गुरूजी ने औरंगजेब के लिए एक पत्र लिखा
जिस समय गुरू गोविन्द सिंह को अपने दो सुपुत्रों को दीवार में चुनवाने का समाचार मिला था, उस समय गुरूदेव रामकोट में थे। तब उन्होंने औरंगजेब के लिए एक पत्र लिखा। जिसे उन्होंने ‘शायरी’ के रूप में लिखा था उस पत्र के कुछ अंश इस प्रकार थे-
जी वो हे तिश्ना काम आम दी।
जी मेवाड़ हम तल्ख जाम आमदी।।
वही सूंचू अकनून निगहत बकरद।
कि आ तल्खियों तिश्नागी खुर्द बुर्द।।
चुनी आतिशेजेरे नालत निहाम।
जी पंजाब आबोत न खुर्द न दिहाम।।
चे शुदगर शिगाले बा मकरो रिया।
हमीं कुश्त दो बच्चा ए शेर रा।।
चूं शेरे जियां जिंदा मानद हुए।
जी का इंतकामे सिजनद हुमे।।
ना दीगर गिरायम बनामे खुदा।
के दीदम खुदाओ-कलामे सुदा।।
वा सौगंध मां एतबारे न मांद।
बा मैदान आमद ब तेगो तबर।
मा कुल खल्के खुल्लाक जेरोजबर।।
”अर्थात (औरंगजेब) तुम्हारे मंसूबे दक्कन की पहाडिय़ों में नाकाम हो चुके हैं। मेवाड़ में भी तुम्हें पराजय का कड़वा घूंट पीना पड़ा है। अब तुमने इधर (पंजाब की ओर) देखने का साहस किया है। लगता है तुम अपनी असफलताओं और पराजयों की कड़वाहट भूल गये हो, मैं तुम्हारे तलुओं में इतनी भयंकर आग रख दूंगा कि तुझे पंजाब का दाना-पानी तक नसीब न होगा। क्या हुआ जो गीदड़ ने धोखे से और मक्कारी से ‘सिंह’ के दो शावकों अर्थात मेरे पुत्रों को मार डाला है। जब तक यह शूरवीर सिंह (मैं) जीवित है वह तुमसे इस मक्कारी का इंतकाम (प्रतिशोध) अवश्य लेगा। तुम खुदा का नाम लेते हो-पर इससे मैं कोई धोखा नहीं खाऊंगा, क्योंकि मैंने देख लिया है कि तुम्हारे खुदा का कलाम क्या है? मुझे अब तुम्हारे कसमों का कोई एतबार नहीं रहा। अत: अब शमशीर उठाने के अतिरिक्त मेरे पास कोई अन्य चारा नहीं है। तू स्वयं अपने हाथ में तलवार व कटार लेकर मैदान में आ जा और मुझसे युद्घ कर। खुदा के लिए निर्दोष बंदों को क्यों हलकान करता है।” (‘हिन्दू इतिहास वीरों की दास्तान’ से)
यह उद्घरण हमने यहां इसलिए दिया है कि इसके पढऩे से यह स्पष्ट हो जाता है कि गुरू गोविन्द सिंह ने अपने दो सुपुत्रों के बलिदान के उपरांत अपने हृदय में लग रही प्रतिशोध की आग को क्या शब्द दिये थे?
