गीता का तेरहवां अध्याय और विश्व समाज

इस प्रकार श्रीकृष्णजी ने इन चौबीस तत्वों से ब्रह्माण्ड तथा पिण्ड के क्षेत्र को बना हुआ माना है। जैसे खेत में खरपतवार उग आता है वैसे ही इच्छा, द्वेष, सुख-दु:खादि पिण्ड रूपी क्षेत्र केे खरपतवार या विकार हैं। यह खरपतवार पिण्ड रूपी क्षेत्र की सद्भावों की फसल को बेकार करन् डालते हैं। जिस खेत में ये खरपतवार पैदा हो जाते हैं उसका विनाश हो जाता है। इसीलिए हमारे पूर्वजों ने इस प्रकार के खरपतवार को नष्ट करने के लिए और मानव को मानव और मानवता के लिए उपयोगी बनाने हेतु अपना धर्मतंत्र विकसित किया।
जैसे किसान विशेष साधना अर्थात ईक्षण-तप द्वारा अपने खेत के खरपतवारों को समाप्त करता है-वैसे ही व्यक्तियों को अपने पिण्ड रूपी क्षेत्र के विकारों या खरपतवारों का नाश करने के लिए विशेष साधना करनी पड़ती है। बीजनाश करना पड़ता है। ईश्वर के नाम जप की, उसके तेज की भट्टी में इन सभी विकारों को भूनकर उनका बीजनाश करना पड़ता है। उन्हें दग्धबीज करना पड़ता है। इसके पश्चात हम देखते हैं कि ‘क्षेत्र’ में सदाविचारों की और पुष्पों की खेती ही रह जाती है। कहा जाता है कि पुण्य की जड़ हरी होती है। इसका अभिप्राय है कि साधना की भट्टी में ईश्वर के तेज के सामने पापों का ही बीजनाश होता है, परंतु पुण्यों की फसल तो वहां और भी अधिक लहलहाती है। तेज के सामने भी सूखना नहीं अपितु और भी अधिक लहलहाना यह सिद्घ करता है कि पुण्य की जड़ हरी होती है। इस अवस्था को ज्ञानी पुरूष ही प्राप्त कर सकते हैं।
ज्ञानयोगी कौन?
जिसके पुण्यों की फसल लहलहा जाती है-वह कोई छोटा-मोटा पुरूष नहीं होता। यह संसार उन्हें ‘महान पुरूष’ की संज्ञा देता है। राजनीति के क्षेत्र में रहकर लोग दिन-रात अपराध करते हैं और बड़े पद पाने में (अपनी तिकड़मबाजी के बल पर) सफल हो जाते हैं-कई लोग उन्हें भी महापुरूष कह देते हैं। पर ऐसा नहीं है। तिकड़मबाज, घोटालेबाज और चालबाज लोग कभी महापुरूष नहीं होते हैं-बड़े पद को पा लेना आसान है-बड़े कद को पाना बड़ा कठिन है। पद के साथ तो मद भी खड़ा है। पर कद के साथ पद तो हो सकता है-मद नहीं हो सकता। कद का अभिप्राय ऊंचाई से है और ऊंचाई का अभिप्राय ज्ञान गाम्भीर्य से है। ज्ञान गाम्भीर्य व्यक्ति को कद देता है, पद देता है, पर मद नहीं देता। मद से तो मुक्त करता है। श्रीकृष्णजी ज्ञानयोगी का वर्णन करते हुए कहते हैं कि ज्ञानयोगी वही है-जिसके भीतर अभिमान न हो, दम्भ, छल-कपट न हो। अपने आपको डींगे मार-मारकर अधिक प्रदर्शित करने की भावना से जो मुक्त हो।-वह ज्ञानयोगी कहा जाएगा। जिसके भीतर क्षमा, सरलता, आचार्य की सेवा का भाव है, सादगी है, शरीर तथा मन की शुद्घता है, स्थिरता है, समय है-वह ज्ञानयोगी है। ऐसे ज्ञानयोगी को संसार पसन्द भी करता है और उसे नमन भी करता है। ऐसे ज्ञानयोगी तैयार करना और मानवता को सदा ऊर्जान्वित बनाये रखना भारत के धर्मतन्त्र का प्रमुख उद्देश्य रहा है। इसमें राज्य व्यवस्था का सहभागी होना यह बताता है कि हमारी राज्यव्यवस्था धर्मतन्त्र की इसलिए सहयोगी होती थी कि वह भी मानवता को ऊर्जान्वित करने के कार्य में ही लगी रहती थी।
अत: ज्ञानयोगी के विषय में ध्यान रखने की बात है-
छलकपट ना दम्भ हो ना होवे अभिमान।
क्षमा, सरलता, शुद्घता ये उसकी पहचान।।
