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भारतीय हिंदू शुद्धि सभा के संस्थापक स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज

स्वामी श्रद्धानंद की भारतीय हिंदू शुद्धि सभा और हिंदू महासभा
(यह लेख पूर्व में प्रकाशित हो चुका है लेकिन समय अनुकूल देखकर इसे पुणे प्रकाशित किया जा रहा है)

बलिदान दिवस 23 दिसंबर पर विशेष

शुद्धि आंदोलन में स्वामी श्रद्धानन्द (1856- 1926) का स्थान अमर है। आगरा में 13 फरवरी,1923 की क्षत्रिय उपकारिणी सभा की बैठक में उन्हें बुलाया गया था। इसमें सनातनी, आर्यसमाजी, सिख, जैन भी आए थे। यहीं ‘भारतीय हिन्दू शुद्धि सभा’ का गठन हुआ। इसी के दस दिन बाद स्वामी जी की महत्वपूर्ण पुस्तिका ‘सेव द डाइंग रेस’ प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्होंने नव-मुस्लिमों को शीघ्र अपने पुराने कुटुम्ब में लाने की आवश्यकता पर बल दिया। अगले दो महीनों में वे लगभग सौ गांवों में गए। पहले महीने में ही लगभग पांच हजार मलकानों को वापस लाया गया। उस वर्ष के अंत तक यह संख्या तीस हजार हो गई थी। इस कार्य पर जमीयत उलेमा और कांग्रेस के नेताओं ने आपत्ति भी की, लेकिन स्वामी जी अडिग रहे। 31 मार्च 1923 को भारत धर्म महामंडल और दरभंगा महाराज की ओर से काशी के पंडितों, पंजाब और महाराष्ट्र की विविध धर्म-सभाओं एवं जाति संगठनों ने भी स्वामी जी का समर्थन दिया। 4-5 अप्रैल 1923 को बनारस के सभाओं में भी इस विषय को रखा गया। फलतरू काशी के कुछ रुढ़िवादी पंडितों ने भी मलकानों में काम करने का संकल्प लिया। मलकाना मुस्लिम राजपूतों की शुद्धि का काम पूरे हिन्दू समाज ने अपना लिया। स्वयं डॉ. आंबेदकर ने शुद्धि आंदोलन से अपनी सहानुभूति लिखित रूप से जताई थी। स्वामी श्रद्धानन्द ने 1924 ई. में दनकौर, बुलंदशहर में कई मुस्लिमों को शुद्ध किया।
मेरठ, मुजफ्फरनगर और बुलंदशहर में वे लगभग डेढ़ सौ ईसाइयों को भी पुन: हिन्दू समाज में ले आये। उन के सहयोगी रामभज दत्त और मंगल सेन इसी कार्य के लिए अन्य स्थानों पर गए। दिल्ली में मार्च 1926 में कराची से आई हुई महिला असगरी बेगन अपने बच्चों के साथ शुद्ध हुईं और उन्हें शान्ति देवी नाम दिया गया। इस पर असगरी के परिवारवालों ने स्वामी श्रद्धानन्द पर मुकदमा भी किया, किन्तु अदालत ने स्वामी जी को निर्दोष करार दिया। इसके बाद कुछ कट्टरपंथी मुसलमानों ने स्वामी जी को इस्लाम का शत्रु घोषित किया। इसी प्रचार के वशीभूत एक मतांध मुस्लिम ने 23 दिसंबर, 1926 को स्वामी जी को उन के घर में बीमार अवस्था में धोखे से मार डाला। यह निस्संदेह, शुद्धि के लिए ही स्वामी जी का बलिदान था। दुर्भाग्यवश, गांधी जी ने ठीक इसी काम के लिए स्वामी श्रद्धानन्द को बुरा-भला कहा था। इसमें संदेह नहीं कि गांधी जी और कुछ अन्य कांग्रेस नेताओं के बयानों ने कट्टरपंथी मुसलमानों को उग्र होने का हौसला दिया। यद्यपि कांग्रेस नेतृत्व के भी एक हिस्से में शुद्धि आंदोलन के प्रति उत्साह था। 30 दिसंबर, 1922 को गया (बिहार) में कांग्रेस के पंडाल में आयोजित हिन्दू महासभा के वार्षिक अधिवेशन में मोपला के पीड़ित हिन्दुओं के प्रति संवेदना प्रकट की गई। मलाबार के लोगों से धर्मांतरित लोगों को पुनरू हिन्दू धर्म में स्वीकार करने के लिए भी आह्वान किया गया। इस अधिवेशन के अध्यक्ष पंडित मदन मोहन मालवीय तथा स्वागताध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद थे।
बहरहाल, ‘भारतीय हिन्दू शुद्धि सभा’ के प्रयासों से सन 1923 से 1931 के बीच लगभग 1,83,3422 नव-मुस्लिमों को शुद्ध किया गया। इसी दौरान लगभग साठ हजार अछूत कहलाने वाले लोगों को हिन्दू धर्म छोड़ने से भी बचाया गया। 127 शुद्धि सम्मेलन हुए, 156 पंचायतें हुईं और 81 छोटे-बड़े सहभोज किए गए। सभा की ओर से शुद्धि समाचार नामक एक मासिक पत्र भी निकलता था, जिसके चैदह हजार ग्राहक थे। अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का सातवां अधिवेशन मालवीय जी की अध्यक्षता में 19-20 अगस्त 1923 को बनारस में हुआ था। उन्होंने अध्यक्षीय भाषण में शुद्धि कार्य का जोरदार समर्थन किया। वहां बाबू भगवान दास (काशी विद्यापीठ के संस्थापक, थियोसोफिस्ट, 1955 ई. में ‘भारत-रत्न’से सम्मानित) ने भी शुद्धि के समर्थन में अतिविद्वतापूर्ण भाषण दिया था। सर्वसम्मति से अहिन्दुओं के हिन्दू धर्म में प्रवेश संबंधी प्रस्ताव पास हुए।