उन्होंने बंदा बैरागी जैसे अनेकों लोगों अथवा युवकों से भेंट की होगी। यह अलग बात है कि उन्हें उन अनेकों में से मिला केवल एक। यह वैसे ही था जैसे गुरू बिरजानंद जी महाराज को शिष्य तो अनेकों मिले होंगे पर ‘दयानंद’ तो एक ही मिला था।
अत: हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि गुरू गोविन्द सिंह और तत्कालीन हिंदू समाज गुरू के दो बच्चों के बलिदान को यूं ही मौन रहकर सह गया था। हिंदू समाज ने प्रतिशोध लिया और उस प्रतिशोध की अग्नि का एकीभूत पुंज था-बंदा बैरागी। जिसे राष्ट्र का वैराग्य हो गया था।
आततायी उस्मान खां को मिटा दिया
कस्बा साठोरा के हिंदू वहां के मुस्लिम मुखिया उस्मान खां के अत्याचारों से बड़े दुखी थे। इस आततायी ने हिंदू जनता को नचाकर रख दिया था। उसके रहते हिंदुओं की बहू बेटियों का सम्मान भी सुरक्षित नही था। उसने हिंदुओं को समाप्त करने के लिए जो कुछ भी किया जा सकता था-वही किया था।
विनोदसिंह नामक व्यक्ति ने जब बैरागी को जाकर यहां के अत्याचारों की कथा सुनाई तो उससे रहा नहीं गया। वह शेर की भांति दहाड़ता हुआ यहां आ पहुंचा। उसने भयंकर मारकाट की। उसकी तलवार और साहस का सामना करने की क्षमता शत्रु में नहीं थी।
दो दिन तक निरंतर लूटमार होती रही। उस्मान खां ने बंदा बैरागी को मारने की प्रतिज्ञा ली हुई थी। पर जब सचमुच बैरागी सामने आ खड़ा हुआ तो उस महातेजस्वी मां भारती के सपूत से उस्मान आंख मिलाने का साहस भी नहीं कर पा रहा था। उसने ऐसी वीरता और युद्घ कौशल अब से पूर्व नहीं देखे थे। उसके लिए बैरागी किसी चमत्कार से कम नहीं था।
बैरागी को भी उस्मान खां की खोज थी, जैसे ही वह वैरागी के सामने आया, वैरागी ने उस पर बड़ा घातक प्रहार किया। उस्मान भागने लगा तो उसे पकड़ लिया गया। बैरागी के दिये गये निर्देशानुसार उस्मान खां को पकड़ लिया गया और उसे एक वृक्ष से बांध दिया गया। अब पंजाब के भाई सतीदास, भाई मतीदास, भाई दयाला जी और गुरू पुत्र जोरावरसिंह व फतेहसिंह के उदाहरण हमारे लोगों के सामने थे, इसलिए बांधे हुए शिकार को जीवित छोडऩे का तो प्रश्न ही नहीं था। इसलिए उन लोगों ने पकड़े गये शिकार का अंत कर देना ही उचित समझा। अत: बांधे हुए उस्मान को मारकर समाप्त कर दिया गया।
इस समय शासक विदेशी जाति और शासित हिंदू जाति का परस्पर कांटे का संघर्ष हो रहा था। इतिहास यदि भाई सतीदास, मतीदास, दयाला आदि के निर्मम वधों का है तो इतिहास इन वधों के प्रतिशोध लेने का भी है। वह प्रतिशोध हमारे स्वतंत्रता संघर्ष की ओर संकेत करता है और संकेत ही नहीं करता अपितु स्वतंत्रता संघर्ष का डिण्डिम घोष भी करता है।
सर्वत्र होने लगी थी जय जयकार
बंदा बैरागी भारत की उसी सनातन परंपरा का प्रतीक बन चुके थे जिसमें शास्त्र की रक्षा के लिए शस्त्र सर्वप्रथम पूजनीय माना गया है। उनकी हर सांस में ‘सत्यमेव जयते’ की रक्षार्थ ‘शस्त्रमेव जयते’ का व्यावहारिक दर्शन झलक रहा था। उनके रोम-रोम में गीता का ‘परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्’ का उद्घोष समा गया था। यह उद्घोष एक वीर भाषा, एक वीर भूषा और एक वीर परंपरा का उद्घोषक बन चुका था। राष्ट्ररक्षा का संकल्प इस उद्घोष का मूल सूत्र था और देश की स्वाधीनता इस संकल्प का अंतिम लक्ष्य था। मुखलिसगढ़ के किले को अपने आधिपत्य में लिया
