हर तरह से बरबाद कर दिया । सीरिया के पास टायर नामक प्रदेश को जीतने पर उसने शहर को उजाड़ दिया, सभी युवाओं की हत्या कर दी और बच्चों एवं स्त्रियों को दास बनाकर बेच दिया । मिस्र के गाज़ा में उसे कड़ी टक्कर मिली, पर अंतत: वह जीत गया । बस, जीतने पर उसने उस स्थान को बरबाद करना शुरू कर दिया, सभी पुरुषों की बर्बर ढंग से हत्या कर दी और स्त्रियों एवं छोटे बच्चों को दास बना कर बेच दिया। पर्सिपोलस जीतने पर उसने वहां आग लगा कर सब कुछ नष्ट कर दिया। ईरान में उसने विजय के बाद वहां के विशाल महल को, नगर की इमारतों को, सडक़ों तक को तहस-नहस कर डाला। बख्तर (बैक्ट्रिया) ईरान के सम्राट दारा तृतीय के अधीन एक प्रदेश था और वहां का शासक बेसस था । सिकंदर ने उस पर आक्रमण किया तो उसने डट कर मुकाबला किया, पर लम्बे संघर्ष के बाद अंतत वह हार गया और पकड़ा गया । सिकंदर के आदेश से उसे बैक्ट्रिया के मुख्य मार्ग पर बिलकुल नंगा किया गया, रस्सी से बांधकर कुत्ते की तरह खड़ा किया गया, कोड़े लगाए गए, नाक और कान काट दिए गए, और इस तरह के अपमान के बाद उसका वध कर दिया गया । उसने शत्रु राजाओं / राज्यों के प्रति ही नहीं, अपने मित्रों / शुभचिंतकों तक के साथ भी क्रूरतम व्यवहार किया। सिकंदर के गुरु अरस्तू का भतीजा केलिस्थनीज़ सिकंदर का घनिष्ठ मित्र था, लेखक था, युद्ध में उसके साथ था और उसके विजय अभियान को लिपिबद्ध करता जा रहा था ; पर उसकी किसी बात पर नाराज़ होकर सिकंदर ने स्वयं उसकी हत्या कर दी । एक और उदाहरण क्लीटस का देखिए जो सिकंदर की धाय लानिके का भाई और सिकंदर का अभिन्न मित्र था । ईरान के युद्ध में जब सिकंदर घायल हो गया था, शत्रुओं से बुरी तरह घिर गया था और उसका जीवित बचना लगभग असंभव था, तब क्लीटस ने ही अपनी जान जोखिम में डालकर सिकंदर की जान बचाई ; पर उसी क्लीटस की किसी बात पर तैश में आकर सिकंदर ने पहले उसके साथ अमानुषिक व्यवहार किया और फिर बर्बरतापूर्वक उसकी हत्या कर दी । सिकंदर का पूरा इतिहास ऐसे ही उदाहरणों से भरा पड़ा है ।
नेहरू जी ने भी उसके इस प्रकार के क्रूर व्यवहार का उदाहरण देते हुए लिखा है, थीब्स नामक यूनानी शहर ने उसके आधिपत्य को नहीं माना और बगावत कर दी । इस पर सिकंदर ने उस पर बड़ी क्रूरता से और निर्दयता के साथ आक्रमण करके उस मशहूर शहर को नष्ट कर दिया , उसकी इमारतें ढहा दीं, बहुत से नगर निवासियों का क़त्ल कर डाला और हज़ारों को गुलाम बनाकर बेच दिया ( विश्व इतिहास की झलक, संक्षिप्त संस्करण, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली ; 1984 , पृष्ठ 29 )। उसके इसी प्रकार के व्यवहार के कारण नेहरू जी ने सिकंदर को अभिमानी, घमंडी, निर्दयी, बर्बर और क्रूर कहा है। जिस एरियन ने सिकंदर का प्रशस्ति गान किया है, उसी ने उसे धूर्त भी बताया है।
क्षमा दान किसे ? पुरु को या सिकंदर को ?
सिकंदर-पुरु के युद्ध का जो विवरण इन लेखकों ने दिया है उसके अनुसार युद्ध प्रारम्भ होते ही सम्राट पुरु के (कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनके पुत्र के) पहले ही प्रहार से घायल होकर सिकंदर घोड़े से गिर पड़ा, (जस्टिन के अनुसार उसका घोड़ा भी मारा गया), युद्ध तभी समाप्त हो जाता, पर सिकंदर के कुछ वफ़ादार सैनिक किसी प्रकार उसे बचाकर ले गए 7 इसके बावजूद क्या यह कल्पना की जा सकती है कि सिकंदर जैसे घमंडी और क्रूर व्यक्ति ने पुरु को पराजित करने और बेडिय़ों में जकड़ लेने के बाद, और ‘बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाए ?’ जैसे प्रश्न का उत्तर ‘ जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है ‘ जैसे गर्वीले शब्दों में सुनने के बाद पुरु के साथ दया और उदारता का व्यवहार किया होगा ?
भारत में सिकंदर द्वारा अपने शत्रु पुरु के क्षमादान की कहानी सुनाने वाले लेखक सिकंदर को महिमा-मंडित करने के चक्कर में यह भूल ही गए कि वे सिकंदर की क्रूरता के ढेरों प्रमाण पहले ही प्रस्तुत कर चुके हैं । यह भी भूल गए कि क्रूरता और क्षमा परस्पर संचारी नहीं , विरोधी भाव हैं । ऐसा लगता है कि उन्होंने नाटक का कथानक बदल दिया और जो संवाद वास्तव में पुरु के थे, वे सिकंदर से कहलवा दिए।
सिकंदर के घमंडी, निर्दयी, और क्रूर व्यवहार के अलावा इस प्रकार की शंका करने के अन्य भी अनेक कारण हैं । ये ही लेखक बता चुके हैं कि सिकंदर ने जिस भी स्थान को जीता , उसे उजाड़ दिया, तो फिर भारत इसका अपवाद कैसे बन गया ?
इन्ही लेखकों ने यह भी लिखा है कि सिकंदर तो अभी और आगे जाना चाहता था, पर उसकी सेना ने साथ देने से इनकार कर दिया क्योंकि वह युद्ध करते – करते थक गई थी, ऊब गई थी और उसे घर की याद सताने लगी थी । अत: उसने विद्रोह कर दिया और सिकंदर को वापस जाने का निश्चय करना पड़ा। आश्चर्य होता है कि जो सेना विश्व – विजय के लिए निकली थी, जो बराबर विजय प्राप्त करती जा रही थी, और इस प्रकार सफलता जिसके कदम चूम रही थी, वह (पुरु से युद्ध करने के बाद, और ध्यान रखिए कि यह युद्ध महाभारत की तरह कोई अठारह दिन नहीं, एक दिन, केवल एक दिन हुआ था, उसका प्रभाव ऐसा पड़ा कि सेना एकाएक थकान का अनुभव करने लगी, ऊब गई, उसे घर की याद सताने लगी और वह भी इस बुरी तरह कि विजय – अभियान बीच में ही छोडक़र वापस जाने के लिएविद्रोह पर आमादा हो गई ? इस एक दिन से पहले तो थकान, ऊब, घर की याद की कोई चर्चा नहीं की गई ! थकान और ऊब विजयी व्यक्ति को सताती है या हारे हुए को ? कहीं ये विवरण अपने गर्भ में सिकंदर की पराजय की कहानी तो नहीं छिपाए बैठे हैं ?