विजन कुमार पांडेय
बुधवार 31 जनवरी को इस साल यानी 2018 का पहला चंद्रग्रहण लगा। इस दिन भारत के साथ-साथ विभिन्न देश के लोगों को ‘ब्लडमून’, ‘सुपरमून’ और ‘ब्लूमून’ की एक दुर्लभ खगोलीय घटना देखने को मिली। नासा के अनुसार पिछली बार ऐसा ग्रहण 1982 में लगा था और इसके बाद ऐसा मौका 2033 में यानी पच्चीस साल के बाद आएगा। इस बार भी चंद्रग्रहण में चांद हमेशा की तरह से थोड़ा बड़ा, लाल और चमकदार दिखा। इस चंद्रग्रहण का सबसे अच्छा नजारा भारत और ऑस्ट्रेलिया में दिखा। इस दुर्लभ खगोलीय घटना को भारत के लोग बिना टेलीस्कोप की मदद के आंखों से सीधे देख सके। इसके अलावा यह दुर्लभ नजारा पूरे उत्तर अमेरिका, प्रशांत क्षेत्र, पूर्वी एशिया, रूस के पूर्वी भाग, इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भी दिखा। दरअसल, सुपरमून एक आकाशीय घटना है, जिसमें चांद अपनी कक्षा में धरती के सबसे नजदीक होता है और पूर्ण चांद को साफ तौर पर देखा जा सकता है। पिछले कुछ समय के दौरान इस मौके पर लोगों को तीसरी बार सुपरमून देखने का मौका मिला है। इससे पहले तीन दिसंबर और एक जनवरी को भी सुपरमून दिखा था।
चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण जहां पूरी तरह स्पष्ट खगोलीय घटनाएं हैं, वहीं दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जिनके लिए ग्रहण किसी खतरे का प्रतीक है। जैसे कई बार इस मौके पर दुनिया के खात्मे या भयंकर उथल-पुथल की चेतावनी की बात फैलाई जाती है। दरअसल, इस तरह के ग्रहण चूंकि एक बड़े तबके के लिए अबूझ रहे, इसलिए ऐसे ज्यादातर लोगों को यह जितना अचंभित करता रहा है, उतना ही डराता भी रहा है।
असल में जब तक मनुष्य को ग्रहण की वजहों की सही जानकारी नहीं थी, उसने असमय सूरज को घेरती इस अंधेरी छाया को लेकर कई कल्पनाएं कीं, कई कहानियां गढ़ीं। सातवीं सदी के यूनानी कवि आर्कीलकस ने कहा था कि भरी दोपहरिया में अंधेरा छा गया तो इससे लोग डरने लगे। मजे की बात यह है कि आज जब हम ग्रहण के वैज्ञानिक कारण जानते हैं, तब भी ग्रहण से जुड़ी ये कहानियां और अंधविश्वास बरकरार हैं। हिंदू मिथकों में इस तरह के ग्रहण को अमृतमंथन और राहु-केतु नामक दैत्यों की कहानी से जोड़ा जाता है और इससे जुड़े कई अंधविश्वास भी प्रचलित हैं। दरअसल, सत्रहवीं सदी के अंतिम वर्षों तक भी अधिकतर लोगों को यह मालूम नहीं था कि ग्रहण क्यों होता है। हालांकि आठवीं शताब्दी से ही खगोलशास्त्रियों को इनके वैज्ञानिक कारणों की जानकारी थी। इस संबंध में जानकारी के अभाव की मुख्य वजह थी- संचार और शिक्षा की कमी। जानकारी का प्रचार-प्रसार मुश्किल था, जिसके कारण अंधविश्वास पनपते रहे। प्राचीन समय में मनुष्य की दिनचर्या कुदरत के नियमों के हिसाब से संचालित होती थी। इन नियमों में कोई भी फेरबदल मनुष्य को बेचैन करने के लिए काफी होता था।
प्राचीन काल में खगोलीय उतार-चढ़ाव के दौरान सूर्य का छिपना लोगों को डराता था और इसीलिए इससे जुड़ी तरह-तरह की कहानियां प्रचलित हो गई थीं। इनमें सबसे व्यापक रूप था सूरज को ग्रसने वाले दानव का। एक ओर पश्चिमी एशिया में मान्यता थी कि ग्रहण के दौरान ड्रैगन सूरज को निगलने की कोशिश करता है और इसलिए वहां उस ड्रैगन को भगाने के लिए ढोल-नगाड़े बजाए जाते थे। वहीं चीन में मान्यता थी कि सूरज को निगलने की कोशिश करने वाला दरअसल स्वर्ग का एक कुत्ता है। पेरुवासियों के मुताबिक यह एक विशाल प्यूमा था और वाइकिंग मान्यता थी कि ग्रहण के समय आसमानी भेडिय़ों का जोड़ा सूरज पर हमला करता है। लेकिन सभी सभ्यताओं में ग्रहण भय का प्रतीक नहीं था। टोगो और बेनिन में बैटामैलाइबा लोगों की मान्यता थी कि ग्रहण के दौरान सूरज और चांद आपस में झगड़ा कर रहे होते हैं। इसलिए उन्हें आपस में सुलह करने के लिए प्रेरित करने के मकसद से लोग ग्रहण के दौरान अपने पुराने झगड़े सुलझाते थे और दुश्मनों को माफ करते थे। इसी तरह दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र के मूल निवासी और अमेरिका के उत्तर-पश्चिम तट पर रहने वाले स्थानीय अमेरिकी कबीलों का विश्वास था कि सूरज और चांद प्रेमी-प्रेमिका हैं और ग्रहण के दौरान वे धरती से पर्दा कर प्रेमलीला करते हैं।