उस्मान खां को मारकर बंदा वैरागी ने मुखलिसगढ़ के किले को अपने आधिपत्य में लिया, और उसका नाम भी लोहगढ़ रखा। यहां से बंदा बैरागी को अपनी सैन्य तैयारियों के लिए एक स्थान उपलब्ध हो गया।
बंदा बैरागी के वीरोचित कृत्यों की धूम सर्वत्र मचने लगी। हिंदू समाज में बंदा बैरागी ने पुन: प्राणों का संचार किया, और उसे अनुभव कराया कि मां भारती की गोद और कोख कभी खाली नहीं हो सकती। यह ऐसी दिव्या मां है जो बड़े से बड़े शून्य को भरने की सामथ्र्य रखती है। हिंदू समाज के विषय में हम पूर्व से ही इस मान्यता के हैं कि इसकी चेतना कभी नही मरी। हां, समय-समय पर परिस्थितिवश या किसी भी कारण से कभी-कभी ऐसा अवश्य लगता था कि संभवत: अब इसके लिए प्राण संकट उत्पन्न हो गया है और हिंदू निष्क्रिय हो गया है।
हिंदू युवा शक्ति का आकर्षण बढ़ा
बंदा वैरागी के प्रति हिंदू युवा शक्ति का आकर्षण बढ़ा। उसने राष्ट्ररक्षा के लिए अपना यौवन ‘बिना मोल लिये’ देना आरंभ कर दिया। नेताजी सुभाष की भांति बैरागी ने कहीं भी उद्घोष नही किया कि ‘तुम मुझे खून दो और मैं तुम्हें आजादी दूंगा।’ यहां तो बंदा को बस पहचान लिया गया कि यही वह व्यक्ति है जो हमारा खून तो लेगा पर हमारे बच्चों को आजादी भी दे देगा, और इसी पहचान के आधार पर बंदा के लिए यौवन न्यौछावर किये जाने लगे।
देखते ही देखते बंदा के पास एक विशाल सेना खड़ी हो गयी। जो लोग मारे डर के पहाड़ों में जा छिपे थे-वह भी वहां से निकलकर बाहर आ गये तथा जो मुसलमान अभी तक हिंदुओं को आतंकित कर रहे थे, वही अब मारे भय के कांपने लगे।
कपटी मुस्लिमों का वध कर दिया
जिस समय बंदा वैरागी का सितारा चढ़ता जा रहा था, उस समय उससे हिंदू तो आकर मिल ही रहे थे-साथ ही बहुत से मुसलमान भी आकर मिल रहे थे। ऊपर से तो ऐसा लगता था कि इन सबका उद्देश्य बड़ा पवित्र है परंतु भीतर से उनका उद्देश्य बड़ा ही छल और कपट से भरा हुआ था।
इन मुस्लिमों के वास्तविक उद्देश्य की जानकारी बंदा वैरागी को इनके द्वारा सूबे को लिखे गये एक पत्र से हुई। जिसमें लिखा था-”हमने इसे हाथों पर डाल लिया है, यह केवल कपट से मारा जाएगा।”
भाई परमानंद जी ने लिखा है कि-”इस पत्र को इन मुस्लिमों के दूत एक खोखले बांस में डालकर सरहिंद को ले जा रहे थे कि जंगल में एक ऊंट चराने वाले की सांडनी खेत में जा बड़ी। दैवयोग से चरवाहे ने वह बांस उनके हाथ से लेकर सांडनी को हांका। बांस टूट पड़ा और वह पत्र बाहर निकल आया। बैरागी ने वह पत्र पढ़ा और सब मुसलमानों को बुलाया जिन्होंने उसका आश्रय लिया था। उनसे प्रश्न किया गया कि शरण में आये कपटी व्यक्ति के लिए आपकी दृष्टि में क्या दण्ड है। (बिना सोचे समझे उन) सबने कहा-‘उसे मार देना चाहिए।’
तब बंदा ने (उन सबको) वह पत्र पढक़र सुनाया। सब हक्के बक्के रह गये। रोदन करते हुए सबके सब क्षमा के लिए प्रार्थना करने लगे। बैरागी ने कहा-”अच्छा जितने मनुष्य इस डेरे के अंदर आ जाएंगे उनको छोड़ दिया जाएगा।’ अगणित मुसलमान डेरे के अंदर घुसे और एक दूसरे पर चढक़र बैठ गये। सबने अपने आपको फंदे में फंसा लिया। सबका बड़ी निर्दयता के साथ वध कर दिया गया। इस स्थान का नाम कतलगढ़ी (हिंदूकुश की तर्ज पर) रखा गया।”
बैरागी के इस आचरण को ‘षठे षाठयम् समाचरेत्’ के अनुकूल ही कहा जाएगा। शत्रु जब आपकी ग्रीवा (गिरेबान) में चाकू घोंपकर आपको ही समाप्त करने के मार्ग पर चल रहा हो, तब उसके प्रति आपकी ओर से बरता गया प्रमाद या उपेक्षाभाव, या असावधानी आपके लिए भी घातक सिद्घ हो सकती है।
