गतांक से आगे ….
ऋषि के आगे देवता हैं । देवता के विषय में सर्वानुक्रमरगी में लिखा है कि ‘या तेनोच्यते सा देवता’ अर्थात् मंत्र में जिस विषय का वर्णन हो, वही विषय उस मंत्र का देवता है । यदि किसी मन्त्र का देवता अग्नि हो, तो समझना चाहिये कि इस मन्त्र में अग्नि का ही वर्णन है । परन्तु अग्नि शब्द के कई अर्थ होते हैं’ इसलिए अग्नि के विशेषणों तथा मन्त्र की अन्य परिस्थितियों से जान लेना चाहिये कि यहाँ अग्नि किस विशेष विषय को दर्शाता है । इसी प्रकार की विशेष अर्थात् बारीक खूबियों को ढूँढ़ निकालना ही ऋषि का काम होता है । अतएव ऋषि और देवता प्रायः आधार- आधेय सम्बन्ध रखते हैं और इसीलिए इन दोनों के नाम भी प्रायः एक ही शब्द से रख लिए जाते हैं । निरुक्त में लिखा है कि –
‘यत्कामऋषिर्यस्यां देवतामायार्थपत्यमिच्छन् स्तुति प्रयुङ्क्ते तद्दैवतः स मन्त्रो भवति’
अर्थात् ऋषि लोग जिस अर्थ के प्रकाश करने की कामना करते हुए, जिस देवता का वर्णन करते हैं, वहीं उस मन्त्र का देवता होता है । इस उक्ति से स्पष्ट हो रहा है कि किसी मन्त्र का कोई देवता निश्चित नहीं है। एक ही मन्त्र से एक, दो अथवा कई एक भाव निकाले जा सकते हैं और वे सभी भाव उस मन्त्र के देवता हो सकते हैं। ऐसे ही नवीन गूढ़ भाव निकालने के कारण कभी – कभी किसी – किसी ऋषि का वही नाम भी पड़ जाता है, जो नाम किसी शब्द से उस मन्त्र के देवता का स्थिर होता है । परन्तु जब से देवताविषयक ज्ञान में त्रुटि हुई तब से वैदिक साहित्य में बहुत बड़ी गड़बड़ मच गई है। सर्वानुक्रमणी 1/37 में लिखा है कि –
‘क्षत्रस्य चतुर्णां तार्ण्यपाण्डवाधिवासोष्णीषाणि’
अर्थात् यजुर्वेद अ० 10 के मन्त्र के ‘क्षत्रस्य जराय्वसि’ मंत्र का देवता पाण्डव है । मन्त्र में क्षत्र शब्द के आने से ही किसी बुझक्कड़ ने पाण्डवों का नाम देवता में लिख दिया है। राजा के लिखने के स्थान में पाण्डव राजा नाम हो गया है। हम देखते हैं कि बहुत से देव ऋषियों के ही नाम से पाये जाते हैं। उनमें अधिकांश इसी प्रकार के भ्रम से रक्खे गये हों तो ताज्जुब नहीं। बात तो असल में यह है कि मन्त्र का देवता पहिचानना ही वेदज्ञता है। यह विद्या विना योगसाधन के नहीं आती। इसी- लिए योगशास्त्र में लिखा है कि –
‘स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः’
अर्थात् स्वाध्याय से ही इष्ट देवता की प्राप्ति होती है। वेदों का जो जितना ही बड़ा स्वाध्यायी है, वह देवता का उतना ही ठीक ठीक निर्णय कर सकता है । देवता विषय का यही थोड़ासा निर्णय है ।
छन्द की रचना स्वयं एक काव्य है । छन्द शब्दशुद्धि और संगीत का प्रारण है । छन्द के सिकंजे में जब शब्द कस दिया जाता है, तब वह इधर -उधर बहक नहीं सकता। उसका उच्चारण ज्यों का त्यों बना रहता है और छन्दताल में जकड़े रहने के कारण नृत्य का प्रधान अङ्ग हो जाता है और संगीतशास्त्र में अपना विशेष स्थान प्राप्त कर लेता है। इसके अतिरिक्त छन्दोबद्ध विषयों की स्थिति स्मरण में बहुत शीघ्र और देर तक रहनेवाली होती है । परमेश्वर को वेदों की शब्दशुद्धि संगीत और विषयस्मृति को कायम रखना मंजूर है, इसीलिए शायद कुछ भाग को छोड़कर शेष चारों वेद छन्दोबद्ध ही हैं। परन्तु वैदिक छन्दों का ज्ञान लोगों को बिलकुल ही नहीं है । छन्दों का ठीक – ठीक ज्ञान न होने से ही मन्त्रों की संख्या में गोलमाल हुआ है । यजुर्वेद का पहिला मन्त्र एक ही कहलाता है, परन्तु उसमें दो मन्त्र भिन्न – भिन्न छन्दों के मिले हुए हैं। स्मरण रखने के लिए दोनों छन्दों के नाम लिखे हुए हैं और दोनों को पृथक् करने के लिए बीच में ‘र’ अक्षर लिखा हुआ है । हमारा अनुमान है कि और भी बहुत से मन्त्रों में ऐसा ही गोलमाल है ।
मूल लेखक : रघुनंदन शर्मा
प्रस्तुति : देवेंद्र सिंह आर्य
क्रमशः