ज्ञान गाम्भीर्य से व्यक्ति को पता चलता जाता है कि संसार के विषय-भोग=इंन्द्रियों की भूख ये सभी मुझे मारने वाले हैं। इनसे मुंह मोड़ लेने में ही लाभ है। संसार में मृत्यु का तांडव ज्ञान योगी मचता हुआ देखता है। नित किसी का जन्म होता देखता है, फिर उसका शैशव, किशोरावस्था युवावस्था और फिर ढलता हुआ शरीर देखता है -अन्त में मृत्यु को झपट्टा मारते देखता है। फसल को उपजता देखता है, फिर उसकी लहलहाती जवानी को देखता है, फिर उसको खेत में ही सूखते देखता है। वृक्ष को बीज से उपजते देखता है और फिर उसे भी अन्य जीवधारियों की अवस्थाओं से निकलकर एक दिन सूखते हुए देखता है। जिसे लोग उत्थान (जवानी) कहते हैं-वह वास्तव में पतन (बुढ़ापे) के लिए आता है। ऐसी स्थिति को देखकर ज्ञानयोगी को वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। उसके विषय में श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि ज्ञानयोगी को विषयों में वैराग्य हो जाता है। वह अहंकारशून्यता को पा लेता है।
जन्म, मृत्यु, वृद्घावस्था, रोग तथा दु:ख इन दोषों को देखते तो सभी हैं-पर ज्ञानयोगी इन्हें विशेष ढंग से देखता है। उसके देखते का ढंग और संसार के लोगों के देखने के ढंग में भारी अन्तर है। देखना तो ज्ञानयोगी का ही उत्तम है। इसमें विशिष्टिता है, अनोखापन है, सकारात्मकता है और चिन्तन में गम्भीरता है। श्रीकृष्णजी इसी अवस्था को संसार के लोगों के लिए उपयोगी मानते हैं। उनका सन्देश यही है कि चीजों को तात्विक दृष्टिकोण से देखो। उत्थान को पतन के लिए समझो और फिर पतन (मृत्यु) को उत्थान (जन्म) के लिए समझो। इससे आपके व्यक्तित्व में विशिष्टता आएगी, अनोखापन आएगा और यह विशिष्टता व अनोखापन ही तुम्हें महापुरूष की श्रेणी में ले जाएगा।
अनासक्ति पुत्र, स्त्री, गृह आदि साथ मोह का न होना अभीष्ट और अनभीष्ट प्रिय तथा अप्रिय में सदा समचित्तता निरन्तर समभाव रखना-यह ज्ञानयोगी की विशेषता होती है। संसार के सारे सम्बन्ध बिगडऩे के लिए बन रहे हैं। ये मिटने हैं और हमें थोड़ी देर के लिए वैसे ही बनते दीख रहे हैं जैसे पानी में बुलबुला बनता दीखता है। इसलिए इनमें आसक्ति बढ़ाना अपने अज्ञान को बढ़ाना है। जिसको यह पता है कि यह बिगडऩे के लिए ही बन रहा है-उसे सत्य मान लेना भूल है- अज्ञान है। मंजिल इन भूल-भुलैयों का नाम नहीं है। वह तो स्थिरता की प्रतीक है-ज्ञान की प्रतीक है। इसलिए वह मोहादि विकारों से उपराम होकर अभीष्ट-अनभीष्ट, प्रिय-अप्रिय आदि द्वन्द्वों को पार करके मिलेगी। यही कारण है कि ज्ञानयोगी इन सब द्वन्द्वों में समभाव बरतता है। वह समचित्त रहता है। यह उसकी विशेषता होती है।
योगेश्वर श्रीकृष्णजी कह रहे हैं कि अर्जुन ज्ञानयोगी अनन्य भाव से मुझमें निष्ठा रखता है, वह एकनिष्ठ होकर मेरी भक्ति करता है। वह संसार के कोलाहल से, शोर-शराबे से बचता है और एकान्त को खोजता है। क्योंकि एकान्त स्थान में ही उसे एकनिष्ठ होकर मेरी भक्ति करने का और मुझसे वात्र्तालाप करने का उत्तम अवसर उपलब्ध होता है। तभी तो एकनिष्ठ योगी या भक्त जनमुदाय में अरूचि दिखाने लगता है। जनसमुदाय में उसका ईश्वर से चल रहा वात्र्तालाप भंग हो जाता है। संसार का कोलाहल और अनर्गल बातों में लगा संसार का जनसमुदाय ऐसे भक्त को अपनी भक्ति में खलल डालते प्रतीत होने लगते हैं।
एकनिष्ठ भक्ति करै ढूढै शान्त स्थान।
लोगों से बचकर चलै प्रेम करे भगवान।।
आगे श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि ज्ञानयोगी व्यक्ति निरन्तर आत्मा के ज्ञान में मग्न रहता है। आत्मा के ज्ञान में आत्मा के सागर में वह डुबकी लगाने लगता है और हर डुबकी पर, हर श्वांस में वह एक से बढक़र एक मोती खोजकर लाता है। वह तत्व ज्ञानी होता है और समझ जाता है कि तत्वज्ञान की प्राप्ति ही जीवन का ध्येय है, प्रयोजन है, अभीष्ट है। यह भान हो जाना-यह पता चल जाना ही तो ज्ञान की प्राप्ति है। श्रीकृष्ण जी इस ज्ञान से भिन्नावस्था को अज्ञान कहते हैं।
क्रमश:

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