हिंदुओं को हुई असीम प्रसन्नता
जब हिंदुओं को बैरागी के इस कृत्य की जानकारी हुई तो उन्हें असीम प्रसन्नता हुई। आततायी के विरूद्घ इतना कठोर निर्णय लेकर अपनी वीरता और अपने शौर्य का प्रताप बिखेरने वाले बैरागी का लोगों में यश बढ़ा, सम्मान बढ़ा, प्रतिष्ठा बढ़ी। उसके नाम से लोगों को सुरक्षा का भाव अनुभव होने लगा। उसकी उपस्थिति से लोगों को गौरवानुभूति होती थी और लगता था कि बैरागी के रहते हमें किसी प्रकार का संकट आकर नहीं घेर सकता।
बैरागी ने मुगलों को उनकी भाषा में उत्तर दिया। उसने युद्घ में उनके द्वारा अपनाये जाने वाले नियमों का ही अनुकरण किया और हर स्थिति में अत्याचार को सहन करने वाले समाज को संबल प्रदान करना अपना कत्र्तव्य समझा। मुसलमानों के लिए नरसंहार, गांवों-नगरों में आग लगाना, लोगों को यातनाएं दे-देकर मारना, झूठी कसमें खाकर धोखा देकर अपने शत्रु का वध करना इत्यादि कोई बड़ी बात नही थी। इसलिए बंदा बैरागी ने उस समय में मुगलों की युद्घनीति का पालन उन्हीं के विरूद्घ करके दिखाया।
मुगल आक्रांताओं का उद्देश्य था गाय और ब्राह्मण का विनाश
हमें प्रसन्न करने के लिए या कहिए कि सत्य से हमारा ध्यान हटाने के लिए मुगल आक्रांताओं के भारत पर आक्रमण करने के उद्देश्य सामान्यत: राजनीतिक ही बताये जाते हैं। पर वास्तव में ऐसा नहीं था। हम पूर्व में भी स्पष्ट कर चुके हैं कि उनके आक्रमण का मूल उद्देश्य भारत के मूल वैदिक सनातन धर्म का विनाश करना था। जिसके मानने वाले उस समय हिंदू लोग थे। उन हिंदुओं की गाय (जो उनकी आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ थी और उनकी आर्थिक समृद्घि का प्रतीक थी) और ब्राह्मण (संस्कृति और धर्मरक्षक विद्वानों का वर्ग) के प्रति असीम श्रद्घा थी। इसलिए इन विदेशी आक्रांताओं का मूल उद्देश्य गाय और ब्राह्मण का विनाश करना था। इन दोनों के विनाश से हिंदू धर्म का विनाश हो जाना था। क्योंकि ये दोनों हिंदू समाज के प्राणतत्व थे।
अत: भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम में गाय और ब्राह्मण की रक्षा करते-करते हिंदू का स्वाभाविक स्वभाव इनके प्रति रक्षक का और मुस्लिमों का इनके प्रति भक्षण भाव होने के कारण भक्षक का बन गया।
हिन्दू योद्घा बंदा बैरागी, गाय और ब्राह्मण का रक्षक था। इसलिए उसे धर्मरक्षक, संस्कृति रक्षक, राष्ट्ररक्षक और देशरक्षक मानकर हिंदू लोग उसके प्रति आकर्षित होते गये।
बलोड गांव के ब्राह्मणों की रक्षा की
बलोड ग्राम के ब्राह्मणों को मुस्लिम अत्याचारों का सामना करना पड़ रहा था। उनके कुओं में मुस्लिम गौ मारकर उसका रक्त तक डाल देते थे। जिससे उनका धर्मभ्रष्ट हो रहा था। लोगों पर सत्ताधीशों की यातनाएं बढ़ती ही जाती थीं। तब उन लोगों ने बैरागी के पास जाकर अपनी वेदना का वर्णन उसके समक्ष किया।
ब्राह्मणों की पीड़ा से बैरागी भी व्यथित हो उठा। उसे उनके प्रति असीम सहानुभूति उत्पन्न हुई। उसने तुरंत अपने सैनिकों को उन ब्राह्मणों के साथ भेजा और आततायियों को ऐसा कठोर दण्ड दिलाया कि उन्हें यह पता चल गया कि अब गौ और ब्राह्मण का रक्षक भी कोई आ गया है।
बैरागी बोला-‘वीर बनकर लड़ो’