अ.भा. हिन्दू महासभा का आठवां अधिवेशन 11 अप्रैल, 1925 को कोलकाता में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में हुआ था। लालाजी ने इस्लाम में बलात धर्मांतरित हिन्दुओं की शुद्धि का समावेश किया। महासभा के नौ उद्देश्यों में इसे भी शामिल किया गया। बाद में भी हिन्दू महासभा के अध्यक्ष पद से कई महापुरुषों ने शुद्धि का समर्थन किया। वीर सावरकर ने भी इस तथा अन्य मंचों से शुद्धि का समर्थन और प्रत्यक्ष शुद्धि का कार्य भी किया। वीर सावरकर ने अंडमान के भयावह सेल्यूलर जेल में अपने भाइयों गणेश तथा बाबाराव के साथ मिलकर शुद्धि कार्य किया था। वहां कुछ मुस्लिम कारापाल अल्पवयस्क हिन्दू बंदियों को फुसलाकर या यातना देकर मुसलमान बनाते थे। उनमें से अनेक को सावरकर बंधुओं ने विधिपूर्वक शुद्ध कराया था। इसका पता चलने पर बाबाराव सावरकर पर जानलेवा हमला भी हुआ, किन्तु वे अडिग रहे। इस का उल्लेख उनकी आत्मकथा में एक स्वतंत्र अध्याय के रूप में है। उन्होंने डॉ. हेगडेवार के संपादकत्व में ‘स्वातंत्य दैनिक’ में शुद्धि संबंधी लेख भी लिखे थे। एक नाटक ‘संगीत उरू शाप’ भी लिखा। सार्वजनिक व्याख्यान भी दिए।
23दिसम्बर 1926 को नया बाजार स्थित उनके निवास स्थान पर अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी धर्म-चर्चा के बहाने उनके कक्ष में प्रवेश करके गोली मारकर इस महान विभूति की हत्या कर दी। उसे बाद में फांसी की सजा हुई।
श्रद्धानंद का जन्म 2 फरवरी सन् 1856 (फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, विक्रम संवत् 1913) को पंजाब प्रान्त के जालंधर जिले के पास बहने वाली सतलुज नदी के किनारे बसे प्राकृतिक सम्पदा से सुसज्ज्ति तलवन नगरी में हुआ था। उनके पिता नानकचन्द विज ईस्ट ईण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे। उनके बचपन का नाम वृहस्पति विज और मुंशीराम विज था, किन्तु मुन्शीराम विज सरल होने के कारण अधिक प्रचलित हुआ। मुंशीराम विज से स्वामी श्रद्धानंद बनाने तक का उनका सफ़र पूरे विश्व के लिए प्रेरणादायी है। स्वामी दयानंद सरस्वती से हुई एक भेंट और पत्नी शिवादेवी के पतिव्रत धर्म तथा निश्छल निष्कपट प्रेम व सेवा भाव ने उनके जीवन को क्या से क्या बना दिया।
वकालत के साथ आर्य समाज के जालंधर जिला अध्यक्ष के पद से उनका सार्बजनिक जीवन प्रारम्भ हुया| महर्षि दयानंद के महाप्रयाण के बाद उन्होने स्वयं को स्व-देश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, स्वदेशी प्रचार, वेदोत्थान, पाखंड खडंन, अंधविश्‍वास उन्मूलन और धर्मोत्थान के कार्यों को आगे बढ़ाने में पूर्णतः समर्पित कर दिया। गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना, अछूतोद्धार, शुद्धि, सद्धर्म प्रचार, पत्रिका द्वारा धर्म प्रचार, सत्य धर्म के आधार पर साहित्य रचना, वेद पढ़ने व पढ़ाने की व्यवस्था करना, धर्म के पथ पर अडिग रहना, आर्य भाषा के प्रचार तथा उसे जीवीकोपार्जन की भाषा बनाने का सफल प्रयास, आर्य जाति के उन्नति के लिए हर प्रकार से प्रयास करना आदि ऐसे कार्य हैं जिनके फलस्वरुप स्वामी श्रद्धानंद अनंत काल के लिए अमर हो गए।
उनकी हत्या के दो दिन बाद अर्थात 25 दिसम्बर, 1926 को गुवाहाटी में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में जारी शोक प्रस्ताव में जो कुछ कहा वह स्तब्ध करने वाला था। गांधी के शोक प्रस्ताव के उद्बोधन का एक उद्धरण इस प्रकार है “मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा और मैं इसे दोहराता हूँ। मैं यहाँ तक कि उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ। वास्तव में दोषी वे लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की भावना को पैदा किया। इसलिए यह अवसर दुख प्रकट करने या आँसू बहाने का नहीं है।“
गांधी ने अपने भाषण में यह भी कहा,”… मैं इसलिए स्वामी जी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता। हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए। मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूँ।“ उन्होंने आगे कहा कि “समाज सुधारक को तो ऐसी कीमत चुकानी ही पढ़ती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है। “अब्दुल रशीद के धार्मिक उन्माद को दोषी न मानते हुये गांधी ने कहा कि “…ये हम पढ़े, अध-पढ़े लोग हैं जिन्होंने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया। स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा और मानव परिवार के इन दो शक्तिशाली विभाजन को मजबूत कर सकेगा।“ (यंग इण्डिया, 1926)। ( साभार )

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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