दरअसल, ग्रहण के बारे में विभिन्न सभ्यताओं का नजरिया इस बात पर निर्भर करता है कि वहां प्रकृति कितनी उदार या अनुदार है। जहां जीवन मुश्किल है, वहां देवी-देवताओं के भी क्रूर और डरावने होने की कल्पना की गई और इसीलिए वहां ग्रहण से जुड़ी कहानियां भी डरावनी हैं। जहां जीवन आसान है, भरपूर खाने-पीने की चीजें मौजूद हैं, वहां ईश्वर से मानव का रिश्ता बेहद प्रेमपूर्ण होता है और उनके मिथक भी ऐसे ही होते हैं। मध्यकालीन यूरोप में प्लेग और युद्धों से जनता त्रस्त रहती थी। ऐसे में सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण उन्हें बाइबिल में प्रलय के वर्णन की याद दिलाता था। पहले के लोग ग्रहण को प्रलय से क्यों जोड़ते थे, इसे समझना बेहद आसान है। बाइबिल में उल्लेख है कि कयामत के दिन सूरज बिल्कुल काला हो जाएगा और चांद लाल रंग का हो जाएगा। सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण में क्रमश: ऐसा ही होता है। फिर लोगों का जीवन भी छोटा था और उनके जीवन में ऐसी खगोलीय घटना बमुश्किल एक बार ही घट पाती थी, इसलिए यह और भी डराती थी।
लेकिन अज्ञान से उपजी ऐसी धारणाओं के बीच जीने वाले समाजों में लोगों को ग्रहण से डरा कर बेजा फायदा भी उठाया गया है। यों ग्रहण की जानकारी रखने वालों ने भी इसका इस्तेमाल अपने फायदे के लिए किया है।
1504 में जब क्रिस्टोफर कोलंबस का जहाज जमैका के तट से टकरा गया और जहाज के कर्मचारियों के भूखे मरने की नौबत आ गई तो कोलंबस ने चंद्रग्रहण की सटीक जानकारी के जरिए आकाशीय शक्तियों पर अपने नियंत्रण का दावा किया, ताकि स्थानीय अरावाक इंडियन उन्हें रसद मुहैया कराएं। कई बार ग्रहण से जुड़े अंधविश्वासों को और फैलाया गया, ताकि लोगों को सही जानकारी न हो और उनके अज्ञान का इस्तेमाल अपने हक में किया जा सके। लेकिन ज्ञान में विस्तार के साथ संचार माध्यमों की शुरुआत के बाद ग्रहण के बारे में जानकारी बढऩे लगी। सत्रहवीं सदी के यूरोपीय अखबारों में ग्रहण से जुड़ी खतरनाक भविष्यवाणियां तो नजर आती हैं, लेकिन ऐसी खबरें भी दिख जाती हैं कि ये सारी भविष्यवाणियां बकवास हैं। ये सब यह कुछ और नहीं, बल्कि सौर प्रणाली से जुड़ी घटनाएं भर है। लेकिन आज जब हम ग्रहण के वैज्ञानिक कारणों को जानते हैं, उसके बाद भी इस तरह के अंधविश्वास क्यों प्रचलित हैं? इसके पीछे संयोग भी है। अगर किसी ग्रहण के आसपास कोई जन्म या मृत्यु होती है तो जो लोग ज्योतिष विद्या में विश्वास करते हैं, वे इसे ग्रहण से जोड़ लेते हैं। जबकि यह मात्र संयोग होता है। इन मिथकों के प्रचलित रहने का एक और कारण भी है। ग्रहण की प्रतिक्रिया हमारे शरीर पर भी होती है। जब हम कोई ग्रहण देखते हैं तो हमारी धडक़नें तेज हो जाती हैं, शरीर के तापमान और सांसों की गति में बदलाव आता है, पुतलियां फैल जाती हैं और पसीना आने लगता है। माना जाता है कि इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण हैं।
कुदरत के बारे में हममें अंतर्निहित समझ होती है। जब सूर्यग्रहण जैसा कुछ देखते हैं जो हमारी समझ के हिसाब से असंभव है तो प्रतिक्रिया में दिमाग शरीर को ये सारे संकेत भेजता है। फिर हम सभी के शरीर में एक ही तरह की प्रतिक्रिया होती है, लेकिन हम उनका क्या अर्थ निकालते हैं, यह हमारी संस्कृति पर निर्भर करता है। अज्ञान से अंधविश्वास पर आधारित कोई धारणा बनेगी और ज्ञान से नई रोशनी पैदा होगी।