कहते हैं कि सब खान मारकर समाप्त कर दिये गये थे। इसका वर्णन करते हुए भाई परमानंद लिखते हैं कि-”इस स्थान पर बैरागी ने पहली बार सरदारों को उनके काम बांटे। फतहसिंह सेनानायक बनाया गया। बाजसिंह सारे कोष का अधिकारी और विनोदसिंह तथा कर्णसिंह दैशिक अधिकारी बने। माझे के सिखों को बैरागी की सहायता से रोकने के लिए सरहिंद के सूबेदार ने अपने दो सेनानी, पांच हजार सेना और तोपें देकर रवाना किया। रोपण पर इनकी पराजय हुई और बहुत सा गोला बारूद सिखों के लिए छोड़ गये। इतने में कश्मीरी रिसाले की सहायता आ पहुंची। लड़ाई में खिजर खां फौजदार तथा अन्य कई सरदार मारे गये। मुसलमानों को पीछे हटना पड़ा, किंतु एक और भी भारी सेना पीछे से आ गयी। बैरागी पीछे हो गया। उसने मुकाबले की पूर्ण तैयारी आरंभ की। आज एक बड़े भारी सूबे के नवाब की सेना के साथ सामना था। इस समय उसके पास आठ हजार पैदल और चार हजार सवार हो गये थे। सरहिंद वही स्थान था जहां गुरू गोविन्दसिंह के नन्हें बच्चे किले की दीवारों में चुनवाये गये थे। बैरागी का हृदय प्रतिकार के लिए जल रहा था। इसने सिखों को एकत्र किया और गुरू के बच्चों के नाम पर अपील की और कहा कि प्रतिकार का समय आ गया है वीर बनकर लड़ो।”
समस्त हिंदू समाज उठ खड़ा हुआ
गुरू के बच्चों के नाम पर प्रतिकार की अपील सुनकर समस्त हिंदू समाज उठ खड़ा हुआ। सिखों ने अपने बलिदानी जत्थे बनाये और सबने बैरागी के हाथ सुदृढ़ करने का निर्णय लिया। सम्वत 1765 ई. में भयंकर संघर्ष किया गया। सभी हिंदू वीर अपने गुरू के बच्चों का प्रतिशोध लेने के लिए युद्घ में कूद गये। सबने मान लिया कि अवसर बार-बार नहीं आते हैं, और यह भी कि आये हुए अवसर को पहचानना हमारी अपनी बौद्घिक क्षमताओं पर निर्भर करता है। अत: अवसर का लाभ उठाने के उद्देश्य से हिंदुओं ने बड़ी वीरता से युद्घ प्रारंभ किया। परंतु उनके पास तोपों का अभाव था। जिससे कुछ सैनिक भागने लगे। तब सरदार ने उन्हें लताड़ा-‘तुम्हें धिक्कार है जो युद्घ के मैदान से इस प्रकार भागे जाते हो। युद्घ के क्षेत्र से इस प्रकार तुम्हारा भागना गुरूओं का अपमान करना है, गुरू पुत्रों का भी अपमान करना है, इसलिए भागने की कायरता को छोडक़र अंतिम क्षणों तक युद्घ में डटे रहो।’
सेना के टूटते मनोबल को बैरागी ने संबल दिया और विजय प्राप्त की
इस पर सिख सेना एक बार रूक तो गयी, पर मुस्लिमों की तोपों का सामना करने का उनका साहस पुन: ढीला हो गया। तीन कोस युद्घ क्षेत्र से दूर खड़ा बैरागी युद्घ को देख रहा था, उसे पल-पल की सूचना मिल रही थी। जब उसे ज्ञात हुआ कि उसकी सेना का मनोबल टूट रहा है तो वह विद्युत की भांति वहां आ उपस्थित हुआ। उसके बाणों की वर्षा होने लगी। उसकी बाण वर्षा ने जो आंधी मचाई उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। मुस्लिम सेना की तोपें शांत होने लगीं। मुस्लिम सेनापति वजीर खां को ललकारते हुए बैरागी ने कह दिया कि निर्दोष लोगों को क्यों मरवाते हो, साहस है तो तलवार उठाओ और युद्घ करो। आओ मैं तुमसे दो-दो हाथ करने के लिए तैयार हूं। मैं प्रतिशोध की आग में जला जाता हूं इसलिए देर मत करो, आओ और मेरे साथ युद्घ करो।
वजीर खां बैरागी को सामने देखकर भाग निकला। भागते हुए उसके हाथी का पैर एक कब्र में फंस गया, और वजीर खां गिरफ्तार कर लिया गया। इसकी सूचना मिलते ही सारी मुस्लिम सेना भाग खड़ी हुई। बैरागी की जय-जयकार होने लगी।
क्रमश:
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(साहित्य सम्पादक)